Ranchi-2023 की विदाई की बेला में खड़े सीएम हेमंत लगातार राज्य के विभिन्न हिस्सों का दौरा कर चार वर्षों की अपनी सरकार की उपलब्धियों को जमीन तक पहुंचाने की कवायद कर रहे हैं. और इसके साथ ही वह सरकार के पक्ष विपक्ष में जमीन पर उमड़ती जनभावनाओं को भी टटोलने–समझने की कोशिश कर रहे हैं, अपनी रैलियों में सीएम हेमंत यह समझाने का यत्न करते नजर आ रहे हैं कि यदि उनकी पूर्ववर्ती सरकारों ने उनके मुद्दे और उनकी मूलभूत समस्यायों का ख्याल किया होता तो आज राज्य की दुर्दशा यह नहीं होती, और राज्य गठन के 23 साल गुजर जाने के बाद भी यदि राशन कार्ड की चर्चा करनी पड़ रही है, आवास से लेकर पेयजल की समस्यायों का दुखड़ा रोना पड़ रहा है, तो इसकी मुख्य वजह पिछली सरकारों का नाकारापन है. तमाम पूर्ववर्ती सरकारों के द्वारा सिर्फ राज्य के संसाधनों का दोहन किया गया, बड़े बड़े कॉरपोरेट कंपनियों के लिए झारखंड के बेशकीमती जल जंगल और जमीन की लूट का रास्ता साफ किया गया. और यदि हमारी सरकार कॉरपोरेट परस्त इन नीतियों का त्याग कर आपके मुद्दों की लड़ाई लड़ रही है तो भाजपा और केन्द्र सरकार के पेट में दर्द हो रहा है. सरकार को बेपटरी करने के लिए ईडी और सीबीआई जैसी केन्द्रीय एंजेसियों का सियासी दुरुपयोग किया जा रहा है. यदि हम भी आदिवासी मूलवासी हितों की बात नहीं करते, जल जंगल और जमीन का मुद्दा नहीं उठाते तो, राज्य के संसाधनों झारखंडियों की दावेदारी नहीं करते तो यह सरकार भी अमन चैन की नींद ले रही होती, हमारी पीछे षडयंत्रों की पोटली नहीं खोली जाती.
2024 में 2023 का राग मतदाताओं पर कितना असरदार
लेकिन यदि आप सीएम हेमंत के पिछले साल भर के तमाम भाषणों को समझने -परखने की कोशिश करें तो इसमें कुछ भी नयापन नहीं है, जिन मुद्दों और नारों के साथ 2023 की शुरुआत हुई थी, 2024 के मुहाने पर खड़ा होकर भी उन्ही मुद्दों और नारों को उछाला जा रहा है. उनके तमाम भाषणों में कुछ भी नयापन नहीं है, वर्ष 2024 की चुनौतियों को लेकर कोई नया संकल्प नजर नहीं आता. तो क्या यह माना जाए कि बदलते वक्त के साथ नये मुद्दे और नारों की खोज में झामुमो पिछड़ती जा रही है. क्या एक ही स्क्रिप्ट को वह अलग-अलग मंचों से पुनर्पाठ सीएम हेमंत की कमजोर सियासी जमीन का नतीजा है. और खास कर तब जबकि 2024 का महासंग्राम ठीक सामने खड़ा है, जहां उनका मुकाबला उन शक्तियों से होना है, जहां हर दिन एक नये नारे की खोज की जाती है, और बेहद आसानी के साथ पुराने मुद्दे और नारों को डस्टबिन में डाल देने की परंपरा रही है. और मजे की बात यह है कि सियासत के इसी रंग को मास्टर स्ट्रोक का तमगा भी दिया जाता है.
नये मुद्दे और नारों की तलाश में पीछे छुट्टती दिख रही है झामुमो?
इस हालत में यह सवाल खड़ा होता है कि आखिर झामुमो उसकी तोड़ में कहां खड़ा है. क्या इसी पुराने मुद्दे और नारों के साथ ही हेमंत सोरेन 2024 के महासंग्राम में प्रवेश करेंगे. यह ठीक है कि 1932 का खतियान, खतियान आधारित नियोजन नीति, पिछडों का आरक्षण विस्तार, सरना धरम कोड, निजी क्षेत्र की कंपनियों में स्थानीय युवाओं के लिए 75 फीसदी का आरक्षण झामुमो का सबसे मजबूत और टिकाऊ मुद्दे हैं, लेकिन क्या सिर्फ इन्ही मुद्दों के बदौलत 2024 का महासंग्राम लड़ा जायेगा?
सियासी गफलत भी साबित हो सकता है पुराने नारों पर अत्याधिक निर्भरता
या फिर उस महासंग्राम की जमीनी हकीकत को देखते हुए अपने तरकश के लिए नये तीर की तलाश की जायेगी. क्योंकि इन सारे नारों को जनता पहले भी सुन चुकी है, और इसको लेकर उसकी अपनी समझ बन चुकी होगी, वह झामुमो के पक्ष में भी हो सकता है, और विपक्ष में भी, लेकिन इन्ही मुद्दों और नारों को अपनी पूरी चुनावी सफलता का केन्द्र बना देना एक बड़ा सियासी गफलत भी तो साबित हो सकता है.
जानकारों का दावा है कि हेमंत सोरेन इतने भोले भी नहीं है, उनकी राजनीति अब पूरी तरह परिपक्व हो चुकी है, वक्त के बदलाव को वे भी समझ रहे हैं. और 2024 के महासंग्राम में जिन नारों और मुद्दों का उनका सामना होना है, इसका आभास उन्हे भी है, लेकिन यह एक रणनीति है, एक सियासी चाल है, झामुमो वक्त के पहले अपने सियासी तीर को बाहर निकाल कर उसकी हवा निकालने का अवसर देना नहीं चाहता, और यही कारण है कि तमाम तीरों और हथियारों को अभी सफेद चादर से ढक दिया गया है, जैसे ही फरवरी का महीना पार होता है, ठंड का कहर विराम लेता है, झामुमो का नये नारे और मुद्दों के साथ वापसी होगी.
सोशल मीडिया पर बाबूलाल की गर्जना
हालांकि देखना होगा कि यह ख्याल महज एक फ़साना है या हकीकत, फिलवक्त तो हेमंत सोरेन अपनी सरकार की चार साल की उपलब्धियों को लेकर सियासी रथ पर सवार होकर निकल पड़े हैं. और दूसरी ओर भाजपा की नजर भी सीएम हेमंत के हर तीर कमान पर लगी है, हालांकि बाबूलाल अभी किसी जमीनी संघर्ष के बजाय सोशल मीडिया पर गर्जना कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने की कोशिश कर रहे हैं.
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