Ranchi-2024 के महाजंग के पहले सियासी दलों की ओर से अपने-अपने महाजाल फेंकने की शुरुआत हो चुकी है. कौन सी चाल से वोट की खेती होगी और किस चाल से विरोधी खेमे के वोटों में सेंधमारी, इसका पूरा खांचा तैयार किया जा रहा है, जनजातीय सुरक्षा मंच की ओर से डिलिस्टिंग के बवाल को भी इसी चश्मे से देखने की कोशिश की जा रही है, दावा किया जा रहा है कि जनजातीय सुरक्षा मंच वृहतर आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व नहीं कर संघ परिवार की एक अनुषांगिक इकाई के रुप काम कर रहा है. वह उन्ही मुद्दे को उठा रहा है जिससे कि आदिवासी समाज विभाजित हो जाय, और इसका सीधा लाभ भाजपा को मिले.
सीएनटी एक्ट में संशोधन और आदिवासी समाज की हकमारी पर चुप्पी क्यों?
सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि जब रघुवर सरकार के द्वारा सीएनटी एक्ट में संशोधन कर लैंड बैंक बनाया जा रहा था, अपने हक-हकूक की मांग करते आदिवासियों के सिने पर गोली चलाई जा रही थी, उनकी जल, जंगल जमीन को छीना जा रहा था, तब जनजातीय सुरक्षा मंच कहां खड़ा था? तब तो उसने अपना विरोध दर्ज नहीं किया, और आज भी केन्द्र सरकार के द्वारा ग्राम सभा की सहमति-असहमति को दरकिनार कर आदिवासियों की जमीन छीनने का रास्ता साफ किया जा रहा है, लेकिन आदिवासी समाज के इस ज्वलंत मुद्दे पर जनजाति सुरक्षा मंच कहां खड़ा है?
क्या है डिलिस्टिंग
यहां ध्यान रहे कि पिछले तीन वर्षों से हर वर्ष क्रिसमस के ठीक पहले 24 दिसम्बर को जनजातीय सुरक्षा मंच के बनैर तले डिलिस्टिंग के सवाल पर रैली का आयोजन किया जाता है. जहां से क्रिश्चियनिटी में कन्वर्ट हो चुके आदिवासी समाज के हिस्से को वृहत्तर आदिवासी समाज से बाहर करने की मांग की जाती है. इसके माध्यम से सरना धर्मलंबियों को यह समझाने की कोशिश की जाती है कि उनके आरक्षण का पूरा केक धर्मांतरित आदिवासियों के द्वारा खाया जा रहा है, यदि धर्मांतरित आदिवासियों को आरक्षण की परिधि से बाहर कर दिया जाय तो इसका सीधा लाभ गैर धर्मांतरित आदिवासी समाज को मिलेगा, जिससे कि उनकी जिंदगी में खुशहाली और समृद्धि की बहार आयेगी.
सरना धर्म कोड लिस्टिंग की दिशा में पहला कदम
लेकिन सवाल अब इसी दलील पर खड़ा किया जा रहा है, सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि अभी तो लिस्टिंग की प्रक्रिया ही पूर्ण नहीं हुई है, तो डिलिस्टिंग का सवाल कहां से खड़ा हो गया. सरना धर्म कोड तो इसी लिस्टिंग की दिशा में एक कदम है, यदि आदिवासी समाज को सरना धर्म का ऑपशन प्रदान कर दिया जाता है, तो उसके बाद इस सवाल की कुछ प्रासंगितका भी होती. लेकिन अभी तो आदिवासी समाज अपने लिए एक अदद धार्मिक कोड की ही लड़ाई लड़ रहा है, यह सवाल तो उसके बाद का है. और इसके लिए हेमंत सरकार ने विधान सभा से एक प्रस्ताव पारित कर राजभवन को भेजा है, लेकिन जनजातीय सुरक्षा मंच तो कभी भी सरना धर्म कोड के सवाल पर कोई रैली करता नजर नहीं आता, व केन्द्र सरकार के समक्ष कोई प्रर्दशन नहीं करता, इस हालत में सवाल यह भी उठना लाजमी है कि सरना धर्म के सवाल पर जनजातीय सुरक्षा मंच का स्टैंड क्या है?
हर राज्य में एक सामाजिक समूह को बतौर खलनायक पेश करती है भाजपा
डिलिस्टिंग पर बवाल और सरना धर्म कोड पर चुप्पी जनजाति सुरक्षा मंच की नीति और नियत दोनों पर ही गंभीर सवाल खड़ा करता है. लिस्टिंग-डिलिस्टिंग के इस विवाद पर अपनी राय रखते हुए स्वतंत्र पत्रकार और आदिवासी मुद्दे के जानकार सुनील मिंज कहते हैं कि दरअसल लिस्टिंग और डिलिस्टिंग का विवाद में कुछ भी नया नहीं है. यह तो भाजपा की ‘फूट डोलो राज करो’ के चुनावी चाल का एक और सुनियोजित विस्तार भर है, भाजपा अपने सियासी विस्तार के लिए हर राज्य में एक सामाजिक समूह को खलनायक के बतौर पेश करता है, औरउस सामाजिक समूह का भय दिखलाकर वोट की फसल काटने की साजिश करता है. बिहार में वह यादव और मुस्लिमों के खिलाफ आग उगलती है, दूसरे सामाजिक समूहों में यह भ्रम फैलाती है कि उसके हिस्से की सारी मलाई यादव और मुस्लिम खा रहे हैं, यही चाल वह यूपी में चलती है, वहां भी यादव और मुस्लिमों को अपना टारेगट करती है, अखिलेश यादव की पूर्ववर्ती सरकार पर सारे मलाईदार पोस्ट एक विशेष जाति से भरने का आरोप लगाती है, लेकिन जब उससे इससे संबंधित डाटा की मांग की जाती है, तो चुप्पी साध ली जाती है, बिहार यूपी में यादव मुस्लिम को खलनायक के बतौर पेश करने वाली भाजपा को हरियाणा में जाट खलनायक नजर आने लगता है, वहां वह गैर जाटों को जाटों के खिलाफ खड़ा कर सत्ता की मलाई खाती है, कुल मिलाकर वह हर राज्य में उस सामाजिक समूह को निशाने पर लेती है, जिनके पास सामाजिक न्याय का लड़ाई लड़ने की कूबत होती है. झारखंड में यही कूबत धर्मांतरित आदिवासी समाज के पास है, आज झारखंड में आदिवासी समाज के बीच शिक्षा की रोशनी दिखलायी पड़ रही है, उसका सबसे कारण ईशाई मिशनरियों के द्वारा संचालित स्कूल और कॉलेज हैं, जब शिक्षा की रोशनी आती है, तब समाज अपने मूल मुद्दों की लौटता है, और यही से संघ परिवार और भाजपा में बेचैनी पसरने लगती है. उसे लगता है कि अब आदिवासी समाज उसके एजेंडे से बाहर निकल जल जंगल और जमीन की बात करेगा, अपने हक और हकूक की लड़ाई लड़ेगा, और इसके बाद शुरु होता है संध परिवार का खेल, चुंकि झारखंड में आदिवासी समाज का सबसे शिक्षित तबका धर्मांतरित ईसाई है, तो एक साजिश के तहत बिल्कूल यूपी बिहार और हरियाणा के तर्ज पर इसके खिलाफ जहर बोने की शुरुआत होती है.
आदिवासी एक रेस है, धर्म नहीं, धर्म सरना है
सुनील बताते हैं कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है, कोई भी व्यक्ति हिन्दू, मुसलमान और ईसाई धर्म को अपनाने के लिए संवैधानिक रुप से स्वतंत्र है, लेकिन एक गैर आदिवासी के लिए आदिवासी बनने का कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है. आप धर्म बदल सकते है, यह आपकी मर्जी है, लेकिन आप आदिवासी होने का दावा भी नहीं कर सकते, क्योंकि आदिवासी एक धर्म नहीं होकर रेस है, व्यक्ति का रेस नहीं बदल सकता, क्या जिसने क्रिश्चियनिटी को अपना लिया उसका रेस बदल गया. इसके साथ ही सवाल यह भी खड़ा होता कि क्रिश्चियनिटी अपनाने वालों को डिलिस्टिंग करने की मांग तो जरुर हो रही है, लेकिन जनजाति सुरक्षा मंच हिन्दू धर्म अपना चुके आदिवासियों पर चुप्पी क्यों साध लेता है, उसकी डिलिस्टिंग की मांग क्यों नहीं करता? ईशाई के साथ ही हिन्दू और इस्लाम अपना चुके आदिवासियों के खिलाफ भी तो डिलिस्टिंग की मांग होनी चाहिए.
सबसे पहले पूर्वोत्तर में डिलिस्टिंग की प्रक्रिया शुरु करे भाजपा
फिर संघ परिवार और उसकी आनुषांगिक इकाइयां झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में ही यह बवाल क्यों काट कर रही है, यह सवाल तो मिजोरम, नागालैंड, मणिपुर, त्रिपुरा और पूर्वोतर के दूसरे राज्यों में उठाया जाना चाहिए, इसकी शुरुआत तो पूर्वोत्तर के राज्यों होनी चाहिए. क्योंकि पूर्वोतर के राज्यों में उसकी सरकार है. लेकिन भाजपा को पत्ता है कि डिलिस्टिंग के मुद्दे से पूर्वोत्तर में उसके हाथ जल जायेंगे. क्योंकि वहां का आदिवासी समाज लगभग पूर्ण रुप से धर्मांतरित हो चुका है. उस हालत में भाजपा का यह कार्ड वहां चलने वाला नहीं है. भाजपा और संघ परिवार को इस बात का जवाब देना चाहिए कि वह पूर्वोत्तर के राज्यों में डिलिस्टिंग की प्रक्रिया कब शुरु करने जा रही है.
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