Ranchi-पांच राज्यों का चुनाव परिणाम पर पूरे देश की निगाह जमी हुई है, एक्जिट पॉल के आंकड़ों से लोगों की उलझनें सुलझने के बजाय और भी उलझती नजर आ रही है, एक ही राज्य के बारे में अलग-अलग एक्जिट पॉल में हार जीत के परस्पर विरोधी दावे किये जा रहे हैं, और जिन राज्यों में किसी विशेष दल के बारे में जीत के दावे भी किये जा रहे हैं, तो गैप मार्जिन इतना रखा जा रहा है कि उन्ही आंकड़ों के हिसाब से उसी राज्य में एक दूसरी तस्वीर भी बनती नजर आ रही है. कुल मिलाकर एक्जिट पॉल के आंकड़ों पर बहस तो तेज है, लेकिन उसकी विश्वसनीयता पर ढेरों सवाल खड़े हो रहे हैं.
धार्मिक धुर्वीकरण से अलग हट रोजी रोटी और मकान अब बनने लगा सियासी मुद्दा
लेकिन इन पांच राज्यों के चुनाव परिणाम के साथ ही पूरे देश में लोकसभा चुनाव की चर्चा भी तेज हो चुकी है, इस बीच राजस्थान, मध्यप्रदेश और तेलंगाना से जो खबरें आ रही हैं, उसके हिसाब से अब तक जिस धार्मिक धुर्वीकरण के हथियार से भाजपा राज्य दर राज्य चुनाव फतह करती आ रही थी, अब वह धार्मिक धुर्वीकरण का हथियार अपना दम तोड़ता नजर आ रहा है. और लोग जिंदगी के मूल सवाल रोजी रोटी और मकान की ओर मुड़ते नजर आ रहे हैं.
गिरिडीह संसदीय सीट पर किसका चलेगा जादू
यदि हम झारखंड और खास कर गिरीडीह संसदीय सीट के संदर्भ में सियासी चुनौतियों को समझने की कोशिश करें तो यहां भी भाजपा के धार्मिक धुर्वीकरण की राह में जयराम इंट्री पेंच फंसाती नजर आने लगी है. यहां एक सवाल खड़ा किया जा सकता है कि धार्मिक धुर्वीकरण की राह में तो यहां पहले से ही झामुमो खड़ा है, जो अब तक जल जंगल और जमीन के सवाल पर आदिवासी मूलवासी समाज का वोट बटोरता रहा है, तो फिर जयराम की इंट्री कितनी असरदार और कारगार होने वाली है.
हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झामुमो का चेहरा बदलने की कवायद
तो यहां याद रहे कि दिशोम गुरु शिबू सोरेन के नेतृत्व में जो झामुमो कभी संथाल और कोल्हान की पार्टी मानी जाती थी, और जो अपने 15-20 विधायकों के साथ विधान सभा में उपस्थिति दर्ज करवाता रहता था, हेमंत सोरेन के हाथ में कमान आते ही उसका चेहरा बदलने की कवायद की शुरुआत हो गयी. और यही कारण है कि आज झामुमो अपने कोर इलाके और मतदाताओं के साथ ही शहरी मतदाताओं के बीच भी अपनी पकड़ बनाता दिख रहा है. पलामू से लेकर हजारीबाग-कोडरमा में उसके संगठन विस्तार की इस पहल को इसी नजरिये से देखा जा सकता है. लेकिन बड़ा सवाल यह नहीं है कि झामुमो अपना विस्तार कर रहा है, बड़ा सवाल यह है कि झामुमो अपना यह सियासी विस्तार किस कीमत पर कर रहा है.
संगठन विस्तार की होड़ में कोर वोटर और मुद्दों से दूर होता झामुमो
और इसकी बानगी देखनी हो तो सीएम हेमंत का कोल्हान और संताल में दिये गये भाषण को सुने और फिर राजधानी रांची और दूसरे इलाकों में दिये गये भाषण से उसकी तुलना करें, तो दोनों के बीच का अंतर और प्राथमिकताएं आपको साफ नजर आने लगेगी. अलग-अलग क्षेत्रों के लिए उनकी भाषा और प्राथमिकताएं अलग है. और इससे पैन झारखंड विस्तार की चाहत नजर आती है.
जयराम की सियासी इंट्री
और यहीं से जयराम की सियासी इंट्री की सार्थकता नजर आने लगती है. दरअसल अब तक जिस बाहरी भीतरी विवाद पर झामुमो आदिवासी मूलवासियों का गोलबंदी करता रहा, झामुमो की रणनीति अब उस विवाद से दूर होकर पूरे झारखंड में अपने सियासी विस्तार की है. हेमंत सोरेन के कमान में झामुमो की रणनीति ग्रामीण मतदाताओं के साथ ही शहरी इलाके में भी अपना दबदबा कायम करने की है. और इसके लिए बेहद जरुरी है कि उसका वजूद हर सामाजिक समूहों के बीच में हो, और इसी रणनीति के हिसाब से चेहरों को उभारा जा रहा है, लोबिन हेम्ब्रम यदि आज झामुमो की राजनीति में हासिये पर नजर आ रहे हैं तो उसका बड़ा कारण झामुमो का बदलता चेहरा है.
बाहरी भीतरी का संघर्ष जयराम का कोर इशू और ताकत
लेकिन इसके विपरीत जयराम के लिए बाहरी भीतरी का संघर्ष ही सबसे मजबूत सियासी ताकत है, और वह इसी आधार पर सामाजिक धुर्वीकरण की विसात बिछा रहे हैं. जयराम की कोशिश इस पूरे सियासी विमर्श को आदिवासी मूलवासी समाज की अस्मिता, पहचान और भागीदारी के साथ जोड़ कर एक व्यापक गोलबंदी तैयार करने की है. और जयराम की इसी सियासी जाल से अपने को दूर रखकर भाजपा के सामने अपना जमीन बचाने की चुनौती है. जयराम के निशाने पर सिर्फ रविन्द्र पांडेय ही नहीं हैं, वह जहां धनबाद में पीएन सिंह, गोड्डा में निशिकांत दुबे, चतरा में सांसद सुनील सिंह, हजारीबाग में जयंत सिन्हा तो साथ ही वह जमशेदपुर में बन्ना गुप्ता के खिलाफ भी आवाज बुलंद करते नजर आ रहे हैं. और इन तमाम चेहरों को सामने रख कर वह लोगों के बीच झारखंडी अस्मिता और पहचान के सवाल को बड़ा कैनवास पर खड़ा करते दिख रहे हैं.
सियासी दलों के सामने जयराम की आंधी का मुकाबला करने की चुनौती
यहां याद रहे कि चर्चा इस बात की आगामी लोकसभा चुनाव में जयराम गिरिडीह संसदीय सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ सकते हैं, दावा किया जा रहा है कि उनकी कोर कमिटी में इस बात का निर्णय लगभग हो चुका है, सिर्फ इसकी औपचारिक घोषणा बाकी है, अब सवाल यह खड़ा होता है कि गिरिडीह के अखाड़े में जयराम की इस इंट्री का मायने क्या है, क्या जयराम महज किसी का खेल बिगाड़ने का रहे हैं, या इसके विपरीत तमाम स्थापित सियासी दलों के सामने गिरिडीह में जयराम की आंधी का मुकाबला करने की चुनौती है. जब हम जयराम की आंधी की बात कर रहे है तो भाषा आन्दोलन के समय उनकी उस मानव श्रंखला को याद रखना होगा, जिसमें हजारों हजार की भारी भीड़ जयराम के एक आवाज पर आधी रात तक कतारबद्ध खड़ी थी. आज भले ही स्थापित मीडिया चैनलों में जयराम को वह स्थान नहीं दिया जा रहा हो, लेकिन दबी जुबान यह चर्चा हर जगह है कि महज महज दो साल के अंदर अंदर जयराम ने झारखंडी की सियासत में एक बड़ा मुकाम खड़ा कर लिया है. आज जयराम आदिवासी मूलवासी समाज के सबसे प्रखर वक्ता के रुप में सामने आये हैं. और जयराम की यही छवि से पार पाना भाजपा-झामुमो के लिए बड़ी चुनौती है.
जयराम की आंधी का मुकाबला करने में मथुरा महतो कितना सक्षम?
जहां जयराम के सामने भाजपा का धार्मिक धुर्वीकरण हांफता नजर आता हैं, वहीं झामुमो जिस आदिवासी मूलवासी कार्ड के सहारे अब तक सत्ता तक पहुंचती रही है, वह भी जयराम के सामने एकबारगी बिखरता नजर आता है. झामुमो अपने तमाम सियासी वार के बावजूद जयराम के विरुद्ध कोई बड़ा हथियार नहीं खोज पा रही है, दरअसल झामुमो के लिए जयराम के सामने गिरिडीह के अखाड़े में अपने आदिवासी मतदाताओं के साथ ही कुर्मी महतो मतदाताओं को बांधे रखने की चुनौती है. हालांकि चर्चा इस बात की है कि इस बार झामुमो गिरिडीह संसदीय सीट से मथुरा महतो को उतारने की तैयारी कर रही है, निश्चित रुप से मथुरा महतो की पहचान एक जमीनी नेता की है, और वह कुर्मी जाति के साथ ही आदिवासी मूलवासी समाज का भी एक बड़ा चेहरा हैं, लेकिन मुश्किल यह है इस बार उनका मुकाबला भाजपा के बजाय जयराम से ज्यादा होता दिख रहा है. उनकी चुनौती तो जयराम की आंधी से मुकाबले का है. जिन तीरों और वाणों के सहारे झामुमो अब तक भाजपा के खिलाफ आदिवासी मूलवासी समाज का धुर्वीकरण करती रही थी, उन तीरों और वाणों का जयराम के सामने कोई प्रासंगिकता नजर नहीं आती. इस हालत में इस बार गिरिडीह के दंगल में झामुमो के सामने अपनी साख बचाने की चुनौती होगी. जबकि भाजपा के लिए अभी भी वक्त है कि वह नये तीर और चेहरों की तलाश तेज कर दें, क्योंकि जिस चेहरों के सहारे वह अब तक सियासी चाल चलती रही है, जयराम की इंट्री के बाद सवाल उन्ही चेहरों पर उठने लगा है.
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