Ranchi-जिस आरक्षण विस्तार के फैसले को सीएम हेमंत का पिछड़ों के बीच अपनी सियासी साख को मजबूत करने का अब तक का सबसे बड़ा मास्टर स्ट्रोक बता बताया जा रहा था. और दावा किया जा रहा था कि 2024 के महासंग्राम के पहले झामुमो ने एक ऐसा तीर चला है, जिसकी कोई काट फिलहाल भाजपा के पास नहीं है. दरअसल झारखंड गठन के बाद राज्य के पहले सीएम बाबूलाल ने करीबन 55 फीसदी आबादी वाले इन पिछड़ी जातियों के आरक्षण पर कैंची चलाते हुए 27 फीसदी से 14 फीसदी करने का निर्णय लिया था. बाबूलाल के इस फैसले के खिलाफ लम्बे समय से पिछड़ी जातियों की ओर से नाराजगी जाहीर की जाती रही है. पिछड़ों की इस नाराजगी को दूर करने के लिए बीच-बीच में भाजपा के द्वारा इस बात का विश्वास दिलाया जाता रहा कि सरकार बनते ही पिछड़ी जातियों का आरक्षण की सीमा को बढ़ाया जायेगा, बावजूद इसके रघुवर दास के नेतृत्व में डबल इंजन की सरकार चलाने के बाद भी भाजपा ने इस वादे को पूरा नहीं किया, और ना ही वह इस दिशा में कोई ठोस प्रयास करती नजर आयी.
हेमंत सरकार ने इसकी पहल कर चुनावी मुद्दा तो जरुर बना दिया
लेकिन इसके विपरीत हेमंत सरकार ने अपनी चुनावी घोषणा पत्र के अनुरुप इस वादे को पूरा करने की दिशा में एक बड़ा निर्णय लिया, और उसने अनुसूचित जाति को 12 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति को 28 प्रतिशत, अत्यंत पिछड़ा वर्ग को 15 प्रतिशत और पिछड़े वर्ग को 12 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने के फैसले के साथ ही आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को भी 10 प्रतिशत का आरक्षण का प्रस्ताव पास कर दिया. इस प्रकार राज्य में आरक्षण का कुल दायरा 77 फीसदी हो गया.
क्या है राज्यपाल का तर्क
इसके साथ ही हेमंत सरकार ने इस आरक्षण विस्तार को संविधान की नौंवी अनुसूची में शामिल करने का आग्रह कर एक बार फिर से गेंद को भाजपा के पाले में डाल दिया. लेकिन अब जो खबर है कि राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन ने हेमंत सरकार के इस फैसले पर अपनी मुहर लगाने से इंकार कर दिया है. इस मामले में अपनी सफाई देते हुए उन्होंने कहा कि राज्यपाल की पहली प्राथमिकता संविधान की रक्षा करना है. कोई भी ऐसा बिल जो संविधान और देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले और भावना के खिलाफ जाता हुआ प्रतीत होता है, तो राज्यपाल के लिए बेहद जरुरी है कि वह उस पर अपनी सहमति प्रदान करने से पहले वह संविधान विशेषज्ञों और अटॉर्नी जनरल की राय ले. हालांकि अब तक यह जानकारी नहीं है कि इस मामले में राज्यपाल को अटॉर्नी जनरल की क्या सलाह मिली है, लेकिन राज्यपाल ने हेमंत सोरेन के इस प्रस्ताव पर सहमति प्रदान करने से इंकार जरुर कर दिया है.
जब बिहार में लागू हो सकता है 75 फीसदी का आरक्षण तो झारखंड में क्या है बाधा
लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यह सामने आता है कि जब पड़ोसी राज्य बिहार में नीतीश कुमार की सरकार सफलता पूर्वक 75 फीसदी का आरक्षण लागू कर सकती है, और वहां राज्यपाल बगैर किसी देरी के इस पर अपना मुहर लगा सकते हैं तो फिर झारखंड में सीपी राधाकृष्णन के सामने कौन सी चुनौती आ खड़ी हो गयी. तो इसका जवाब यह है कि नीतीश कुमार ने आरक्षण विस्तार के पहले जातीय जनगणना का आंकड़ा एकत्रित कर अपने फैसले के पक्ष में कानूनी और संविधानिक आधार तैयार किया था, वह जातीय जनगणना से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर अपने फैसले को एक औचित्य प्रदान कर रहे थें, ताकि जब कभी इस फैसले को कोर्ट में चुनौती दी जाये, तो सफलता पूर्वक उस कानूनी लड़ाई का सामने किया जा सके, इसके विपरीत झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार के पास अपने फैसले के पक्ष में कोई वैज्ञानिक आंकड़ा नहीं था. अब यहां आकर यह सवाल खड़ा हो जाता है कि आखिर जिस जातीय जनगणना को सीएम नीतीश ने मजबूत आधार बना लिया, झारखंड में हेमंत सरकार वही फैसला क्यों नहीं ले पा रही है, कहा जा सकता है कि जाति आधारित गणना के लिए भी तो हेमंत सरकार ने केन्द्र को प्रस्ताव भेजा है, लेकिन याद रहे कि सीएम नीतीश ने कोई प्रस्ताव नहीं भेजा था, बल्कि अपने बूते सर्वेक्षण करवाने का सियासी फैसला लिया था, और पटना हाईकोर्ट से लेकर देश की सर्वोच्च अदालत तक लड़ाई लड़ी, तो फिर हेमंत सोरेन केन्द्र को प्रस्ताव भेजने की बात कर कहीं जाति आधारित गणना से भागने का जुगाड़ तो नहीं कर रहे हैं.
जानकारों का तर्क
दरअसल कुछ जानकारों का दावा इसी ओर इशारा कर रहा है. उनका दावा है कि यदि झारखंड में जाति आधारित गणना करवा ली जाती है, तो अब तक के बनाये गये सामाजिक समीकरण को ध्वस्त होने का खतरा मंडरा सकता है. पिछड़ों की आबादी उस अनुमानित संख्या को भी पार कर सकती है, अब तक जिसके दावे किये जाते रहे हैं, और शायद हेमंत सोरेन की सरकार फिलहाल उस सामाजिक समीकरण में कोई बड़ा उलटफेर नहीं चाहती. और यही कारण है कि वह इसका दावा तो जरुर करती है, लेकिन उस दिशा में अंतिम पहल नहीं करना चाहती. लेकिन मूल सवाल यही है कि आखिर पिछड़ों को उनका हक कब मिलेगा. डबल इंजन की भाजपा सरकार से निराशा हाथ लगी तो आदिवासी मूलवासी की बात करने वाली झामुमो सरकार भी उसे अंतिम अंजाम तक ले जाने में विफल रही.
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