Ranchi- आखिरकार 17 दिनों की लम्बी जद्दोजहद और संघर्ष के बाद उत्तराखंड के उत्तरकाशी में सुरंग के अंदर फंसे 41 मजदूरों को रैट ड्रिलिंग के सहारे बाहर निकाल हमारे रणबाकुंरों ने यह साबित कर दिया कि बड़ी-बड़ी मशीनें अपनी जगह तो ठीक है, लेकिन अपनी देशी तकनीक की कोई काट नहीं है. और इसके साथ ही दीपावली की अमावस रात से शुरु हुआ यह संघर्ष अपने अंजाम तक पहुंच गया. लेकिन इन तमाम संघर्षों और हर दिन के जद्दोजहद से दूर पूर्वी सिंहभूम के एक सुदूरवर्ती गांव में एक वृद्ध पिता हर पल अपने बेटे के लिए एक खुश खबरी का इंतजार कर रहा था, अपनी उजड़ी झोपड़ी के बाहर टूटी खाट पर बैठा भक्तू मुर्मू का 80 वर्षीय पिता हर उस पदचाप पर नजर बनाये हुए था, जिसकी आहट उसकी ओर आती प्रतीत होती थी, उसे तो हर पल उस गहरी सुंरग से अपने बेटे को बाहर निकलने का इंतजार था.
17 दिनों से टूटी खाट पर बैठ बेटे का इंतजार करते करते अवसाद में तोड़ा दम
इन 17 दिनों में, रात हो या दिन, ठंड हो गहरी धूप, वह अपने बेटे की एक आहट का इंतजार करता रहा, लेकिन अब इसे क्या कहा जाय, जिस 17वें दिन जब इन मजदूरों को बाहर निकाले जाने की जश्न की तैयारी थी. तमाम मीडिया चैनलों के द्वारा पल पल की रिपोर्टिंग की जा रही थी, सुरंग के बाहर से परिजनों को जिंदगी की आस बंधायी जा रही थी कि अब महज कुछ पलों का ही इंतजार है.
17 दिनों से हर दिन को आखरी दिन बताने की मची थी होड़
लेकिन दुर्भाग्यूपूर्ण स्थिति यह थी इन तमाम मीडिया चैनलों के द्वारा यही दावा तो हर दिन किया जा रहा था, हर दिन को ही तो अंतिम रात बतायी जा रही थी. और हर सुबह एक बार फिर से नये जद्दोजहद की खबर चलायी जा रही थी, इस हालात में उस वृद्ध पिता को भला यह विश्वास कैसे होता कि वाकई आज की रात ही अंतिम रात है, आज की रात ही जश्न की रात है, आज की रात ही दीपावली और होली की रात है, हालांकि यह खबरें हर चैनल पर चल रही थी, जीत का जश्न मनाया जा रहा था, लेकिन 17 दिनों से यही दावा सुनने सुनते थक चुके बासेत उर्फ बारसा मुर्मू को इस पर जरा भी विश्वास नहीं था, और इस अविश्वास की खाई उस गहरी सुरंग से भी ज्यादा थी, जिसकी अंदर उसका बेटा जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष कर रहा था. ठीक 17वें दिन जब टीवी मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया में कामयाबी की सुर्खियां थी, बारसा मुर्मू का हिम्मत जवाब दे गया और वह सूखी आंखों और निराश चेहरे के साथ दुनिया को अलविदा कह गया.
जिंदगी तो मिल गयी, लेकिन भक्तू मुर्मू को टूटी खाट पर बैठा अपना पिता नजर नहीं आयेगा
अब कल्पना की जा सकती है कि 17 दिनों के उस संघर्ष को जीत कर जब भक्तू मुर्मू अपना गांव पहुंचेगा, लोगों में उल्लास होगा, जयकारे होंगे, लेकिन एक उदासी की गहरी छाया भी होगी, कौन उसके सामने यह बताने की हिम्मत जुटा पायेगा कि जिस वृद्ध पिता की भूख मिटाने के लिए वह उस गहरी सुंरग में गया था, अपना दम तोड़ चुका है. निश्चित रुप से यह सदमा भक्तू मुर्मू के लिए उस गहरी सुंरग में बिताये गये काली रात से भी ज्यादा खौफनाक होगा.
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