Ranchi-ईडी और भाजपा की कथित युगलबंदी पर एक बड़ा आरोप लगाते हुए झामुमो ने इस बात का दावा किया है कि पूर्व सीएम हेमंत को उनकी गिरफ्तारी के बाद एक तहखाने में कैद कर रखा जा रहा है, तहखाने के इस कमरे में ना तो सूरज की रोशनी आती है, और ना ही कमरे में कोई वेंटीलेटर है, इस प्रकार एक राज्य के पूर्व सीएम को मानसिक और शारीरिक यातना देकर उस गुनाह को कबूल करने को मजबूर किया जा रहा है, जिसका उनके साथ दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है, और नहीं तो जिस भुंईहरी जमीन के टूकड़े पर कब्जा होना का दावा किया जा रहा है, इस आरोप को पुष्ट करने के लिए किसी दस्तावेजी सबूत को भी पेश किया जाना चाहिए. जहां तक रही उस जमीन के टूक़ड़े पर बैंकेट हॉल बनाने जाने के दावे, तो इसे भी एक मनगढ़ंत कहानी बताते हुए खारिज किया जा रहा है. हालांकि दूसरी ओर ईडी की ओर से इस बात के दावे भी किये जा रहे है कि इस जमीन पर पूर्व सीएम का ही कब्जा था, और इस एक आलिशान बैंकेट हॉल बनाये जाने की तैयारी थी, जिसका नक्शा भी बनाया गया था, और यही नक्शा आर्किटेक्चर विनोद सिंह के पास से मिला है.
किस चेहरे को सामने रख महागठबंधन ठोंकेगा सियासी ताल
निश्चित रुप से इस परस्पर विरोधी दावे में सत्य क्या है और असत्य क्या, इसका फैसला कोर्ट में होना है. कोर्ट ही यह तय करेगा कि ईडी की ओर से जिन साक्ष्यों को परोस कर हेमंत को घेरने की कोशिश की जा रही है, उसमें कितना दम है, और यदि दम है भी तो क्या ये साक्ष्य गिरफ्तारी के लिए पर्याप्त है? या फिर यह महज एक दिवानी मामला है, जिसमें गिरफ्तारी का कोई आधार ही नहीं बनता. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यदि पूर्व सीएम हेमंत पर इसी तरह कानूनी शिकंजा कसा जाता रहा और तहखाने की कैद से उनकी मुक्ति नहीं हुई. जिसकी आशंका खुद झामुमो की ओर से भी किया जा रहा है और पूरे दम खम के साथ इस बात का दांवा ठोका जा रहा है कि पूर्व सीएम हेमंत की गिरफ्तारी का भ्रष्टाचार से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है, यह तो महज सियासी बदले की कार्रवाई है, ताकि 2024 को लोकसभा चुनाव और उसके बाद के विधान सभा चुनाव के सियासी जंग से हेमंत को बाहर रखा जाय. यदि झामुमो के इस आरोप में दम है, और यह वास्तव में महज एक सियासी बदले की कार्रवाई है, तो सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब 2024 के महासंग्राम की रणभेरी बजने ही वाली है, किसी भी क्षण लोकसभा चुनाव की घोषणा हो सकती है. उस हालत में महागठबंधन की ओर से वह चेहरा कौन होगा जो रंगभूमि में खड़ा होकर भाजपा के विरुद्ध ललकार लगायेगा? वह नेतृत्व किसका होगा जो आगे बढ़कर भाजपा की ओर से उछाले जा रहे सभी आरोपों का प्रतिवार करेगा और चार वर्षों की महागठबंधन सरकार की उपलब्धियों और सीएम हेमंत की लोकप्रिय योजनाओं के सहारे भाजपा के खिलाफ जमीन तैयार करेगा.
राहुल की न्याय यात्रा को फ्लॉप कर चुकी कांग्रेस में कितना दम
निश्चित रुप से आज के दिन झामुमो के बाद महागठबंधन में सबसे बड़ा सियासी दल कांग्रेस है, तो क्या झारखंड कांग्रेस में एक भी ऐसा चेहरा है, जो हेमंत की अनुपस्थिति में इस मोर्चे का नेतृत्व कर सकें. क्या आलमगीर आलम से लेकर रामेश्वर उरांव इस स्थिति में हैं कि सीएम चंपाई के साथ खड़ा होकर भाजपा को उसकी ही भाषा में चुनौती दे सकें. क्या इस सियासी संकट का मुकाबले के लिए कांग्रेस की ओर से कोई तैयारी भी की जा रही है. क्या हेमंत की गिरफ्तारी के बाद कांग्रेस की ओर से इस मुद्दे के सवाल पर जमीन पर उतरने की कोशिश की गयी. क्या कांग्रेस ने हेमंत की गिरफ्तारी को एक सियासी मुद्दा बनाने की कोशिश भी की, और बड़ा सवाल तो यही है कि क्या कांग्रेस के पास वह जमीनी पैठ भी है, जो इस मुद्दे को झारखंड की गलियों तक ले जाने की कूबत रखता हो, सवाल तो यह भी है कि जो कांग्रेस राहुल गांधी की भारत जोड़े न्याय यात्रा पर ही झारखंड में पलीता लगा सकता है, वह हेमंत की गिरफ्तारी को एक बड़ा सियासी मुद्दा कैसे बना सकता है?
सियासत की बारीकियां नहीं, जोड़-तोड़ में कांग्रेसियों को हासिल है महारत
यदि आप राहुल गांधी की भारत जोड़े न्याय यात्रा की पूरी प्लानिंग को समझने की कोशिश करें, तो आप इस बात से इंकार नहीं कर सकते, झारखंड में इस यात्रा की कमान सियासत के नौसिखियों हाथों में सौंप दी गयी थी, उनके पास इस यात्रा को लेकर कोई मास्टर प्लान ही नहीं था, वह तो बस किसी प्रकार इस यात्रा को झारखंड से निकाल बाहर करने का जुगत भर लगा रहे थें, ताकि किसी प्रकार उनकी साख बच जाय, उनमें ना तो सियासत की समझ थी और ना ही जमीनी मुद्दों की पहचान. नहीं तो भला कोयला चोरों के साथ राहुल गांधी की तस्वीर क्यों वायरल की जाती. इस हालत में झारखंड कांग्रेस के नेतृत्वकर्ता हेमंत की अनुपस्थिति में लोकसभा चुनाव में नेतृत्व देने की स्थिति में दूर-दूर तक नजर नहीं आते, पूरा झारखंड कांग्रेस एक कॉरपोरेट और फाइव स्टार कल्चर के गिरफ्त में फंसा नजर आता है. इस हालत में सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर इसका विकल्प क्या है.
फिर किसके हाथों में होगा नेतृत्व
क्या यह माना जाय कि भाजपा ने लोकसभा चुनाव के पहले हेमंत की गिरफ्तारी के साथ ही मुकाबले को फतह कर लिया है? दरअसल इस नतीजे तक जाने के पहले आपको झामुमो की रणनीति और उसके इतिहास को समझना होगा, कांग्रेस के विपरीत झामुमो का उदय ही संघर्षों की कोख से हुआ है, गिरफ्तारी और जेल उनके सियासी संघर्ष का अटूट हिस्सा रहा है, उसके पास आज भी कई ऐसे चेहरे हैं, जो भले ही पर्दे के पीछे खड़े नजर आते हैं, लेकिन अपने मुद्दे को जमीन तक कैसे ले जाया जाय, उनके पास इसकी अंतर्दृष्टि है, इन लोगों ने अपना बचपन से लेकर जवानी तक इन संघर्षों में ही गुजारा है, वह मथुरा महतो हो या खुद चंपई सोरेन. लेकिन मुश्किल यह है कि अपने जीवन के अंतिम दौर में क्या ये चेहरे आज की बदलती सियासत में अपना हनक रखते हैं? और यदि रखते भी हैं तो क्या इस हनक के बूते जीत का कारवां खड़ा किया जा सकता है, या आज भी बदलती सियासत में उन्हे एक चमकदार चेहरे की जरुरत होगी.
कल्पना के चेहरे को संगठन का चेहरा बना लड़ी जा सकती है यह लड़ाई
लेकिन यदि हम झामुमो में दूसरे विकल्पों की तलाश करें तो एक चेहरा तो खुद हेमंत सोरेन के छोटे भाई का बसंत का नजर आता है, हालांकि उनके पास सियासत की इन पेचदीगियों को सुलझाने का उतना बड़ा अनुभव नहीं है. दूसरा चेहरा सीएम हेमंत की कल्पना सोरेन का है, यदि सीएम चंपाई के चेहरे को सरकार का चेहरा और कल्पना के चेहरे को संगठन का चेहरा बना कर युद्घ भूमि में उतरा जाता है, जिसके इर्द गिर्द बंसत सोरेन से लेकर सीता सोरेन और मथुरा महतो से लेकर दूसरे महारथियों की टीम खड़ी होगी. लेकिन सबसे बड़ा चेहरा कल्पना सोरेन का ही होगा, तो निश्चित रुप से इस लड़ाई को ना सिर्फ बेहद दिलचस्प बनाया जा सकता है, बल्कि सियासी फतह भी हासिल किया जा सकता है. हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि वर्तमान सियासी हालात में, जिस प्रकार हेमंत की गिरफ्तारी के बाद संताल से लेकर कोल्हान तक आदिवासी -मूलवासी समूहों के बीच एक बेचैनी परसती नजर आ रही है, उस हालत में कल्पना सोरेन महागठबंधन की सबसे बड़ी ताकत हो सकती है, हालांकि यह फैसला महागठबंधन को करना है कि इस युद्ध में उसका सारथी कौन होगा.
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