Patna- 1975 के आपात्तकाल के उस दौर में सलीम-जावेद की पटकथा पर गोपाल दास सिप्पी ने एक कालजयी फिल्म शोले का निर्माण किया था. इस फिल्म का एक प्रमुख किरदार गब्बर था, गब्बर के रोल में अमजद खां ने अपनी एक्टिंग का लोहा मनवाते हुए ऐसा प्राण फूंका कि उस दौर में लोग बच्चों को नींद के आगोश में ले जाने के लिए भी गब्बर नाम लेते थें. “सो जा बेटा नहीं तो गब्बर आ जायेगा” यह उसी फिल्म का एक मशहूर डायलॉग था. बताया जाता है कि तब देश के कई सिनेमा घरों में यह फिल्म ढाई-ढाई साल तक चलती रही, तीनों ही शो में एक ही फिल्म और लोगों के जेहन में एक ही नाम ‘गब्बर’. इसी गब्बर का दो सहयोगी था. सांभा और कालिया, यही दोनों गब्बर के आंख, कान और नाक थें. गब्बर के आंतक क्षेत्र में खौफ कितनी बुलंदियों पर है, इसकी पल पल की खबर गब्बर को सांभा और कालिया से ही मिलती थी. कितनी हत्या हुई और कितनी लूट, इसकी पूरी जन्म कुंडली इन्ही दोनों के पास रहती थी.
बिहार की सियासत का गब्बर कौन?
दरअसल इस कहानी बताने और गब्बर, सांभा और कालिया को सामने लाने की मुख्य़ वजह बिहार की सियासत की उन किरदारों को समझने की है, जिनकी अंगुलियों पर आज बिहार की सियासत नाचती दिख रही है, पिछले 18 वर्षों से सियासत के इस बूढ़े गब्बर की कहानी भी कम रोचक नहीं है, और उसके भी रोचक है सांभा और कालिया के किरदार में संजय झा और अशोक चौधरी की भूमिका. यदि आप पिछले एक दशक में सीएम नीतीश के करीबियों को खंगालने की कोशिश करें तो ये दोनों किरदार उनके आसपास खड़े नजर आते हैं. इस बीच आरसीपी सिंह से लेकर ललन सिंह के पर कतरे गयें, लेकिन सीएम नीतीश पर संजय झा और अशोक चौधरी का जादू चलता रहा. जैसे ही गब्बर का आदेश हुआ ये दोनों ऑपेरशन के लिए निकल पड़ें.
सांभा और कालिया की जोड़ी
यहां यह भी याद रहे कि संजय झा सीएम नीतीश के साथ आने के पहले भाजपा के साथ थें, उनका मीडिया मैनेजमेंट काफी मजबूत माना जाता है, और इसी खूबी के कारण वह सीएम नीतीश का विश्वासपात्र बने, जबकि अपने जमाने के धाकड़ कांग्रेसी महावीर चौधरी के पुत्र अशोक चौधरी ने अपनी राजनीति की शुरुआत कांग्रेस से की थी, वर्ष 2000 में ये पहली बार बरबीधा से विधायक बने और 2013 आते-आते बिहार प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष भी बन गयें. लेकिन वर्ष 2018 में अशोक चौधरी ने कांग्रेस को बॉय-बॉय कर नीतीश कुमार के साथ चले आयें, इनकी एक और पहचान संघ परिवार से इनके खास रिश्ते को लेकर भी है. संघ प्रमुख मोहन भागवत भी इनके दरवाजे पर दस्तक दे चुके हैं. कहने का अभिप्राय यह है कि अपने सियासी जीवन में अशोक चौधरी ने विचाराधार से ज्यादा महत्व अवसर को दिया, जैसे ही उपयोगिता खत्म उंगली झटकने में अशोक चौधरी ने देरी नहीं की.
किसकी सलाह पर नीतीश कुमार ने मारी थी पांचवी पलटी
बताया जाता है कि जब लालू यादव ने नीतीश के द्वारा विधान सभा भंग करने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया तो ये अशोक चौधरी और संजय झा ही थें, जिनके द्वारा सुशासन बाबू को एक बार फिर से भाजपा की गलबहिंया करने का सियासी प्रस्ताव दिया गया था, और इन्ही दोनों ने इस ऑपरेशन को अंजाम दिया था, लेकिन अब खबर यह है कि इस पटकथा को अपने अंतिम अंजाम तक पहुंचाने के पहले ही गब्बर के ये सांभा और कालिया अपनी प्रतिबद्धता बदल चुके हैं. अब उन्हे गब्बर एक बूढ़ा शेर नजर आने लगा है, जो अपना शिकार खुद नहीं कर सकता, वह तो अब सांभा और कालिया के रहमोकरम पर जिंदा रहने को अभिशप्त हो चुका है. हालांकि सीएम नीतीश की इस पांचवी पलटी के साथ ही संजय झा राज्य सभा की ओर निकल चुके हैं. यानि अगामी छह वर्षों तक उनकी राजनीति सुरक्षित हो चुकी है. जबकि अशोक चौधरी जिस जमुई से संसद पहुंचने की फिराक में हैं, आज के दिन भी वहां से चिराग पासवान अपनी दावेदारी तेज किये हुए हैं. यानि अशोक चौधरी की सियासत फंसी हुई है, और अब अशोक चौधरी इसी फंसी सियासत से बाहर निकलने की जुगाड़ में कुछ ऐसे कारनामें कर रहे हैं, कि गब्बर भी समझ नहीं पा रहा, अब वह अपने इन शागिर्दों के रचे इस चक्रव्यूह के कैसे निकले? क्योंकि जिस विधान सभा को भंग करने की सियासी महत्वाकांक्षा के साथ उनकी पांचवी पलटी हुई थी, अब भाजपा उसे सिरे से खारिज कर रहा है और सिर्फ खारीज ही नहीं कर रहा, जिन शागिर्दों की उंगली पकड़ कर वह यहां तक पहुंचे थें, अब वे शागिर्द भी उन्हे बूढ़ा गब्बर बता सियासत की गुमनामी में जाने की सलाह दे रहे हैं.
जदयू का दस्तरख़ान पर पसरी हुई है फांकाकसी
दरअसल गब्बर की कहानी गब्बर की जवानी में ही दफन हो जाती है, लेकिन बिहार की सियासत के इस गब्बर की कहानी में एक नया पेच हैं. यहां गब्बर अपनी सियासत की अंतिम पारी खेलता हुआ दिख रहा है. गब्बर की इस अंतिम पारी का भान उसके सांभा और कालिया को भी है, और यही से कालिया और सांभा का एक दूसरा रुप सामने आता है, जो फिल्म शोले में नहीं दिखलाया जाता. वहां तो गब्बर कहता है कि कितने आदमी थे कि सांभा की घिग्घी बंध जाती है, कालिया के होश खड़े हो जाते हैं, लेकिन यहां सियासत से इस बूढ़े गब्बर की बुंलद आवाज को सुनने के लिए अब खुद सांभा भी तैयार नहीं दिखता. वह हिस्सा तो टीम गब्बर का है, लेकिन दाने का इंतजाम भाजपा के लिए कर रहा है. जबकि खुद जदयू का दस्तरख़ान पर फांकाकसी पसरी हुई है. आपको इस कहानी में उलझना नहीं पड़े, इसी लिए अब इस कहानी का एक सिरा आपको सामने खोलता हूं, कांग्रेस अध्यक्ष के रुप में पांच वर्षों तक अशोक चौधरी ने कांग्रेस में अपनी एक टीम खड़ी की थी, यदि वह चाहते तो अपने साथ उस टीम को भी जदयू का हिस्सा बना सकते थें, लेकिन नीतीश कुमार की राजनीति ने इसकी इजाजत नहीं दी. नीतीश कुमार सामान्यत: दूसरी पार्टियों में तोड़-फोड़ में यकीन नहीं करते. क्योंकि उन्हे पत्ता है कि यदि सियासत लम्बी करनी है, तो रिश्ते की मर्यादा को बनाये रखना होगा, लेकिन जब सवाल सियासी अस्तित्व पर आ खड़ा हो, तब तो कुछ भी किया जा सकता है. लेकिन इधर सीएम नीतीश अपने सियासत की अंतिम पारी खेलते हुए दिख रहे हैं, और उधर अशोक चौधरी अपने पुराने संबंधों का इस्तेमाल कर राजद कांग्रेस के विधायकों को भाजपा के खेमे ले जा रहे है. दावा तो यह है कि अशोक चौधरी की महत्वाकांक्षा 78 वाली भाजपा को 100 तक ले जाने की है, ताकि जदयू में एक टूट के साथ ही भाजपा अपने दम खम पर सरकार बनाने की स्थिति में आ खड़ा हो जाय, और गब्बर का जो कांटा बिहार की सियासत में करीबन 18 वर्षों से फंसा पड़ा है, उससे उसको राहत मिल जाये. खबर यह है कि जहां एक तरफ नीतीश कुमार भाजपा को विधान सभा भंग करने के अपने वादे की याद दिला रहे हैं, वहीं भाजपा राजद कांग्रेस में तोड़फोड़ के बाद जदयू के खिलाफ ही एक बड़ा ऑपरेशन की तैयारी में है, ताकि नीतीश कुमार के सियासी कैरियर पर पूर्ण विराम लगा दिया जाय, ना तो नीतीश की सियासत रहेगी और ना ही बिहार की सियासत में भाजपा के सामने कोई कील कांटा.
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