TNP DESK-पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव में भाजपा भले ही तीन दो से मुकाबले को निकालने में सफल हो गयी हो, लेकिन जैसे ही उसे क्षेत्रीय दलों से टकराने की नौबत आती है, जीत का नशा फुर्र होता नजर आने लगता है, और खास कर जब सामने नीतीश और लालू की जोड़ी खड़ी हो. याद कीजिए, यह वही जोड़ी थी, जिसने 2015 के विधान सभा चुनाव में भाजपा को महज 53 सीटों पर ढेर कर दिया था. और यही कारण है कि लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा यहां एक साथ कई मोर्चों पर काम करती नजर आ रही है. कभी लालू तो तोड़ने की साजिश तो कभी नीतीश के सामने मनचाही सीटों का ऑफर, यहीं से बिहार की सियासत मीरकासिम और मीरजाफर के उस दौर की याद दिलाने लगती है, जहां हर कदम पर घात-प्रतिधात था, अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं में एक दूसरे को दगा देने को तैयार थें, यह समक्ष में नहीं आता था कि कौन अपना है, कौन पराया, मीरकासिम के दौर का वह पूरा मंजर आज बिहार की सियासत में चरितार्थ होता नजर आ रहा है, उपेन्द्र कुशवाहा एनडीए के साथ रहकर भी क्या एनडीए के साथ ही हैं? आज भाजपा भी पूरे विश्वास के साथ कहने की स्थिति में नहीं है कि उपेन्द्र कुशवाहा किस दौराहे पर खड़े हैं.
सियासत की अंधेरी सुरंग में उपेन्द्र कुशवाहा
दरअसल अपनी सियासी महात्वाकांक्षा में उपेन्द्र कुशवाहा उस अंधेरी सुरंग में फंसते दिखलायी दे रहे हैं, जहां सामने दीवार खड़ी है, अब यह उन्हे सोचना है कि इस अंधेरी गुफा का जश्न मनाना है या वापस लौट सूरज की रोशनी देखनी है, क्योंकि जिस सीएम पद की महत्वाकांक्षा उनके अंदर हिलोरे मार रही थी, भाजपा में सम्राट चौधरी की ताजपोशी के बाद उसके दरवाजे बंद हो चुके हैं. और रही मंत्री बनने की बात तो याद रखिये कि मोदी मंत्रिमंडल में केन्द्रीय मंत्री रहते हुए भी उपेन्द्र कुशवाहा ने एनडीए को अलविदा कहा था. तो इस प्रकार मंत्री बनना उनका सियासी मंजिल न कभी था और ना है, उनके सपने बड़े हैं, हां उस तुलना में उनकी कमीज थोड़ी छोटी नजर आती है, जैसे ही वह नीतीश के साथ खड़े होते हैं, वह एक बारगी पूरे कुशवाहा बिरादरी का नेता नजर आने लगते हैं, लेकिन साथ छोड़ते ही उनकी भूमिका महज दो तीन विधान सभाओं में सिमटती नजर आती है. लेकिन यदि वह जदयू के साथ रहते हैं तो एक ना एक दिन पार्टी का नेतृत्व उनके हाथ लग सकता है, यहां एक हद तक उम्मीद पाली जा सकती है.
जीतन किसका अभी भी बड़ा सवाल
इधर जीतन राम मांझी भले ही आज सार्वजनिक रुप से नीतीश को मानसिक दिवालिया बता रहे हैं, लेकिन यह उनको भी पता है कि राजद जदयू की संयुक्त शक्ति के आगे गया संसदीय सीट से संतोष सुमन की राह कितनी कठिन होने वाली है. खास कर तब जब पर्वत पुरुष दशरथ मांझी के परिजन को आगे कर नीतीश ने अपनी पहली चाल चल दी है. इस हालत में अपनी उलटबांसियों के लिए मशहूर जीतन राम मांझी का अगला कदम किसी को भी हैरत में डाल सकता है.
भाजपा के चाणक्य के दांव फेल?
और एनडीए के घटक दलों में यह स्थिति कायम भी क्यों नहीं हो, जब भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह के बारे में भी एक साथ कई उलटबांसियों की खबरें सामने आ रही है. एक तरफ वह जहां अपने दौरों से बिहार में अपनी सियासी जमीन की ताकत को नये सिरे से मुआयने में लगे हैं, तो अंदरखाने तेजस्वी से लेकर नीतीश तक डोरे डालने की खबरें में सामने आ रही है, दावा किया जा रहा है कि अमित शाह इस बार किसी भी हालत में बिहार को फतह करना चाहते हैं. लेकिन बिहार की जमीनी हालत क्या है, और यहां मौजूदा समय में भाजपा के लिए कितनी संभवानाएं है, इसका आकलन खुद उन्ही के शब्दों में किया जा सकता है, 2015 में विधान सभा चुनाव में राजद-जदयू के साथ संयुक्त मुकाबले में 53 सीटों पर सिमट जाने के बाद अमित शाह ने तब बेहद साफगोई से इस बात को स्वीकार था, कि बिहार में तीन राजनीतिक सत्ताएं है. पहली और सबसे मजबूत राजद, दूसरे पर जदयू और तीसरा भाजपा का. उनका आकलन था कि जब भी कोई शक्तियां एक साथ खड़ी हो जाती है, तीसरे के लिए कोई गुंजाईश नहीं बचती, यह बिहार की हकीकत है, जिसे स्वीकार करना होगा.
क्या 2015 से अलग होगा चुनाव का परिणाम
तो क्या सम्राट चौधरी की इंट्री से इस जमीनी हालात में कोई बदलाव हो गया. और यदि हो गया होता तो अभी हाल में ही एक हॉल को भरने में जिस प्रकार भाजपा हांफती नजर आयी, वह होता? हालांकि सार्वजनिक रुप से भाजपा इसे स्वीकार नहीं करें, लेकिन इस तल्ख सच्चाई को उसे भी भान है कि बिहार भाजपा के वाटर लू का किला है. जिसे लालू नीतीश की जोड़ी के साथ रहते फतह करना एक नामुमकिन टास्क है.
अमित शाह ने नीतीश को बॉय बॉय टाटा नहीं किया है
तब क्या यह माना जाये कि भाजपा ने बिहार में अपनी हार मान ली, जी नहीं, सियासत संभावनाओं का खेल है, हर दरवाजे हर किसी के लिए हर वक्त खुले रहते हैं. भले ही उपर से सियासी तलवार चलती रहे, जैसे उपेन्द्र कुशवाहा के लिए जदयू के आज भी जदयू का दरवाजा खुला हुआ है, आज भी जिस आवास में वह रहते थें, बड़े भाई नीतीश ने आज भी उस आवास को किसी को आवंटित नहीं किया है. शायद आज भी उनके मन में छोटे भाई के प्रति सम्मान और प्यार बचा है. वैसे ही अमित शाह ने नीतीश को बॉय बॉय टाटा नहीं किया है.
नीतीश को लोकसभा की 23 सीटों का ऑफर
खबर है कि अमित शाह ने इंडिया गठबंधन के सूत्रधार नीतीश कुमार को बिहार की 40 सीटों में अपने हिस्से की 17 सीटों को छोड़कर बाकि के 23 सीटों का ऑफर दे दिया है, इसके साथ ही यदि नीतीश कुमार यदि चाहें तो विधान सभा को भंग कर लोकसभा चुनाव के साथ ही विधान सभा का चुनाव भी करवाने की घोषणा कर सकते हैं, और विधान सभा में भी भाजपा सीएम नीतीश को उनकी शर्तों पर सीटें देने को तैयार है, यहां कोई मांझी, कोई चिराग नहीं होगा. जिस चिराग मॉडल ने भाजपा के साथ नीतीश की अदावत खड़ी की, बदली हुई परिस्थितियों में अमित शाह उसी चिराग की बलि चढ़ाने को तैयार हैं.
क्या नीतीश को ऑफर स्वीकार है
लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या नीतीश कुमार इस ऑफर को स्वीकार करने को तैयार हैं, इसका सीधा जवाब है, नहीं, क्योंकि यह सीएम नीतीश को भी पता है कि एनडीए में जाने का मतलब है, अमित शाह के जाल में अपनी गर्दन फंसाना, लोकसभा चुनाव खत्म होते ही अमित शाह एक बार फिर से पुराना खेल कर सकते हैं. दोनों के बीच अविश्वास की खाई काफी गहरी हो चुकी है. और वर्तमान में नीतीश की राजनीतिक महत्वाकांक्षा केन्द्रीय राजनीतिक में अपना जलबा दिखलाने की है, दरअसल अपने सियासी अनुभव के बल पर नीतीश यह मान कर चल रहे हैं कि इस बार भाजपा कांग्रेस मिलकर भी तीन सौ का आंकड़ा पार करने की स्थिति में नहीं है. निश्चित रुप से भाजपा कांग्रेस की तुलना में मजबूत जरुर नजर आती है, लेकिन ले देकर उसकी सारी आशाओँ का केन्द्र अब हिन्दी भाषा भाषी राज्य ही है, पश्चिम बंगाल, पंजाब, केरल, तमिलनाडू, कर्नाटक, तेलांगना, ओडिशा, जम्मू-काश्मीर, आन्ध्रप्रदेश जैसे कई राज्य हैं, जहां भाजपा के लिए दरवाजे लगभग बंद हो चुके हैं. रही बात हिन्दी भाषा भाषी राज्यों की तो गुजरात मध्यप्रेदश को भाजपा का गढ़ माना जाता है, लेकिन यूपी में सीएम नीतीश का मानना है कि वह अपनी इंट्री से वहां का खेल बिगाड़ने जा रहे हैं, बिहार में भाजपा के हाथ कुछ खास आने वाला नहीं है, कुल देकर उसे गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हिमाचल और उतराखंड में भी अपना जलबा दिखलाना होगा, और यदि इन प्रदेशों में तमाम क्षत्रप सीना तान कर खड़े हो गयें तो कम से कम कांग्रेस के हिस्से में पांच फीसदी वोटों को इजाफा किया जा सकता है, जिसके बाद इन प्रदेशों भाजपा की सीटों को काफी हद तक कम किया जा सकता है.
राजनीति संभवानाओं का खेल है
हालांकि यह सभी संभावनाओं का खेल है, लेकिन इसी संभावना का नाम तो राजनीति है, जिस तरह अमित शाह अपनी आशा बनाये हुए हैं, ठीक उसी प्रकार नीतीश ने भी हौसला नहीं खोया है, वैसे ही अब सीएम नीतीश के पास खोने को कुछ नहीं है, राजनीति की तमाम पारियां वह पहले ही खेल चुके हैं, और जो खेलना है उसका समाधान कांग्रेस-भाजपा की संयुक्त ताकत को तीन सौ के आंकड़ों तक सीमित करना है.
अमित शाह का दूसरा मोर्चा
और यही कारण है कि अमित शाह एक दूसरा मोर्चा भी खोलते नजर आ रहे हैं, दावा किया जाता है कि अपने सूत्रधारों के माध्यम से वह तेजस्वी के जख्मों पर मरहम लगाने का यत्न कर रहे हैं, यहां ऑफर नीतीश के साथ छोड़कर खुद सीएम बनने का है, भाजपा बाहर से समर्थन देने को तैयार बैठी है. लेकिन मुश्किल यह है कि यहां सामने लालू खड़े हैं, जिनकी राजनीतिक पारी नीतीश, मोदी और अमित शाह की तुलना में काफी लम्बी है, यह वही लालू हैं, जो एक वक्त दिल्ली में किंग मेकर हुआ करते थें, जिनके इशारों पर सत्ता बनती बिगड़ी थी.
जीवन और राजनीति गंगा की पानी तरह बहने की अनंत प्रक्रिया
तो क्या अमित शाह ने हार मान ली, एक बार फिर से जवाब होगा, नहीं, राजनीति संभवानाओं का खेल है, और बिहार तो उसकी उर्वर भूमि है, यह अभी कई ताश फेंटे जाने हैं. देखना होगा कि किसकी गुंजाईश कहां बैठती है, और कौन अंतिम वक्त में अपनी टोली बदलता है. अभी तो चार महीने का समय बाकी है, इस बीच गंगा में काफी पानी बहना है, देखते जाइये, पानी और पानी की इस धार को. जीवन और राजनीति गंगा की पानी तरह बहने की अनंत प्रक्रिया का ही तो नाम है, जो ठहरा उसमें सड़ांध तय है, इसलिए अंतिम समय तक ताश के इन पतों को फेंटने की प्रक्रिया जारी रहेगी.
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