Patna-बिहार अजूबा है और उतना ही अजूबा है बिहार की सियासत, यहां “राजनीति का शीर्षासन” सियासत का अपवाद नहीं, उसकी मुख्यधारा मानी जाती है, लालू के कथित जंगलराज को उखाड़ कर फेंकने के नाम पर पिछले 18 बरसों से जो ‘सुशासन का संगीत’ बजाया जा रहा था, अब वहीं संगीत भाजपा के कर्णधारों को कर्कश शोर में तब्दील होता नजर आने लगा है, जिस सीएम नीतीश को कभी ‘सुशासन बाबू’ के तमगे से नवाज कर बिहारवासियों को कथित जंगलराज से मुक्ति का भ्रमजाल फैलाया गया था, अब भाजपा का वही भ्रमजाल उसके ही गले की हड्डी बनती नजर आ रही है. पूरी भाजपा आज इसी उधेड़बुन में फंसी है कि वह नीतीश के साथ समय पूर्व विधान सभा की ओर प्रस्थान करे, जैसा की पाचवीं पलटी के पहले सीएम नीतीश को भरोसा दिलाया गया था, या फिर एकेला चलो के राग पर लोकसभा के जंगे मैदान में कूदने का एलान किया जाय. दावा है कि यही वह सवाल है जिस पर प्रदेश भाजपा और दिल्ली भाजपा पूरी तरह बंटती नजर आती है. प्रदेश भाजपा का फीड बैक साफ है कि यदि समय पूर्व विधान सभा को भंग करने का दुस्साहस पूर्ण फैसला लिया जाता है तो भाजपा की बात छोड़ भी दें, तो आधी जदयू राजद के साथ खड़ी नजर आ सकती है. उधर दिल्ली की मुसीबत यह है कि नीतीश की पांचवी पलटी के बाद तेजस्वी की रैलियों में जो जन सैलाब उमड़ रहा है, उसके बाद लोकसभा का परिणाम क्या होगा, इसको जानने समझने के लिए किसी ज्योतिष के पास जाने की जरुरत नहीं है. हालत यह है कि सीएम नीतीश के साथ सियासी नाव की सवारी करने के बावजूद भी 2019 का चुनाव परिणाम के आसपास खड़ा होना भी मुश्किल होता नजर आने लगा है.
भाजपा की दुविधा
भाजपा की दुविधा यह है कि वह बिहार की सियासत में किस रास्ते का सफर करें. यह आकलन भी किया जा रहा है कि यदि नीतीश का साथ छोड़ दिया जाय को उसका संभावित नफा नुकसान क्या होगा? लोकसभा चुनाव की चुनौती और भी गंभीर होगी? या फिर नीतीश रुपी भार से मुक्त होने के बाद उसमें कुछ राहत मिलेगी? यही कारण है कि बिहार भाजपा का एक बड़ा खेमा नीतीश रुपी भार को फेंक कर अकेला चलो का राग अपना रहा है, उसका मानना है कि बिहार की बदलती सियासत में नीतीश का साथ होना वर्तमान सत्ता और सरकारी मशीनरियों के हिसाब से भले ही कुछ राहत भरी खबर हो, लेकिन बात जब जनादेश की आयेगी तो चुनावी अखाड़े में नीतीश के साथ के कारण अपयश और बदनामी के सिवा कुछ भी मिलने वाला नहीं है, आज जो तेजस्वी की सभाओं में अपार जैन सैलाब उमड़ रहा है, उसकी मुख्य वजह यही है कि यह बात जनता तक पहुंच गयी है कि नीतीश ने अपनी राजनीतिक स्वार्धसिद्धी में तेजस्वी को सत्ता से बेदखल किया है, और यहीं से तेजस्वी के पक्ष में एक जनउभार उमड़ता दिख रहा है, इस हालत में यह बेहतर होगा कि इस विवाद की जगह नीतीश को ही क्यों नहीं एक बार और तेजस्वी के पाले में खड़ा कर दिया जाय, ताकि जिस सहानूभुति की सवारी कर तेजस्वी जनता के बीच अपनी पैठ बनाते हुए सफल होते दिख रहे हों, उसकी जमीन को कमजोर कर दिया जाय और एक बार फिर से वही सहानुभुति भाजपा के पक्ष में बनने की शुरुआत हो जाय.
नीतीश की चिंता
उधर भाजपा की दुविधा और सियासी उलझनों से इतर नीतीश एक अलग सियासी भवंर जाल में फंसे दिखलायी दे रहे हैं, उनके रणनीतिकारों का मानना है कि भाजपा को उनकी जरुरत तब तक ही है, जब तक लोकसभा का चुनाव नहीं हो जाता, भाजपा की प्राथमिकता नीतीश को 45 विधायकों वाली पार्टी से आगे बढ़ाकर 80 विधायकों वाली जदयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की नहीं है, उसकी चाहत को किसी प्रकार नीतीश की बैतरणी पर सवार होकर बिहार की लोकसभा की 40 सीटों में से कम से कम 35 पर अपना और अपने सहयोगियों का परचम फहराने की है, जैसे ही यह मकसद पूरा हो जाता है कि एक बार फिर ऑपरेशन चिराग का खेल होगा, यानि भाजपा से जो भी हासिल करना है, उसे लोकसभा चुनाव के पहले ही करना है. लोकसभा चुनाव की डुगडुगी बजी नहीं की खेल खत्म.
नीतीश ने जारी किया अल्टीमेटम
इस बीच खबर यह है कि नीतीश कुमार ने कल ही अमित शाह से बात कर बिहार की तस्वीर साफ करने को कहा है, 72 घंटों का अल्टीमेटम देते हुए चेतावनी दी है कि या तो आप अपने वादे के अनुसार विधान सभा को भंग करने पर सहमति जताईये या फिर एक और सियासी खेल का इंतजार कीजिये. यहां ध्यान रहे कि सीएम नीतीश ने महागठबंधन से अपनी जुलाई का एलान करते हुए 28 जनवरी को भाजपा के सहयोग से नौवीं बार सीएम पद की शपथ ली थी, उस वक्त उनके मंत्रिमंडल में 9 मंत्री बनाये गये थें, जिसमें भाजपा के महज तीन हैं. एक महीना गुजरने के बावजूद अब तक मंत्रिमंडल का विस्तार नहीं हुआ है. इस बीच काफी जद्दोजहद और अपने ही विधायकों पर मामले दर्ज करवाने के बाद किसी प्रकार बहुमत को हासिल कर लिया गया. लेकिन विधायकों की नारजगी अभी भी खत्म नहीं हुई है. दावा किया जाता है कि जैसे ही मंत्रिमंडल का विस्तार होता है, जदयू में एक बड़ी फूट हो सकती है. उधर जीतन राम मांझी भी साफ-साफ अपने लिए दो मंत्री पद की मांग कर चुके हैं. इस हालत में महज चार से पांच विधायकों के बहुमत के बल पर इस सरकार को हांकना नीतीश के लिए भी सियासी मुसीबत बनती दिख रही है.
पाला बदल की स्थिति में नीतीश के आधा दर्जन सवर्ण विधायक थाम सकते हैं भाजपा का दामन
दूसरी खबर नीतीश को और भी बेचैन करने वाली है, खबर यह है कि यदि नीतीश कुमार इस बार छठी पलटी की और कदम बढ़ाते हैं, उनके कमसे कम आधा दर्जन सवर्ण विधायक जदयू का साथ छोड़ भाजपा का कमल थाम सकते हैं. और यदि विधान सभा भंग करने का एलान किया जाता है तो भाजपा-जदयू के करीन एक दर्जन विधायक राजद का लालटेन थामने की तैयारी में हैं. यानि बिहार की पूरी सियासत फंसी नजर आ रही है. और चुनौती सिर्फ भाजपा जदयू के सामने नहीं है, चुनौती तो राजद के दरवाजे पर भी खड़ी है. क्योंकि यदि इस बार महागठबंधन में नीतीश को स्वीकार किया जाता है, तो विरोध की आवाज राजद की ओर से भी उठ सकती है. हालांकि तेजस्वी इस बार की हुंकार भले ही लगा रहे हों को “भाजपा तेरी खैर नहीं, नीतीश तुझसे बैर नहीं” लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है, और खास कर जिस तरह उनकी रैलियों में अपार जनसमर्थन उमड़ रहा है. चाचा नीतीश की एक और पलटी के बाद उस जनसमर्थन को धक्का लग सकता है, इस हालत में यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले 72 घटों में बिहार की सियासत किस करवट बैठता है, लेकिन इतना साफ है कि नीतीश का राजनीतिक ग्राफ अब ढलान की ओर है, और यदि इस पलटी के बाद उसके सवर्ण विधायक भाजपा के साथ खड़े हो गयें तो यह उनके गिरते सियासी कैरियर पर एक और अंतिम धक्का होगा?
कैसे दिया जायेगा इस पाला बदल को अंजाम
जहां तक बात रही कि नीतीश कुमार की इस संभावित पलटी को अंजाम कैसै दिया जायेगा? तो उसका गणित बेहद साफ है, नीतीश कुमार को इस बार ना तो राजभवन जाना है, और ना ही विधायकों का मान मनौवल करना है, उन्हे तो बस अपने मंत्रिमंडल से भाजपा कोटे से शपथ दिलवाये गये मंत्रियों को बर्खास्त कर राजद कोटो से मंत्रियों की इंट्री करवानी है. उस हालत में भाजपा के पास अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का पूरा अवसर होगा, और यह नीतीश के लिए कोई बड़ी चुनौती नहीं होगी. क्योंकि यदि उनके आधे से अधिक विधायक भी भाजपा का दामन थाम लें, तो भी नीतीश की कुर्सी खतरे में नहीं आयेगी.
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