Ranchi-झारखंड प्रदेश प्रभारी के रुप में अविनाश कुमार पांडे की विदाई के बाद जबसे गुलाम अहमद मीर ने झारखंड की कमान संभाली है, सब कुछ सहज- सामान्य गति से आगे बढ़ता नहीं दिख रहा, हालांकि अविनाश कुमार पांडे के समय में सब कुछ सहज था, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन कांग्रेसी के अंदर से इस प्रकार का खुला विद्रोह पहली बार देखने को मिल रहा है. यह पहली बार हो रहा है कि कोई यादव विधायक इस बात का दंभ भर रहा हो कि यदि मंत्रिमंडल में उसकी इंट्री नहीं हुई, तो वह अपने समाज में मुंह दिखलाने की हैसियत में नहीं होगा. उसके लिए अपने कार्यकर्ताओं को समझाना मुश्किल टास्क होगा, तो दूसरा विधायक अपने आप को झारखंड कांग्रेस का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक चेहरा बता कर मंत्री बनने की ख्वाहीश का सार्वजनिक इजहार कर रहा हो. कुछ यही स्थिति दूसरे विधायकों की भी हैं. हर किसी की चाहत मंत्री पद की है. चार कुर्सी के 11 दीवाने पूरे दम खम के साथ अपनी-अपनी दावेदारी ठोक रहे हैं. सबके अपने दुखड़े और दर्द है, लेकिन ख्वाहीश एक ही है मंत्रीपद की कुर्सी. तो क्या यह स्थिति एक दिन में बन गयी या फिर इन विधायकों को पूर्व सीएम हेमंत की गिरफ्तारी का इंतजार था? क्या झारखंड में बदलते सियासी समीकरण के बीच इन्हे इस बात का भान था कि आने वाले दिनों में सीएम हेमंत की मुश्किलें बढ़ने वाली है और वही माकुल वक्त होगा जब हम अपने-अपने सियासी ख्वाहीशों को मंजिल तक पहंचाने की हालत में होंगे. यानि सियासी बारगेनिंग का खुला दरवार होगा.
आंसुओं की अविरल धारा और यह सियासत
जरा हेमंत की गिरफ्तारी के वक्त इन विधायकों के चेहरों को समझने की कोशिश करें, सारे चेहरे गमगीन और लटके हुए थें. कई आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बह रही थी, तो कोई खुद को हेमंत का हनुमान बता रहा था, लेकिन ऐसा क्या हुआ कि हेमंत को काल कोठरी में कैद होती ही इनके सपनों को पंख लग गया, इनके सामने मंत्री पद की कुर्सी खड़ी दिखनी लगी और मंत्री बनने की सनक भी इतनी की राजधानी रांची से दिल्ली की तक दौड़ लगनी शुरु हो गयी, हालांकि उस दौड़ परिणाम क्या निकला और आगे क्या परिणति होगी, वह एक जुदा सवाल है. लेकिन यह हालत क्यों निर्मित हुई, इसके समझने के पहले हमें पिछले दो दिनों की राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों को टटोलना होगा, पहली सुर्खी बंगाल से आती है, बताया जाता है कि जिस इंडिया गठबंधन को नीतीश की पलटी के बाद मृत मानने की जल्दबाजी दिखलायी गयी थी, कथित राष्ट्रीय मीडिया में जिसे अप्रासांगिक बताते को होड़ लगी थी, लोकसभा और लोकसभा से बाहर अधीर रंजन के बयानों को आगे कर यह दावे ठोके जा रहे थें कि बंगाल में दीदी का राहुल के साथ आना नामुमकिन टास्क है, लेकिन वह टास्क पूरा हुआ और आखिकार दीदी ने राहुल गांधी को अपने ममता भरी आंचल में लपेट लिया. अभी यह खबर ढंग से समझ में आयी भी नहीं कि उत्तर प्रदेश से राहुल गांधी और अखिलेश के बीच समझौते की खबर आने लगी. जिस अजय राय के बयान को तील से तार बनाकर इंडिया गठबंधन की धज्जियां उड़ाई जा रही थी, चिरकुट की परिकथा लिखी जा रही थी. उसी उतर प्रदेश में कांग्रेस ने 17 सीटों के साथ सपा के साथ सम्मानपूर्ण समझौता करना स्वीकार कर लिया और इसके साथ ही सपा को उस मध्यप्रदेश में भी एक सीट देने को तैयार हो गयी, जहां कुछ दिन पहले तक वह एक विधान सभा की सीट देने को तैयार नहीं थी, बड़ी बात यह है कि इसकी भनक प्रदेश अध्यक्ष अजय राय तक को नहीं लगी. अभी इसकी सियासी समीक्षा की शुरुआत होती कि उसके पहले ही दिल्ली से आप और कांग्रेस के बीच समझौते की खबर सामने आ खड़ी हुई, कांग्रेस तीन सीट के साथ दिल्ली में आप के साथ समझौता को राजी हो गयी और बड़ी बात यह है कि आप और कांग्रेस का समझौता सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं रहा, बल्कि गुजरात से लेकर गोवा तक सीटों का एडजस्टमेंट हो गया.
क्या इस प्लानिंग से कांग्रेस के सामान्य नेताओं को दूर रखा गया था?
तो सवाल यह है कि क्या यह सब कुछ यों ही हो गया? या फिर यह एक लम्बी प्लानिंग का हिस्सा था? जिससे बेहद तरीके से सभी संदिग्ध चेहरों को बाहर रखा गया था? जब छुटभैया नेता एक दूसरे पर छींटाकशी कस रहे थें, ठीक उसी वक्त दोनों ही पार्टियों के चंद नेता सीट-सीट दर समझौते से होने वाले संभावित लाभ-हानि का मूल्याकंन में व्यस्त थें? और जैसे ही सबकुछ सामान्य हुआ, समझौती की घोषणा कर दी गयी. और जिसके बाद जितना अचंभा भाजपा को लगा, उसके ज्यादा परेशानी खुद कांग्रेस और इन क्षेत्रीय दलों के अंदर के नेताओं को हुई. यानि इस समझौते तक पहुंचने के लिए कांग्रेस और तमाम क्षेत्रीय दलों की एक टीम चुपचाप अपना काम कर रही थी और इधर बाहर दोनों दलों के नेता अपने बड़बोले बयान से अखबारों की सुर्खियां बटोर रहे थें.
हर पार्टी में बैठा है भाजपा का स्लीपर सेल
दरअसल भाजपा की इनडोर सियासत पर नजर रखने वाले कुछ सियासी विश्लेषकों का मानना है कि चाहे कांग्रेस हो या आप, या राजद हो या झामुमो, सपा हो या जदयू या फिर शरद पवार और उद्भव ठाकरे की पार्टी, आज हर पार्टी में भाजपा का एक स्लीपर सेल एक्टीव है. जो बात को अपने पार्टी नेतृत्व की करती है, लेकिन जमीन भाजपा का तैयार करता है. और इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण जदयू है. जो नीतीश कुमार कभी इंडिया गठबंधन का सूत्रधार बन कर सामने आये थें, जिनका सपना भारत को आरएसएस और भाजपा मुक्त बनाने का था, वह सबसे पहले भाजपा के शरण में जा बैठें. लेकिन खबर यह नहीं है कि नीतीश कुमार रणछोड़ कर भाजपा की शरण में जा बैठे, खबर यह है कि इस ऑपेरशन को अंजाम किसने दिया? तो खबर यह है कि इस ऑपरेशन नीतीश को अंजाम तक पहुंचाने में दो अहम किरदार थें. जो छाये के तरह नीतीश कुमार के साथ खड़ा नजर आते थें. एक तो भाजपा के रास्ते जदयू में आये संजय झा हैं, जो नीतीश की पलटी के साथ ही राज्य सभा भेज दिये गयें. यानि उनका मेहनताना प्रदान कर दिया गया. दूसरा किरदार अशोक चौधरी का है, यह वही अशोक चौधरी है, जिनके दरवाजे पर संघ प्रमुख मोहन भावगत की कृपा बरसती है. दावा किया जाता है कि जैसे ही लालू तेजस्वी ने नीतीश कुमार के द्वारा रखे गये विधान सभा भंग करने के प्रस्ताव को ठुकराया, दोनों ने समय की मांग को समझते हुए नीतीश के सामने भापजा के साथ जाने का प्रस्ताव पेश कर दिया. सब कुछ इस सहज अंदाज में किया गया कि नीतीश को भी इसमें किसी सियासी षडयंत्र की बू नहीं आयी, जदयू नेताओं ने नीतीश की बात सीधे पीएम मोदी के करवा दी. और पीएम मोदी ने भी विधान सभा को भंग कर लोकसभा चुनाव के साथ चुनाव करवाने पर हामी भर दी, लेकिन आज नीतीश कुमार कहां खड़े हैं? बहुमत साबित करने के एक माह गुजर जाने के बाद भी उन्हे अपने मंत्रिमंडल विस्तार की करने की हिम्मत नहीं हो रही, पत्ता नहीं कब जदयू में ही टूट हो जाय. कितने विधायक पाला बदल कर राजद के साथ गलबहिंया कर बैठे और इधर बिहार भाजपा ने विधान सभा भंग करने से साफ इंकार कर दिया, यानि नीतीश कुमार भाजपा से सियासी चाल में तोते की तरह फंस गयें.
तो हर दल में मौजूद हैं संजय झा और अशोक चौधरी जैसे किरदार
तो यह संजय झा और अशोक चौधरी की कहानी सिर्फ जदयू की नहीं है, ये संजय झा और अशोक चौधरी आज हर दल में मौजूद हैं, हर दल में इनकी डंका बजती है, लेकिन ये कभी भी अपने दल की सियासी भविष्य की चिंता नहीं करते, इनकी जिम्मेवारी अपनी अपनी पार्टी में रहकर भी भाजपा के सामने आने वाले विध्न बाधा को दूर करने की होती है. इसी तरह के लोगों के लिए कभी फिफ्थ कॉलम शब्दावली का इस्तेमाल होता है. दरअसल पाचवां स्तंभ जैसी शब्दावली का इस्तेमाल ऐसे समूहों के लिए किया जाता है जो किसी भी संगठन को आंतरिक रुप से कमजोर बनाता है, आज पूरे देश में भाजपा का यही फिफ्थ कॉलम हर गैर भाजपाई दल में मौजूद है.
तो झारखंड कांग्रेस में नहीं भाजपा का स्लीपर सेल?
इस हालत में यह सवाल खड़ा होता है कि यूपी, बंगाल, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और दूसरे राज्यों में कांग्रेस संगठन के अंदर जो फिफ्थ कॉलम अपना काम कर रहा है, क्या उस फिफ्थ कॉलम का झारखंड में कोई वजूद नहीं है और यदि नहीं हो तो हेमंत की गिरफ्तारी के बाद मंत्री बनने की यह अप्रत्याशित उड़ान क्यों? निश्चित रुप से इस अप्रत्याशित उड़ान के पीछे एक साजिश की बू तो नजर आती है और उसके मजूबत तर्क भी नजर आते है. जरा इन “नाराज चेहरों” को गौर से समझने की कोशिश करें, इसमें आपको कई ऐसे चेहरे नजर आयेंगे, जिन पर कभी ना कभी ईडी और आईटी की तलवार लटकी थी. लेकिन आज वह फाइल कहां है? क्या वह फाइल किसी समझौते के साथ बंद किया गया था? या इन चेहरों को लेकर पालाबदल की खबरें पहले भी सियासी गलियारों में तैरी थी. मीर की पहली चुनौती इन्ही सवालों को तलाश करने और इस स्लीपर सेल का ऑपरेशन करने की होगी. क्योंकि झारखंड की चुनौतियां अभी शुरु हुई है, अभी तो इसकी कई परते खुलने बाकी है, बड़ा सवाल तो यही है कि गठबंधन के तहत कांग्रेस को जो छह सीटें दी गयी है, क्या उन सीटों पर इनके पास कोई मजबूत चेहरा भी है, क्योंकि यदि टिकट वितरण के समय मीर इन कमल छाप कांग्रेसियों की राय का शिकार हो गयें, तो निश्चित रुप से यह 2024 में भाजपा की चुनौतियों को आसान करना होगा, और यदि प्रत्याशी चयन में इनकी भूमिका को सीमित सिर्फ और सिर्फ जीत को पैमाना बनाया गया, सामाजिक समीकरण और तल्ख जमीनी हकीकत का सामना किया गया, तो फिर मीर के जयकारे भी लग सकते हैं.
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