TNP DESK- 1932 का जिन्न एक बार फिर से बाहर निकलता दिखने लगा है. राज्यपाल सी. राधाकृष्णन के द्वारा इस बिल को विचारार्थ वापस भेजने के बाद इस मुद्दे पर एक सियासत तेज होती नजर रही है, झामुमो महासचिव और प्रवक्ता सुप्रियो भट्टाचार्य ने राजभवन को निशाने पर लेते हुए अब तक इस बिल का नहीं लागू होने का सारा ठिकरा राजभवन पर फोड़ा है. सुप्रियो का आरोप है कि राजभवन जानबूझ कर इस बिल पर एक साल तक कुंडली मार कर बैठा रहा, जब इसका विरोध हुआ तो आश्चर्यजनक रुप से इस बिल को राज्य सरकार को वापस कर दिया गया, जबकि यह बिल विधान सभा की संपदा है, जब राजभवन के इस पैतरे पर आपत्ति दर्ज की गयी तो आखिरकार थक हार कर इसे विधान सभा को वापस भेजा गया. सुप्रियो ने कहा कि राज्यपाल के द्वारा भेजे गये मन्तव्य में तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों को स्थानीय लोगों के लिए महज पांच वर्ष के लिए आरक्षित करने की सलाह दी गयी है, जो कहीं से भी स्वीकार योग्य नहीं है. 1932 का खतियान सरना धर्म कोड की तरह झारखंड की अस्मिता और पहचान से जुड़ा मामला है. भाजपा को यह बात गांठ बांध कर रख लेनी चाहिए. बिल को लेकर उठते रहे सारे भ्रमों को दूर करते हुए सुप्रियो ने कहा कि 1932 का मतलब है कि जिस भी जिले में जो अंतिम सर्वे हुआ है, उस जिले में उस वर्ष को ही स्थानीयता की पहचान मानी जायेगी. और जहां सर्व नहीं हुआ है, उस हालत में ग्राम सभा की ओर से इस पर फैसला लिया जायेगा.
दूसरी ओर सीएम हेमंत ने इस बिल का अब तक लागू नहीं होने का सारा ठिकरा भाजपा पर फोड़ते हुए तंज भरे लहजे में कहा है कि क्या अब हम तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों को भी बाहरी लोगों के लिए खोल दें. ताकि बिहार यूपी के लोग भी अब यहां आकर झारखंडियों की हक छिने, भाजपा यदि यह सोचती है, तो वह भारी भूल में है, झामुमो की सरकार में इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है. हम किसी भी कीमत पर आदिवासी-मूलवासियों की हकमारी को बर्दास्त नहीं करेंगे. यहां बता दें कि हेमंत सरकार ने शीतकालीन सत्र में इस बिल को एक बार फिर से सदन के पटल पर रखने के लिए कैबिनेट की बैठक में स्वीकृति प्रदान कर दिया है, इसके बाद साफ है कि इसी चालू सत्र में एक बार फिर से इस बिल को राजभवन को वापस भेजा सकता है.
हेमंत सरकार का झुकने से इंकार
हेमंत सरकार के तेवर से यह नहीं लगता कि वह इस बिल में कोई भी संशोधन को तैयार है, उलटे वह इस मामले में राजभवन को ही कटघरे में खड़ा कर इसे लोकसभा चुनाव में सियासी मुद्दा बनाने की तैयारी करती नजर आ रही है, और यदि वह ऐसा करती है, तो निश्चित रुप से 2024 के लोकसभा चुनाव में यह झारखंड में बड़ा सियासी मुद्दा बन सकता है, जिसकी काट खोजना भाजपा के लिए बेहद मुश्किल होगा, क्योंकि जैसे की सुप्रियो दावा कर रहे हैं 1932 का खतियान झारखंडी अस्मिता और पहचान से जुड़ा मामला है. और हेमंत सरकार के पास इस मोर्चे पर रक्षात्मक मुद्रा में खेलने का कोई कारण नहीं है, दूसरी ओर इंडिया गठबंधन दे दूसरे साथियों को भी भाजपा के खिलाफ यहां बड़ा सियासी हथियार मिल सकता है.
झारखंड के बाद छत्तीसगढ़ में तेज हो सकती है स्थानीयता की तिथि बदले की मांग
दूसरी ओर कुछ जानकारों का यह भी मानना है कि झारखंड की तरह ही छत्तीसगढ़ में इस प्रकार की मांग तेज हो सकती है, क्योंकि जिस प्रकार झारखंड में पिछले सौ वर्षों में बाहरी आबादी की बाढ़ आयी है, ठीक वही हालत आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ की भी है, और यदि यह आग झारखंड से गुजरते हुए छत्तीसगढ़ पहुंच गया तो यह पूरे देश में आदिवासियों के बीच यह मुद्दा बन सकता है, हालांकि हर स्टेट में कट और डेट अलग अलग होगा. जो वहां की स्थानीय परिस्थितियों ओर जरुरतों को अनुरुप होगा.
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