Ranchi-इंडिया गठबंधन की चौथी बैठक और लोकसभा से पहली बार थोक भाव में 141 सांसदों का निष्कासन के साथ ही माना जा रहा है कि 2024 के महासंग्राम की डुगडुगी बज चुकी है. और इसके साथ ही झारखंड में अंदर खाने सियासी पार्टियों के बीच शाह-मात का खेल प्रारम्भ हो चुका है. हर सियासी दल दूसरे खेमे के संभावित पहलवानों का आकलन करने में जुटा है, ताकि उस सियासी पहलवान की ताकत और सामाजिक समीकरणों को साधते हुए वह भी अखाड़े में एक मजबूत प्रत्याशी उतार सके.
लेकिन इस सियासी उठापटक के बीच बाबूलाल की पेचीदगी बढ़ती नजर आ रही है. दरअसल लोकसभा 2024 का चुनाव बाबूलाल की आगे की सियासत और उसकी धार तय करने जा रहा है. यदि इस महासंग्राम में वह कम से कम लोकसभा की 10 सीटें भाजपा की झोली में डालने में नाकाम रहते हैं, तो इसके साथ ही उनकी सियासी में तूफान खड़ा हो सकता है, और यह द तब ही संभव है जब बाबूलाल झामुमो के कोर मतदाताओं को अपने साथ लाने में कामयाब हो जायें.
विधान सभा की अनुसूचित आरक्षित 28 सीटों में भाजपा के हिस्से महज एक
यहां याद रहे कि झारखंड की अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित विधान सभा की कुल 28 सीटों में आज के दिन झामुमो और कांग्रेस का कब्जा है. जबकि इसके पहले 2014 के विधान सभा चुनाव में भाजपा के हिस्से कुल 13 सीटें आयी थी, लेकिन जैसे ही भाजपा ने झारखंड के इतिहास में पहली बार किसी गैर आदिवासी को सीएम बना कर आदिवासी राज्य के मिथक को तोड़ा, 2019 के विधान सभा चुनाव में उसका सफाया हो गया.
लोकसभा की 12 सीटों को कमल फहराने की चुनौती या विदाई का रास्ता
हालांकि आज के दिन लोकसभा के अनुसूचित जाति आरक्षित कुल पांच सीटों में से तीन दुमका, खुंटी और लोहरदगा पर भाजपा का कब्जा है, जबकि राजमहल पर झाममो और सिंहभूम पर कांग्रेस का कब्जा है. कुल मिलाकर 14 में से 12 सीटों पर भाजपा और आजसू का झंडा फहर रहा है. बाबूलाल की अग्नि परीक्षा इस झंडे को बरकरार रखने की है, और यदि आंकड़ा 10 से नीचे आता है, तो प्रदेश अध्यक्ष के रुप में उनकी विदाई तय मानी जा रही है. क्योंकि उसके बाद बाबूलाल की साख पर सवाल उठने लगेगा, संगठन और पार्टी के अंदर यह सवाल भी गहराने लगेगा कि जिस धूमधाम से पार्टी के समर्पित चेहरों को किनारा कर सिर्फ इनकी वापसी ही नहीं करवायी गयी, बल्कि पहले विरोधी दल का नेता और बाद में पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेवारी भी सौंपी गयी, उसका हश्र क्या हुआ. सवाल यह भी खड़ा होगा कि जिस चेहरे को लिए रघुवर दास को किनारा किया गया, उसका अंतिम परिणाम क्या निकला.
पार्टी के अंदर की गुटबाजी
यहां ध्यान रहे कि पार्टी का एक धड़ा प्रदेश अध्यक्ष के रुप में मांडु विधायक जेपी के चेहरे को आगे कर महतो मतदाताओं में सेंधमारी की वकालत कर रहा था, लेकिन मुश्किल यह थी कि जेपी पटेल भी खांटी भाजपाई नहीं होकर झामुमो से निकले चेहरे हैं, और इसी आधार पर पार्टी के अंदर उनका विरोध भी हो रहा था, इस बढ़ते विरोध के बीच आलाकमान ने बाबूलाल के चेहरे को आगे कर आदिवासी मतदातों की नाराजगी को दूर करने का फैसला लिया, लेकिन मूल सवाल यही है कि क्या बाबूलाल हेमंत के आगे आदिवासी मतदाताओं को भाजपा के पाले में लाने में कामयाब होंगे? हालांकि बाबूलाल राज्य के सघन दौरे पर जरुर नजर आते हैं, लेकिन माना जाता है कि आज भी संगठन के अंदर उनकी स्वीकार्यता का अभाव है, रघुवर शासन काल के कई चेहरे आज भी बाबूलाल को बाहरी ही मानते हैं, उन्हे इस बात की पीड़ा है कि पार्टी में एक एक कर सभी पदों को बाहरी लोगों से भरा जा रहा है, जबकि उनके हिस्से सिर्फ दरी और कुर्सी बिछाने काम आया है. इस हालत में यदि बाबूलाल आदिवासी मतदाताओं को साधने में सफल हो जाते हैं, तो उनकी राजनीति का परवान चढ़ना तय है, लेकिन यदि असफलता हाथ लगती है, तो प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी गंवाने का खतरा भी मौजूद है.
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