Ranchi-लोकसभा चुनाव में 14 में से 12 सीटों जीत हासिल कर अपने पुराने परफॉर्मेंस को दुहराने की हसरत पाले भाजपा कुर्मी पॉलिटिक्स में पिछड़ती नजर आने लगी है. रामटहल चौधऱी और शैलेन्द्र महतो की झारखंड भाजपा से विदाई के बाद झारखंड भाजपा के सामने कुर्मी मतदाताओं को अपने साथ बनाये रखने की एक गंभीर चुनौती है, और यदि इस चुनौती का मुकाबला करने में भाजपा असफल होती है, तो उसके लिए अपने ही परफॉर्मेंस को दुहराना एक टेढ़ी खीर साबित हो सकता है.
झारखंड में कुर्मी जाति का 16 फीसदी आबादी होने का दावा
यहां ध्यान रहे कि झारखंड में आदिवासियों के 26 फीसदी आबादी के बाद सबसे बड़ी आबादी कुर्मियों की हैं, उसकी आबादी करीबन 16 फीसदी मानी जाती है, हालांकि कुर्मी जाति का दावा 20 फीसदी से उपर होने का है. यदि लोकसभा वार देखने की कोशिश करें तो 14 सीटों में से 5 सीटों पर कुर्मी जाति की बहुलता है. रांची, हजारीबाग, जमशेदपुर, गिरिडीह और धनबाद संसदीय सीट में जीत हार का फैसला कुर्मी मतदाता ही तय करते हैं, इसके साथ ही करीबन आधा दर्जन लोकसभा सीटों पर उनकी मजबूत पकड़ हैं. लेकिन इतनी बड़ी आबादी के बावजूद भी कुर्मी जाति अपनी हिस्सेदारी-भागीदरी के सवाल पर पिछड़ता नजर आता है,
14 में से महज दो सीटों पर ही कुर्मी सांसद
यदि बात हम वर्तमान लोकसभा की करें तो अभी झारखंड से महज दो कुर्मी सांसद है, इसमें एक आजसू कोटे से गिरिडीह संसदीय सीट से चन्द्रप्रकाश चौधऱी तो जमशेदपुर संसदीय सीट से भाजपा के विद्युत बरन महतो का नाम है. मजेदार बात यह है कि इन दोनों में किसी भी चेहरे को मोदी मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली. इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि झारखंड की कुर्मी पॉलिटिक्स को साधने की दिशा में भाजपा केन्द्रीय आलाकमान में कितनी गंभीरता है. यदि विधान सभा में कुर्मी जाति का प्रतिनिधित्व को समझने की कोशिश करें तो विधान सभा की 84 सीटों में से 12 पर उसका प्रतिनिधित्व है. यहां भी कुर्मी जाति अपनी जनसंख्या के अनुपात में हिस्सदारी से पिछड़ती नजर आती है.
विभिन्न पार्टियों में कुर्मी चेहरे
यदि हम विभिन्न पार्टियों में कुर्मी चेहरे को समझने की कोशिश करें तो झामुमो में मथुरा महतो, बेबी देवी (पूर्व शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो की पत्नी), समीर कुमार मोहंती, सविता महतो की मौजूदगी तो जरुर है, लेकिन झारखंड टाईगर जगरनाथ महतो के देहांत के बाद अब मथुरा महतो ही एक मात्र दमदार चेहरा नजर आते हैं, जबकि भाजपा में जेपी पटेल, इन्द्रदेव महतो के साथ ही विद्युत बरन महतो की मौजूदगी है. लेकिन इसमें कोई भी चेहरा जगनाथ महतो और मथुरा महतो की कद काठी का नजर नहीं आता.
कुर्मी जाति पर आजसू की मजबूत पकड़
इसके ठीक उलट आजसू की स्थिति है, यह पूरी पार्टी ही कुर्मी बेस्ट मानी जाती है, और सुदेश महतो इसका सबसे दमदार चेहरा है, कहा जा सकता है कि झारखंड की पूरी कुर्मी पॉलिटिक्स सुदेश महतो के इर्द गिर्द ही घुमती है, लेकिन इतनी बड़ी आबादी का प्रतनिधित्व करने का दावा करने के बावजूद सुदेश महतो का सियासी सितारा मंझधार में ही फंसा नजर आता है, क्योंकि जिस प्रकार आजसू के द्वारा भाजपा के छोटा भाई की भूमिका को स्वीकार किया गया है, उस हालत में उनका खुद के बल पर सत्ता के इर्ग गिर्द भी खड़ा होना मुश्किल नजर आता है. और तो और आजसू खूद के बूते एक बड़ी जमात को अपने साथ खड़ा करने की कवायद करती भी नजर नहीं आती. आजसू की पूरी भाजपा के छोटा भाई की भूमिका को स्वीकार कर महज चंद सीटों पर विजय पताका फहरा कर सत्ता में आंशिक हिस्सेदारी की है.
भाजपा के अंदर कुर्मी नेताओं का संघर्ष
लेकिन यहां सवाल भाजपा का है, आज भी भाजपा में कुर्मी जाति के तमाम चेहरे संघर्ष करते नजर आते हैं, हालांकि बीच में जेपी पटेल प्रदेश अध्यक्ष बनाने की चर्चा जरुर शुरु हुई थी, लेकिन एन वक्त पर भाजपा आलाकमान ने अपना हाथ पीछे खिंच और बाबूलाल को आगे कर झामुमो के आदिवासी मतों में सेंधमारी का प्लान तैयार किया, हालांकि बाबूलाल और भाजपा की यह हसरत कितना रंग लायेगा, यह पहाड़ सा सवाल है. अभी इसकी अग्नि परीक्षा होना बाकी है. लेकिन इतना तय है कि रामटहल चौधरी की विदाई के बाद झारखंड भाजपा में कोई बड़ा चेहरा नहीं है. जिस विद्युत बरन महतो को आगे कर इस कमी को पूरी करने की कोशिश की जा सकती थी, वह खुद ही भाजपा के अंदर संघर्ष करते ही नजर आते हैं, हालांकि इस बीच भाजपा ने पूर्व सांसद और एक जमाने में कुर्मी पॉलिटिक्स का सबसे मजबूत चेहरा शैलेन्द्र महतो का पार्टी में पुनर्वापसी जरुर करवाया है, लेकिन शैलेन्द्र महतो लम्बे समय से राजनीति की मुख्य धारा से दूर खड़े थें, इस हालत में उनके अंदर अब कितनी सियासी कुब्बत जमा शेष है, वह देखने वाली बात होगी. हालांकि आज कुर्मी पॉलिटिक्स में भाजपा पूरी तरह से आजसू पर निर्भर है, लेकिन राजनीति संभावनाओं के खेल हैं, और यहां कब कौन सा खेला हो जाये, इसका समय से पहले सटीक आकलन जोखिम भरा काम है. इस हालत में आजसू पर भाजपा की यह निर्भरता एक जोखिम भरा फैसला है, और वह विधान सभा में उसका हश्र देख चुकी है.
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