Ranchi-सरकार के चार वर्ष पूरे होने के जश्न में सीएम हेमंत ने राज्य की 28 फीसदी आबादी वाले अनुसूचित जनजाति और 12 फीसदी की आबादी वाले दलितों के लिए अपनी तिजोरी का ताला खोल दिया है. सरकार ने लोकसभा चुनाव के ठीक पहले अपना ट्रंप कार्ड खेलते हुए दलित-आदिवासी समुदाय आने वाले हर उस शख्स को वृद्धा पेंशन देने का एलान किया है, जिनकी उम्र पचास या पचास से पार हो चुकी है. निश्चित रुप से सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से यह हेंमत सरकार का बड़ा फैसला है, लेकिन मूल सवाल यह है कि क्या सरकार की वित्तीय हालत इस फैसले की अनुमति देती है. एक आकलन के अनुसार इस फैसले के बाद राज्य सरकार की तिजोरी पर करीबन 9 सौ करोड़ का अतिरिक्त बोझ पड़ने वाला है.
हेमंत सरकार ने पेंशनधारियों की संख्या में करीबन 200 फीसदी की वृद्धि
और यह सिर्फ दलित-आदिवासियों के लिए पेंशन की उम्र कम करने का मामला नहीं है, सरकार पहले ही पेंशनधारियों की संख्या में करीबन 200 फीसदी की वृद्धि कर चुकी है. खुद सीएम हेमंत ने अपने संबोधन में इस बात का दावा किया है कि उनकी पूर्ववर्ती सरकारों ने पिछले 20 साल में महज 16 लाख लोगों को पेंशन उपलब्ध करवाया था, जबकि आज करीबन 36.20 लाख लोगों को इसका लाभ दिया जा रहा है, आज पूरे झारखंड में कोई भी ऐसा शख्स नहीं है, जो पात्रता पूरी करने के बावजूद पेंशन का लाभ नहीं ले रहा हो, जबकि उनकी पूर्ववर्ती सरकारों में इस पेंशन के लिए लोगों के चप्पल घिस जाते थें.
पेंशनधारियों की संख्या में करीबन 9 लाख की अतिरिक्त वृद्धि संभव
लेकिन अब एक और कदम उठाते हुए पेंशनधारियों की उम्र सीमा को भी घटाने का एलान कर दिया गया. इसके बाद करीबन नौ लाख अतिरिक्त लोगों को इसका लाभ मिलेगा. इस प्रकार 36.20 लाख की यह संख्या बढ़कर करीबन 45.20 लाख तक पहुंच जायेगी. इस हालत में बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि क्या झारखंड की आर्थिक सेहत इस फैसले की अनुमति देती है. क्या सरकार सामाजिक सुरक्षा के नाम पर इस भारी भरकम खर्च को वहन करने की स्थिति में है, या इस भारी भरकम राशि की पूर्ति के लिए दूसरे अन्य जरुरी योजनाओं पर कैंची चलायी जायेगी, और खास कर वैसी योजनाएं जिनका संबंध आधारभूत संरचना के निर्माण, शिक्षा और स्वास्थ्य से है.
पेंशन तो बहाना दलित-आदिवासी मतों का ध्रुवीकरण पर निशाना
लेकिन इसके साथ ही यह सवाल भी खड़ा होता है कि आखिर सीएम हेमंत ने इस योजना की शुरुआत कर किस सियासत को साधने की कोशिश की है, तो इसके लिए हमें पिछले चुनाव के नतीजों को समझना होगा, झारखंड की कुल 81 विधान सभा में से 28 सीटें अनुसूचित जनजाति और नौ सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है, अनुसूचित जनजाति की कुल 28 सीटों पर एकमुस्त रुप से झामुमो और उसके सहयोगी दलों का परचम लहराया, लेकिन अनुसूचित जाति की कुल नौ सीटों में से छह पर भाजपा कमल खिलाने में सफल रही और यह हालत तब है कि झामुमो को आदिवासी दलितों की पार्टी मानी जाती है, और यहीं से दलित-आदिवासियो को एक साथ सियासी संदेश देने की रणनीति तैयार की गयी.
पूरे देश में 131 लोकसभा की सीटें आदिवासी-दलित समुदाय के लिए आरक्षित
इस घोषणा को समझने के लिए सीएम हेमंत के उस भाषण को भी समझना बेहद जरुरी है, जो उन्होंने 26 नवंबर के अपने संबोधन में दिया था, तब उन्होंने कहा था कि पूरे देश में 131 सीटें आदिवासी दलितों के लिए आरक्षित हैं, यदि पूरे देश में दलित-आदिवासी एक साथ खड़ा हो जाय तो इस देश की सियासत के साथ ही उसकी तस्वीर भी बदल सकती है. तो क्या सीएम हेमंत इस देश की सियासत और उसके नब्ज को समझ चुके हैं, क्योंकि यही काम तो भाजपा पांच किलो राशन का जुगाड़ कर कर रही है, और यदि भाजपा का वह कदम गरीबों के उत्थान का हिस्सा है, तो हेमंत सोरेन की यह कोशिश चुनावी पहल कैसे हो गयी? हालांकि यदि हम झामुमो की पूरी सियासत को समझने की कोशिश करें तो वह दलित पिछड़ों के साथ ही आदिवासी समाज को एक साथ खड़ा कर एक बड़ा वोट बैंक बनाने की तैयारी में है. सरना धर्म कोड, 1932 का खतियान, पिछड़ों का आरक्षण विस्तार और अब सामाजिक सुरक्षा का बढ़ता यह दायरा उसी दिशा में उठाया गया कदम है.
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