Ranchi-14 वर्षों के सियासी वनवास के बाद झामुमो कांग्रेस के जिस किले को ध्वस्त करने के मकसद से पूर्व सीएम बाबूलाल का भाजपा में वापसी करवायी गयी थी. आहिस्ता आहिस्ता ही सही, लेकिन बेहद सधे चाल के साथ बाबूलाल उस मंजिल की ओर बढ़ते नजर आ रहे हैं, महागठबंधन का अभेद किला कोल्हान, जहां आज भी झामुमो का डंका बजता है, 13 विधान सभा में से 10 पर झामुमो का कब्जा है, तो दो पर कांग्रेस अपना परचम फहरा रही है, एक सीट सरयू राय के पास, जबकि भाजपा के हिस्से पसरा है नील बट्टे सन्नाटा. बाबूलाल ने उसी कोल्हान से सांसद गीता कोड़ा को भाजपा के पाले में खड़ा कर इस बात की तस्दीक कर दी कि दिल्ली आलकमान के द्वारा उन पर जो जिम्मेवारी सौंपी गयी थी, वह उस टास्क को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.
बागी विधायकों में उलझी रही ठाकुर और मीर की जोड़ी, इधर बाबूलाल ने ऑपेरशन कमल को दे दिया अंजाम
एक तरफ जहां कांग्रेस प्रभारी मीर और प्रदेश अध्यक्ष ठाकुर अपने बागी विधायकों को मनाने की कवायद में लगे थें, राजधानी रांची से लेकर दिल्ली तक रुठने-मनाने का खेल चल रहा था, वहीं दूसरी तरफ बाबूलाल लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कोल्हान में अपने ऑपेरशन को अंजाम दे रहे थें. ध्य़ान रहे कि बाबूलाल ने इस सियासी करिश्मा को अंजाम तब दिया है, जब खुद सीएम चंपाई उसी कोल्हान से आते हैं. मंत्री बन्ना गुप्ता भी उसी कोल्हान का हिस्सा हैं, लेकिन इसकी भनक तक किसी को नहीं लगी और यदि बन्ना गुप्ता को इसकी भनक होगी भी तो उनकी पहली प्राथमिकता अपनी कुर्सी बचाने की थी, जो किसी भी पल बागी विधायकों की भेंट चढ़ता नजर आ रहा था. खबर तो यह भी है कि यदि बन्ना गुप्ता से मंत्री पद की कुर्सी छीनने नौबत आती तो वह खुद भी गच्चा देने का मन बना चुके थें. यानि कांग्रेस के अंदर चौतरफा आग लगी हुई है. मीर और ठाकुर की यह जोड़ी इस आग पर काबू पाने के बजाय सब कुछ हालात पर छोड़ते नजर आ रहे हैं, और बहुत ही तरीके इस असफलता को सफाई अभिय़ान का हिस्सा बताया जा रहा है, गीता कोड़ा को पार्टी छोड़ने पर राजेश ठाकुर की प्रतिक्रिया थी कि वह बुनियादी रुप से कांग्रेस का हिस्सा नहीं थी, एक बाहरी चेहरा थी, लेकिन सवाल तो यह है कि झारखंड में अब खांटी कांग्रेसी है कौन खुद राजेश ठाकुर किस श्रेणी में आते हैं.
यहां याद रहे कि जब प्रदेश अध्यक्ष का कमान संभालने के बाद करीबन एक वर्ष तक बाबूलाल ने अपनी कमेटी का गठन नहीं किया था, तब उन पर इस बात का ताना मारा जा रहा था कि वह झारखंड में भाजपा को स्थापित करने के बजाय खुद भाजपा में स्थापित होने की कोशिश कुछ ज्यादा ही कर रहे हैं, और यही कारण है कि उनके द्वारा वर्तमान कमेटी से छेड़छाड़ नहीं किया जा रहा है, लेकिन जैसे ही रघुवर दास को राज्यपाल की जिम्मेवारी सौंप कर झारखंड की सियासत से दूर करने का सीधा संकेत दिया गया, बाबूलाल अपने रंग में दिखने लगें. और उन्होंने अपना पहला शिकार कर लिया.
धनबाद में बाबूलाल कर सकते है अपना दूसरा शिकार
लेकिन सवाल यह है कि क्या बाबूलाल का अंतिम शिकार है, या इसके ऑपरेशन को अंजाम देने के साथ ही बाबूलाल किसी और ऑपरेशन की ओर निकल पड़े हैं. खबर यह है कि बाबूलाल की नजर कांग्रेस झामुमो के कई विधायकों के साथ ही संताल की सीता पर भी बनी हुई है. दावा किया जा रहा है कि बाबूलाल इस मिशन के बेहद करीब पहुंच चुके हैं. लेकिन सीता का विकेट गिराने के पहले वह धनबाद की सियासत में एक बड़ा उलटफेर करने जा रहे हैं और इसके लिए लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा का इंतजार किया जा रहा है. जैसे ही लोकसभा चुनाव की घोषणा होती है, और इंडिया गठबंधन के द्वारा उम्मीदवारों का एलान होता है. और उस सूची में उस चेहरे का नाम नहीं होता है, खेल हो सकता है. हालांकि इसके समानान्तर भी एक पटकथा लिखी जा चुकी है, इंतजार भाजपा की सूची का भी किया जा रहा है, और कोशिश की जा रही है कि भाजपा ही इस चेहरे को अपना चुनावी चिह्न प्रदान करने की घोषणा कर दें. जैसे ही दिल्ली से यह संकेत मिला और पार्टी को अपना त्यागपत्र भेज दिया जायेगा, और इसके साथ कांग्रेस पर वंशवाद की राजनीति और तुष्टीकरण का पुराना आरोप चस्पा किया जायेगा. वह चेहरा आज भी इस बात को डंके की चोट पर कह रहा है कि जिस तरह सियासी पार्टियों को अपना भविष्य देखने और संवारने का हक है, ठीक उसी प्रकार हमें भी अपना खुशहाल भविष्य देखने का हक है. हम भी इस बात को सुनिश्चित करेंगे कि हमारा सियासी भविष्य किस दल में सुरक्षित और उज्जवल नजर आता है. आप चाहें तो इसे खुले आम बगावत भी मान सकते हैं. यह चेतावनी भी समझ सकते हैं कि यदि धनबाद का टिकट हाथ नहीं आया तो हमारे लिए दूसरे दरवाजे भी खुले हैं. यहां सवाल राजनीतिक और वैचारिक प्रतिबद्धता का नहीं है, सवाल सियासी सहूलियत की है. जिस तरह कांग्रेस राजनीतिक और वैचारिक प्रतिबद्धता के बजाय सिर्फ जीत और हार की संभावना को टिकट वितरण का आधार बनाती है, आज उसके विधायक भी उसी रास्ते निकल पड़े हैं. रहा सवाल कोल्हान की गीता के बाद संताल की सीता की, तो दावा किया जाता है कि बाबूलाल इस ऑपेरशन के बेहद करीब खड़े हैं, सिर्फ इसके लिए मुफीद समय और सियासी परिस्थितियों का इंतजार किया जा रहा है, और शायद लोकसभा चुनाव के बाद यह परिस्थिति सामने आ खड़ी हो.
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