TNP DESK-वर्ष 2023 की विदाई हो गयी, लेकिन कई खट्टी-मिट्टी यादें साथ छोड़ गयी, इसी में से एक है कांग्रेस कोटे से राज्यसभा सांसद धीरज साहू के खजाने से होने वाली रुपये की बारिश, और यह राशि कोई दस बीस करोड़ की नहीं थी, पूरे के पूरे 350 करोड़ रुपये का य़ह ढेर देख झारखंडियों की आंखों के सामने अंधेरा छा गया था, उनकी आंखें चौंधिया गयी थी.
झारखंड की फटेहाली पर 350 करोड़ का ढेर
कहां झारखंड की फटेहारी, गरीबी कुपोषण, बेबसी, पलायन और कहां एक ही परिवार के खजाने से 350 करोड़ की बरामदगी. और इसके साथ ही यह सवाल भी खड़ा होने लगा कि यदि झारखंड में इतना ही पैसा है, रुपये की अकूत बरसात है, तो आम झारखंडियों के बीच यह फटेहाली-बदहाली क्यों हैं? जब एक तरफ तिजोरियों में पांच-पांच सौ करोड़ की विशाल राशि सड़ रही है, नोट एक दूसरे से चिपक रहे हैं, एक दूसरे का साथ छोड़ने को तैयार नहीं है. नोटों को दीमक चाट रहा है, तो दूसरी तरफ सीएम हेमंत को आदिवासी-दलितों को पचास वर्ष की भरी जवानी में ही वृद्धा पेंशन देने का एलान करना पड़ रहा है, 36 लाख परिवारों को पांच-पांच किलो का राशन देनी पड़ रही है.
क्या है इस परिवार का बिहार के कोबरा से रिश्ता
लेकिन क्या आप जानते ही कि इस धन कुबरे का बिहार से क्या रिश्ता है. और किस चाहत में इनके पूर्वजों ने बिहार को छोड़कर झारखंड में आदिवासियों के बीच अपना ठिकाना बसाया था. आपको जानकर हैरत होगी कि धीरज साहू की जड़ें भी बिहार से जुड़ी है, इनका पैतृक आवास औरंगाबाद जिले के ओबरा में है. अंग्रेजी शासनकाल में इनके दादा हीरा साहू के सामने भी अपने व्यवसाय को खड़ा करने की चुनौती थी, आम बिहारियों के समान उनके सामने भी गुरबत का पहाड़ खड़ा था. पूरे परिवार को इस गुरबत से बाहर निकलने ले लिए रास्ते की तलाश थी और इसी रास्ते की खोज में धीरज साहू के दादा हीरा साहू ने शेरघाटी के रास्ते लोहरदगा आने का फैसला किया और भोले भाले आदिवासियों के बीच अपना ठिकाना बनाया.
चावल धान की खरीद बिक्री से हुई जिंदगी की शुरुआत
याद रहे कि 1833 में अंग्रेजों ने लोहरदगा को साउथ वेस्ट फ्रंटियर एजेंसी का मुख्यालय बनाया था. तब महारानी विक्टोरिया के नाम पर लोहरदगा में एक तालाब खुदवाया गया था, जिसे आज भी लोहरदगा में विक्टोरिया तालाब के नाम से जाना जाता है, हीरा साहू ने इसी तालाब के करीब अपना बसेरा बसाया, और बेहद छोटे स्तर से धान चावल की खरीद-बिक्री की शुरु की. नमक, मसाला, तेल बेचना शुरु किया, और धीरे-धीरे यह व्यवसाय चल निकला. जैसे-तैसे दो जून की रोटी की व्यवस्था होने लगी.
बलदेव साहू ने धान चावल से आगे बढ़ दारु के धंधे में किस्मत आजमाने का किया फैसला
लेकिन वक्त के साथ उनकी उम्र बढ़ती गयी और इधर उनका पुत्र बलदेव साहू व्यवसाय को संभालने लगें, बलदेव साहू ने इस व्यसाय को और भी विस्तार देने का फैसला किया, उनकी नजर आदिवासी समाज में दारू और हड़िया के व्यसन पर पड़ी, पारखी आंखों को समझते देर नहीं लगी कि यदि दारु हड़िया का व्यवसाय खड़ा किया जाय तो बेहद कम समय में रुपये की बरसात की जा सकती है. और फिर वही हुआ, चावल-धान की बिक्री खरीद से आगे निकल कच्ची शराब की भट्ठी खोली, और इसके साथ ही इस परिवार पर रुपये की बारिश होने लगी. देखते देखते इस परिवार का सियासी रसूख कायम होता गया. और वर्ष 1888 का वह दौर आया कि बलदेव साहू लोहरदगा नगरपालिका के चेयरमैन बन बैठें. बलदेव साहू के बाद इनके छह बेटों ने इस दारु के धंधों को और भी विस्तार दिया, अब वे झारखंड की सीमा से आगे बढ़कर ओड़िशा के बलांगिर, सुंदरगढ़, बौध और संबलपुर जिला में शराब का अपना साम्राज्य स्थापित कर चुके थें, जैसे-जैसे मां लक्ष्मी की कृपा बरसती गयी, सियासत में इस परिवार का दखल बढ़ता गया, समाजसेवी से लेकर राजनेता तक सभी तमगे एक साथ इस परिवार के साथ खड़े होते गयें.
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