Ranchi-महागठबंधन को बॉय-बॉय कर भाजपा के साथ सरकार बनाने के बाद बिहार में मचा सियासी भूचाल थमने का नाम नहीं ले रहा. 28 मार्च के बाद बिहार की सियासत में एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरा, जब राजनीति का एक बदलता रंग सामने नहीं आया हो. और यह बेचैनी सिर्फ विपक्ष के खेमे में ही नहीं है, सत्ता पक्ष की बेचैनी और सियासी दुविधा भी कुछ कम नहीं है. विद्रोह, बगावत और टूट सिर्फ राजद और कांग्रेस खेमे में ही नहीं है, खुद जदयू एक बड़ी टूट की ओर बढ़ती दिख रही है. सीएम नीतीश के सामने पसरे सियासी संकट का अंदाजा इसके लगाया जा सकता है कि 28 जनवरी को शपथ ग्रहण और उसके बाद सत्ता के पहरे में अपना बहुमत साबित करने के बावजूद भी वह अपने मंत्रिमंडल का विस्तार को जोखिम नहीं ले पा रहे हैं. दावा किया जाता है कि जैसे ही मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ, जदयू में बगावत के साथ ही जीतन राम मांझी कोई नया पेंच फंसा सकते हैं.
बहुमत साबित करने में छूट गये थे पसीने
यहां याद रहे कि जिस पाला बदल के बाद बहुमत साबित करना महज एक औपचारिकता मानी जा रही थी. जदयू और भाजपा में बगावत की लहर देख सीएम नीतीश के हाथ से तोते उड़ते नजर आये थें. दावा किया जाता है कि तब इसकी कमान खुद अमित शाह ने संभाली थी, पूरी रात जग कर भाजपा और जदयू के विधायकों की पहरेदारी की गयी, कई विधायकों के उपर तो मामला भी दर्ज करवाया गया, तो कई विधायकों को लगभग बंधक की स्थिति में विधान सभा में लाया गया. कुल मिलाकर यदि सत्ता हाथ में नहीं होती, तो खेल उसी दिन ही खत्म हो गया था. हालांकि टूट राजद और कांग्रेस में भी हुई, लेकिन यह भी सत्ता की हनक का नतीजा था.
सवाल संख्या बल की नहीं, भाजपा की नियत का है
लेकिन मुसीबत सिर्फ संख्या बल की नहीं है, उसकी कमी तो राजद और कांग्रेस में एक फूट का अंजाम देकर पूरा किया जा सकता है, और जब तक विधान सभा का कार्यकाल बेहद नजदीक नहीं आ जाता, जदयू और भाजपा में भी किसी बड़ी टूट को टाला जा सकता है, हालांकि इस बीच लोकसभा का टिकट के नाम पर तेजस्वी जरुर कुछ खेल कर सकते हैं, लेकिन इससे बड़ा खेल लोकसभा चुनाव होने की संभावना है.लेकिन बड़ा सवाल तो सीएम नीतीश की उस सियासी महत्वकांक्षा का है,जिस महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए सीएम नीतीश ने महागठबंधन के नाता तोड़ा था. खबर है कि भाजपा अब सीएम नीतीश की उसी महत्वाकांक्षा का कत्ल करने पर उतारु है, सीएम नीतीश हर दिन उस पल का इंतजार कर रहे हैं. जब भाजपा आलाकमान की ओर से विधान सभा भंग करने की हरी झंडी दिखलायी जायेगी, और इसी इंतजार में बार-बार मंत्रिमंडल विस्तार को टाला जा रहा है. अब खबर है कि एक तरफ विधान सभा भंग करने से इंकार तो दूसरी तरफ राजद कांग्रेस के खिलाफ भाजपा का ऑपेरशन लोटस से सीएम नीतीश के कान खड़े हो गयें हैं. जदयू के रणनीतिकारों में इस बात की आशंका घनीभूत होती जा रही है कि आज जो ऑपरेशन लोटस राजद कांग्रेस के खिलाफ चलाया जा रहा है, जैसे ही भाजपा 100 का आंकड़ा पार करती है, यही ऑपरेशन लोटस जदयू के खिलाफ खेला जा सकता है, और दावा किया जाता है कि इस बार भाजपा की रणनीति जदयू के तमाम सवर्ण विधायकों को अपने पाले में लाने की है, जिसकी संख्या करीबन 15 आंकी जा रही है, और जैसे ही इस ऑपरेशन को अंजाम दिया जायेगा, भाजपा खुद अपने बूते सरकार बनाने की स्थिति में आ खड़ी होगी, वैसे भी आज विधान सभा अध्यक्ष की कुर्सी भाजपा के पास है. जिस प्रकार महाराष्ट्र में विधान सभा अध्यक्ष को आगे कर तमाम दल बदल को अंजाम दे दिया गया, कोर्ट दर कोर्ट दल बदल का मामला फंसा रहा, बिहार में भी भाजपा वही खेल कर सकती है.और यही वह सियासी चाल है, जिसमें आज सीएम नीतीश अपने आप को भाजपा के चक्रव्यूह में फंसे दिखलायी दे रहे हैं. कहा जा सकता है कि अपने 18 वर्षों के सियासी जीवन में नीतीश कुमार ऐसा सियासी संकट कभी नहीं आयी था. उनकी पहचान को अपने हिसाब से सरकार को हांकने और पलटी मारने की रही है, लेकिन इस बार की उनकी पांचवीं पलटी उनकी पूरी सियासत को खत्म करने पर आमादा है, भाजपा के कुचक्र में वह इस तरह फंस जायेंगे, इसकी तो कल्पना भी उनके सियासी रणनीतिकारों ने नहीं की थी.
लोकसभा चुनाव के बाद विधान सभा भंग करने पर फिर से ऑपेरशन चिराग का खतरा
यहां याद रहे कि यदि एक बार लोकसभा चुनाव की घोषणा हो जाती है, उसके बाद विधान सभा भंग करने का कोई मतलब नहीं रह जायेगा, उस हालत में लोकसभा चुनाव के साथ विधान सभा का चुनाव करवाना संभव नहीं होगा, दूसरी तरह विधान परिषद के चुनावों की घोषणा ने भी सीएम नीतीश के कान खड़े कर दिये हैं, उन्हे पता है कि यदि एक बार लोकसभा चुनाव संपन्न हो जाता है, उसके बाद पीएम मोदी के लिए उनका कोई सियासी महत्व रह नहीं जायेगा, वह रद्दी की टोकरी में फेंके जाने को अभिशप्त हो जायेंगे. और यदि उसके बाद विधान सभा का चुनाव हुआ भी तो ऑपेरशन चिराग का एक नया मॉडल उनके सामने नहीं खडा होगा, इसकी क्या गारंटी है.
नीतीश के मन में कुछ तो चल रहा है?
और यही वह राजनीतिक परिस्थितियां हैं, जिसके आधार पर यह दावा किया जा रहा है कि नीतीश के मन में कुछ चल रहा है, इस बीच खबर है राजद नेता भाई बिरेन्द्र के साथ उनकी मुलाकात हुई है, इसके पहले एक पब्लिक फंक्सन में राजद सुप्रीमो लालू यादव से भी उनकी मुलाकात हो चुकी है. तो क्या यह माना जाय कि उसी अधूरे संवाद को पूरा करने के लिए भाई बिरेन्द्र ने सीएम नीतीश से मुलाकात की है, इस खबर को और भी बल तब मिलता है, कल सीएम नीतीश के जन्म दिन पर भतीजा तेजस्वी उनके दीर्घायु होने की कामना करते है. और उधर लालू कहते हैं कि नीतीश के लिए उनके दरवाजे आज भी खुले हैं.
नीतीश के पास विकल्प क्या है?
इस हालत में यह सवाल खड़ा होता है कि अब नीतीश के पास विकल्प क्या है? या तो वह भाजपा के साथ रहकर जदयू में एक बड़ी टूट का इंतजार करें. 18 वर्षों से अपनी अविराम यात्रा को विराम देकर सम्राट चौधरी के लिए मार्ग प्रशस्त करें, बिहार में पहली बार भाजपा को अपना सीएम बनाने दें या फिर एक बार फिर से भतेजी तेस्जवी के साथ खड़ा होकर सियासत का एक और रंग सामने रखे, यहां याद रहे कि कल ही प्रधान मंत्री मोदी का बिहार में दो दो कार्यक्रम है, लेकिन खबर यह है कि इसमें से किसी भी कार्यक्रम में नीतीश कुमार शिरकत नहीं करने जा रहे. इसका क्या अभिप्राय निकाला जाये, तो क्या यह माना जाये कि जैसे ही तीन मार्च को भतीजे तेजस्वी का जनसैलाब पटना की सड़कों पर उतरेगा. अरविंद केजरीवाल, राहुल गांधी, ममता बनर्जी से लेकर उनके पुराने इंडिया गठबंधन के सारे साथी मंच पर विराजमान होंगे, सीएम नीतीश भी अपने भतीजे को याद करते हुए उसी मंच की ओर प्रस्थान करेंगे? कहा कुछ भी नहीं जा सकता, क्योंकि बिहार में एक कहावत बड़ा प्रसिद्ध है कि नीतीश को समझना मुश्किल नहीं नामुमकीन भी है. और यही अबूझ पहेली नीतीश की जमा पूंजी और उनकी अब तक की सफलता का राज है.
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