Ranchi-इंडिया गठबंधन की तमाम कोशिश और रणनीति के बावजूद झारखंड में भाजपा के साथ उसका आमने-सामने का मुकाबला होता नजर नहीं आ रहा. कोडरमा, राजमहल और लोरहदगा के बाद अब चतरा में भी त्रिकोणीय-बहुकोणीय मुकाबले के आसार बनते नजर आ रहे हैं. भाजपा प्रत्याशी कालीचरण और कांग्रेसी उम्मीदवार के.एन त्रिपाठी के बाद अब पूर्व मंत्री और चतरा से सांसद रहे नागमणि भी अखाड़े में उतरने की तैयारी में हैं. हालांकि इस बार नागमणि ने लालटेन को छोड़ हाथी की सवारी करने का फैसला किया है. और इसकी वजह राजद में गिरिनाथ सिंह की इंट्री है. दावा किया जाता है कि गिरिनाथ सिंह की इंट्री के साथ ही नागमणि बसपा के साथ सम्पर्क में थें और आखिकार बसपा सुप्रीमो बहन मायावती से हरी झंडी मिल गयी.
वर्ष 1999 में चतरा से बने थें सांसद
यहां याद रहे कि नागमणि इसके पहले वर्ष 1999 में राजद के चुनाव चिह्न पर निर्वाचित हुए थें. उसके बाद कई पार्टी बदली और अब हाथी की सवारी की खबर सामने आ रही है. वैसे चतरा लोकसभा सीट पर बसपा की कोई मजबूत सियासी पकड़ नहीं रही है. लेकिन इस चतरा में पिछड़ा, दलित और आदिदवासी समाज की की एक बड़ी संख्या है. एक अनुमान के अनुसार चतरा में दलित-27 फीसदी, आदिवासी-22 फीसदी, मुस्लिम-11 फीसदी के आसपास है. इसके साथ ही करीबन 30-फीसदी आबादी पिछड़ी जातियों की मानी जाती है. यानि दलित-पिछड़ा, आदिवासी-अल्पसंख्यकों की आबादी करीबन 80 फीसदी से उपर है और यही कारण है कि चतरा को पिछड़े-दलित जातियों के लिए सबसे मुफीद सीट मानी जाती है. लेकिन 2014 और 2019 के मोदी लहर में भाजपा के सुनील कुमार सिंह को लगातार सफलता हाथ लगी. इस बार जैसे ही नाराजगी की खबर सामने आयी. बाहरी-भीतरी की नारा बुंलद होता नजर आया. भाजपा ने स्थानीय चेहरा कालीचरण सिंह को मैदान में उतारने का एलान कर दिया. दूसरी ओर कांग्रेस ने पलामू से के.एन त्रिपाठी को लाकर मुकाबले में खड़ा करने की कोशिश की. इस प्रकार इस आदिवासी-दलित-पिछड़ा बहुल सीट पर दोनों ही गठबंधनों की ओर से सवर्ण चेहरे पर दांव लगाया गया है और इसका विरोध भी जमीन पर देखने को मिल रहा है.
उलगुलान रैली में के.एन त्रिपाठी की उम्मीदवारी का विरोध
इस विरोध की झलक रांची में आयोजित उलगुलान रैली के दौरान भी देखने को मिली. एक तरफ नेताओं का भाषण चलता रहा और दूसरी तरफ के.एन त्रिपाठी की खिलाफ नारेबाजी होती रही और मारपीट भी नौबत भी आ गयी, आखिरकार मुकदमा भी दर्ज हुआ. इस हालत में नागमणि की इंट्री दोनों ही गठबंधनों के लिए एक नया सिर दर्द साबित हो सकता है. यदि दलित-पिछड़ों की व्यापक गोलबंदी नहीं भी होती है और नागमणि अपने चेहरे के सहारे सिर्फ कुशवाहा वोट के साथ बसपा के आधार वोट को भी साध जाते हैं, तो यह स्थिति भी दोनों गठबंधनों की नींद उड़ा सकती है. हालांकि स्थानीय चेहरा देने के कारण भाजपा राहत की स्थिति में जरुर होगी, लेकिन मुख्य चुनौती कांग्रेस के सामने खड़ी हो सकती है.
नागमणि पर भी बाहरी होने का ठप्पा
वैसे नागमणि के उपर भी के.एन त्रिपाठी के समान ही बाहरी होने का ठप्पा है. इस हालत में देखना होगा कि पिछड़ा चेहरा होने के बावजूद स्वीकार्यता किस हद तक होती है. दलित-पिछड़ों की गोलबंदी इस पिछड़े चेहरे के साथ होती है या स्थानीय चेहरा होने के कारण कालीचरण पसंद बनते हैं. या फिर 1999 के समान एक बार फिर से नागमणि विश्वास जितने में सफल होते हैं, यानि दो सवर्ण चेहरे के बीच अपनी राह बनाने में कामयाब होते हैं. यहां यह भी याद रहे कि वर्ष 2009 में बसपा को करीबन 3 फीसदी वोट मिला था, यदि इसके साथ कोयरी-कुशवाहा वोट भी जुटता है तो यह आंकड़ा 10 फीसदी तक जाता दिखता है और यह आंकड़ा भी दोनों गठबंधनों की नींद उडाने के लिए प्रर्याप्त है.
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