Ranchi-2019 के विधान सभा चुनाव में जब प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता अपने उफान पर थी, उनकी रैलियों के शोर में यह माना जा रहा था कि झामुमो इस बार कहीं ठहरने वाली नहीं है, तात्कालिक सीएम रघुवर दास डबल इंजन के के फायदे गिनवाने में मशगूल थें. आत्मविश्वास और आत्ममुग्धता की हालत यह थी कि वह अपने ही कैबिनेट मंत्री सरयू राय से किनारा कर चुके थें, आजसू जो उस वक्त भी भाजपा की सहयोगी थी, लेकिन पीएम मोदी के चेहरे के आगे रघुवर दास आजसू प्रमुख सुदेश महतो को भी घास डालने को तैयार नहीं थे. वह जमीन से उठते उस शोर को सुनने को तैयार ही नहीं थें, जहां युवाओं में ‘हेमंत है तो हिम्मत है का नारा चल रहा था “ लेकिन जब चुनाव परिणाम आया तो उनके पैरों तले जमीन खिसक चुकी थी.
संघ परिवार की मजबूत मौजूदगी के बावजूद आदिवासी समाज ने किया किनारा
पहली बार किसी गैर आदिवासी चेहरे को सीएम बनाने वाली भाजपा ने इसकी कल्पना भी नहीं की थी कि आदिवासी सुरक्षित 28 सीटों से उसका एकतरफा सफाया हो जायेगा. संघ परिवार और उसकी दूसरी इकाईयों के विभिन्न प्रयोगों से आदिवासी समुदाय में अपनी मजबूत पकड़ का दावा करने वाली भाजपा के लिए इसकी कल्पना करना भी मुश्किल था कि उसका यह प्रयोग कितना घातक होने वाला है, जिस आदिवासी समुदाय को वह अब तक धर्मांतरित और अधर्मांतरित के नाम पर बांटने का ख्वाब पाल रही थी, जब बात उसकी पहचान पर आयी तो उसके अंदर के सारे विभेद मिट चुके थें.
क्या इतना आसान था हेमंत का संघर्ष
लेकिन क्या यह सब कुछ इतना आसान और एकतरफा था, क्या हेमंत सोरेन को यह कुर्सी महज इसलिए मिल गयी थी कि भाजपा ने एक गैर आदिवासी चेहरे को सामने कर उनके साथ सामाजिक रुप से छल किया था. तो याद कीजिये, 2014 का विधान सभा चुनाव परिणाम और उसके बाद रघुवर दास को पहला गैर आदिवासी सीएम के रुप से ताजपोशी के बाद हेमंत सोरेन की पहली प्रतिक्रिया, तब हेमंत ने बेहद शालीनता के साथ इसे स्वीकार करते हुए कहा था कि ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि सिर्फ आदिवासी ही सीएम बने, इस कुर्सी के लिए सबों के दरवाजे खुले हैं, और उनके इस बयान के बाद हेमंत सोरेन की सामाजिक स्वीकार्यता में वृद्धि हुई, अब वे सिर्फ एक आदिवासी चेहरा नहीं थें, इसके उलट वह आदिवासी-मूलवासी समाज की आवाज बन कर सामने आये थें, उन्होंने अपनी स्वीकार्यता का विस्तार किया. शिबू सोरेन के जमाने में जो झामुमो महज संथाल की पार्टी मानी जाती थी, हेमंत ने अपने नेतृत्व में उसे कोल्हान में विस्तार दिया. और इसके साथ ही शहरी मतदाताओं के बीच अपनी पैठ बढ़ायी. पूरे पांच वर्ष तक जमीन पर उतर कर अपने हिस्से की लड़ाई लड़ते रहें. और जैसे ही 2019 के विधान सभा का चुनाव हुआ, उनकी मेहनत रंग लायी और पूर्ण बहुमत के साथ उनकी सत्ता में वापसी हुई.
क्या युवाओं और किसानों में आज भी हेमंत का जादू बरकरार है
यह सब कुछ बताने का अभिप्राय मात्र इतना है कि हेमंत के अंदर एक जोश और उमंग नजर आता था. वह लगातार युवाओं सपने देखने के लिए उकसा रहे थें. आदिवासी मूलवासियों में इस बात का भरोसा कायम कर रहे थें कि उनके नेतृत्व में शासन का स्वरुप बदलेगा. उनके मुद्दों की बात होगी. लेकिन क्या आज भी हेमंत के पास वह हौसला है. क्या आज भी शहरी मतदाताओं के बीच उनकी पकड़ है, क्या वह उन वादों की दिशा में आगे बढ़ते नजर आये हैं, जो उनका चुनावी एजेंडा था, क्या युवाओं को नौकरी मिली. क्या बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता मिला. क्या आदिवासी मूलवासी समाज के बीच आज भी उनकी चाहत है.
निश्चित रुप से इसका जवाब तो आने वाले लोकसभा चुनाव और उसके बाद के विधान सभा चुनाव में निकल कर सामने आयेगा. लेकिन एक हद तक उसे समझने की कोशिश की जा सकती है, यह ठीक है कि उन्होंने सरना धर्म कोड से लेकर 1932 के खतियान पर मोर्चा संभाला, पिछड़ों का आरक्षण विस्तार कर 23 वर्षों की हकमारी को दूर करने का प्रयास किया. लेकिन मूल सवाल यह है कि इसका अंतिम परिणाम क्या निकला. यह सारे बिल तो आज भी राजभवन के अटके पड़े हैं. तो आदिवासी-मूलवासी और पिछड़ी जातियां इस आधार पर हेमंत के साथ खड़ी नजर आयेगी कि राज्य सरकार ने अपने तरफ से एक इमानदार प्रयास तो जरुर किया. और क्या खुद हेमंत सोरेन इस बात को लेकर पूरी तरह से आशान्वित हैं, क्या उनके अंदर वह आत्म विश्वास आज भी मौजूद है.
भाषा की तल्खी और इसके मायने
दरअसल, पिछले कुछ दिनों से सीएम हेमंत की भाषा काफी तल्ख नजर आने लगी है, वह इस बात का दावा कर रहे हैं कि उनकी सरकार आदिवासी मूलवासियों की सरकार है, यह किसी खेत में लगी गाजर मूली नहीं है, जब चाहे भाजपा उखाड़ ले जाये. क्या उनका यह बयान उनके आत्म विश्वास का प्रतिक है या फिर उनके मन के किसी कोने में एक डर समाया है. और इसी मानसिक स्थिति में वह अपने कोर वोटरों को एक संदेश देने की कोशिश रहे हैं कि इस सरकार को बचाने की जिम्मेवारी सिर्फ हमारी नहीं है, यह सरकार जितनी हमारी है, उतनी आपकी भी है, और जिस तरीके से हमारे पीछे ईडी और सीबीआई के घोड़े छोड़े गयें है, इस सरकार की उम्र लम्बी नहीं है, और यदि आपको इस सरकार को बरकरार रखना है, एक लड़ाई जमीन से भी उठनी चाहिए. क्योंकि आज भाजपा के निशाने पर सिर्फ हेमंत और यह सरकार नहीं है, आपका जल जंगल और जमीन भी है. सरकार गयी कि आपकी जमीनों की बोली लगने लगेगी, अडाणी से लेकर अंबानी तक की नजर आपकी जल जंगल और जमीन पर टिकी हुई है. उसके बाद आपको मुआवजा देने की रश्म निभायी जायेगी और आप किसान से मजदूर के रुप में तब्दील हो जायेंगे.
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