Ranchi-प्रदेश अध्यक्ष के रुप में अपनी ताजपोशी के करीबन सात माह बाद बाबूलाल मरांडी की ओर से अपनी कोर कमिटि की घोषणा कर दी गयी, और इसके साथ ही कमेटी को लेकर जारी अब तक की उत्सूकताओं पर विराम लग गया. लेकिन इसके साथ ही उनकी कमेटी की सामाजिक और लैंगिक संरचना को लेकर खड़ा किया जाने लगा है. किस सामाजिक समूह को कितनी हिस्सेदारी मिली और किसको किनारा लगाया गया, इसकी चीर-फाड़ की शुरुआत हो चुकी है. और यह सवाल विपक्षी दलों की ओर से आने के बजाय खुद भाजपा से ही उठती नजर आ रही है, हालांकि खुलकर कोई भी बोलने को तैयार नहीं है, दिल्ली दरबार के खौफ ने सबकी जुबान पर ताला लटका दिया है. लेकिन निजी बातचीत में इस तथ्य को जरुर स्वीकारा जा रहा है कि न जाने किस सियासी विवशता में बाबूलाल इस आधी अधुरी कमेटी के साथ सामने आये हैं.
कमेटी में राजधानी में स्थापित नेताओं का वर्चस्व
यहां ध्यान रहे कि काफी अर्से से इस कमेटी को लेकर अलग अलग दावे किया जा रहे थें, दावा किया जा रहा था कि बाबूलाल संघ के एक प्रशिक्षित कार्यकर्ता है, उनके पास जमीनी मुद्दों और उसकी संरचना की बेहतर समझ है, उनका विराट अनुभव और जमीनी समझ की झलक उनकी कमेटी में देखने को मिलेगी. लेकिन दूसरी ओर इस कमेटी की तस्वीर खुद ही इस बात की तस्दीक करती नजर आ रही है कि बाबूलाल को कई स्तरों पर समझौता करने को विवश होना पड़ा. और तो और जिन चेहरों के साथ लेकर वह झारखंड प्रजातांत्रिक पार्टी से भाजपा में शामिल हुए थें, उन चेहरों को भी वह इस कमेटी में स्थान दिलाने में विफल साबित हुए, पहले की तमाम कमेटियों के समान इस बार भी पूरी कमेटी में रांची के स्थापित नेताओं का वर्चस्व देखने को मिल रहा है.
क्षेत्रीय विषमता को भी नहीं भेद पायें बाबूलाल
एक बड़ा सवाल तो क्षेत्रीय विषमता का भी है, इस कमेटी में करीबन आठ जिलों का प्रतिनिधित्व शून्य है. इस हालत में बाबूलाल 2024 के महासंग्राम में भाजपा को कहां खड़ा कर पायेंगे, एक बड़ा सवाल है, क्या बाबूलाल ने अभी से ही यह मान लिया है कि इन आठ जिलों में भाजपा के पास करने को कुछ ज्यादा नहीं है, या फिर यह माना जाय कि चाहे जैसी कमेटी का निर्माण हो, चेहरा जिसका भी हो, नेतृत्व किसी के पास हो और झारखंड की जमीन पर मुद्दे चाहे जो हो, भाजपा को सियासी फतह तो पीएम मोदी के जादू से ही होना है, और बाबूलाल इसी आत्मविश्वास में इससे आगे निकल कर कुछ भी नया सोचने और परखने को तैयार नहीं है? और यह स्थिति तब है, जब सामने 2024 का महासंग्राम खड़ा है, इसी महासंग्राम का चुनावी परिणाम से बाबूलाल की किस्मत लिखी जानी है, यदि बाबूलाल झामुमो के कोर वोटर आदिवासी मतों में सेंधमारी में सफल होते हैं, तब तो बल्ले बल्ले, लेकिन यदि निराशा हाथ लगती है तो रघुवर दास की तरह इनके लिए भी सियासी अवसान की पटकथा भी लिखी जा सकती है. दिल्ली दरबार को दूसरा विकल्प तलाशने में देर नहीं लगेगी.
महिला आरक्षण का ढिंढोरा लेकिन प्रतिनिधित्व गायब
इस कमेटी को लेकर एक बड़ा सवाल महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर भी है. 44 सदस्यीय इस कमेटी में कुल पांच महिलाओं को जगह मिली है, एक तरफ संसद में महिला आरक्षण का ढिंढोरा और दूसरी तरफ अपनी ही कमेटी में महिलाओं का आधा-अधूरा प्रतिनिधित्व, कई सवाल खड़े कर रहा है, यदि प्रधानमंत्री मोदी की भावना का ही सम्मान किया गया होता तो कम से कम 14 महिलाओं को जगह तो जरुर मिला होता. लेकिन संसद में महिला आरक्षण का नगाड़ा बजाने वाली भाजपा यहां क्यों पिछड़ गयी? और जिन महिलाओं को स्थान मिला भी है. उसमें से कइयों का संबंध तो स्थापित नेताओं के साथ जुड़ा नजर आता है, यह प्रतिनिधित्व है या रिश्तेदारियों का सम्मान, भी एक गंभीर सवाल है.
कुर्मी चेहरे को गायब कर क्या संदेश दे रहे हैं बाबूलाल?
इस कमेटी पर एक बड़ा सवालिया निशान सामाजिक समीकरणों को लेकर भी है. 44 सदस्यीय इस कमेटी में कुल दो कुर्मी चेहरे को जगह मिली है. पहला चेहरा पहला रामाकांत महतो और दूसरा मनोज वाजपेयी का है, क्या करीबन 16 फीसदी आबादी वाले कुर्मी जाति के लिए यह क्या यह समूचित प्रतिनिधित्व है. और क्या इसी प्रतिनिधित्व के साथ भाजपा कुर्मी मतदाताओं पर अपना डोरा डालेगी और यदि वह इसकी कोशिश भी कर ले तो क्या यह प्रयास सियासी रंग दिखा पायेगा, इसका जवाब तो 2024 के महासंग्राम का चुनावी परिणाम भी बतायेगा. लेकिन फिलहाल इस कमेटी के लेकर कुर्मी मतदाताओं में नाराजगी पसरती नजर आ रही है.
झामुमो का हल्लाबोल! कार्यकर्ताओं के घेरेबंदी के बीच सीएम आवास में हेमंत से होगी ईडी की पूछताछ
बन्ना की मनमानी, सीएम के हिस्से का फैसला खुद ले रहे हैं मंत्री, सरयू राय ने ट्वीट कर किया आगाह