TNPDESK-लोकसभा के मद्देनजर सीट शेयरिंग को लेकर झामुमो कांग्रेस के बीच की कीच-कीच दूर होती नजर आ रही है. रविवार को दिल्ली में गहन मंत्रणा के बाद झारखंड में लोकसभा की कूल 14 सीटों में दोनों पार्टियों के हिस्से सात-सात सीटें पर सहमति बन गई है. इसी सात सीटों में कांग्रेस झामुमो की ओर से अपने-अपने हिस्से से एक-एक सीट राजद और वाम दलों को दी जायेगी. झामुमो के लिए दुमका, लोहरदगा, राजमहल, गिरिडीह और जमशेदपुर पर पूर्ण सहमति है, दूसरी तरफ कांग्रेस के हिस्से में गोड्डा, धनबाद, रांची, हजारीबाग, पलामू, खूंटी और चतरा की सीट आयी है. दावा किया जा रहा है कि जल्द ही वाम दल और राजद के हिस्से कौन सी सीट आने वाली है, इसका भी एलान कर दिया जायेगा. हालांकि हजारीबाग सीट को लेकर अभी भी संशय की स्थिति है, यह सीट वाम दलों के हिस्से भी जा सकता है, जबकि दूसरी तरफ चतरा की सीट राजद के हिस्से जा सकती है.
भाजपा का मजबूत किला बन कर सामने आया है गोड्डा
यहां याद रहे कि गोड्डा संसदीय सीट भाजपा की मजबूत सीट मानी जाती है, और कमल के इस कीले को भेदना कांग्रेस के लिए कोई आसान चुनौती नहीं है, इसके पहले भी कांग्रेस प्रदीप यादव और फुरकान अंसारी को अखाड़े में उतार कर शिकस्त खा चुकी है, इसमें से कोई भी चेहरा निशिकांत के आगे टिक नहीं पाया, तो इस बार इस पंजा का परचम फहराने के लिए चेहरा कौन होगा? क्या कांग्रेस एक बार फिर से उन्ही पिटे प्यादों को आगे कर एक और शिकस्त का इंतजार करेगी,या फिर बदले सियासी हालात में नया दांव खेलेगी? और जैसे ही चेहरा कौन होगा, एक साथ कई नाम सामने उछलते हैं. इसमें पहला नाम तो वर्ष 2002 तो कमल की सवारी कर लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे प्रदीप यादव का ही है. गोड्डा लोकसभा के पोड़याहाट विधान सभा से वर्ष 2005, 2009,2014 और 2019 में लगातार सफलता का परचम लहराते रहे प्रदीप यादव कंधी छोड़कर पंजे की सवारी कर रहे हैं. वर्ष 2014 और 2019 में भी प्रदीप यादव ने इसी कंधी की सवारी कर लोकसभा पहुंचने का ख्वाब भी पाला था, लेकिन निशिकांत के आगे एक नहीं चली, हालांकि प्रदीप यादव के पक्ष में एक बात यह कही जा सकती है कि वर्ष 2019 के उस मोदी लहर में भी ये करीबन चार लाख वोट का जुगाड़ करने में सफल रहे थें. लेकिन आज कल इनका नाम एक यौन शोषण मामले में उछल रहा है. हालांकि वह कितना सियासी साजिश और कितना तथ्यों पर आधारित इसका फैसला कोर्ट में होना है, अभी उन पर चुनाव लड़ने पर कोई रोक नहीं है.
कांग्रेस का कद्दावर अल्पसंख्यक चेहरा फुरकान अंसारी
लेकिन, इसके साथ ही एक दूसरे नाम पर भी चर्चा होती है वह हैं गोड्डा से पूर्व सांसद और कांग्रेस का कद्दावर अल्पसंख्यक चेहरा माने जाने वाले फुरकान अंसारी का. वर्ष 2004 में फुरकान पंजे की सवारी कर लोकसभा की यात्रा करने में सफल रहे थें, हालांकि वर्ष 2014 में कांग्रेस ने उन्हे एक और मौका दिया था, और तब फुरकान ने बेहद मजबूती के साथ निशिकांत का मुकाबला भी किया था, बावजूद इसके वह 60 हजार मतों से पीछे छुट्ट गये थें. लेकिन 2014 के बाद गंगा में काफी पानी बह चुका है, अब उनकी उम्र भी उनको आराम करने की सलाह दे रही है, इस हालत में सवाल खड़ा होता है कि इंडिया गठबंधन की ओर से इस संसदीय सीट के लिए सबसे मजबूत और मुफीद चेहरा कौन होगा? किस चेहरे पर दांव लगाकर इंडिया गठबंधन वर्ष 2009 से लगातार अपनी कामयाबी का झंडा बुलंद करते रहे निशिकांत को पैदल करने की स्थिति में आ सकती है.
क्या कहता है सामाजिक समीकरण
इस सवाल का जवाब तलाशने से पहले हमें गोड्डा का सामाजिक समीकरण को समझना होगा. क्योंकि बगैर सामाजिक समीकरणों को साधे कोई भी सियासी दल अपनी गोटियां नहीं बिछाता. तो यहां हम याद दिला दें कि गोड्डा में करीबन ढाई लाख यादव, तीन लाख अल्पसंख्यक, दो लाख ब्राह्मण, ढाई से तीन लाख वैश्य, डेढ़ लाख के करीब आदिवासी, एक लाख के करीब भूमिहार, राजपूत, कायस्थ और शेष पचपौनियां और दलित जातियां है. इस प्रकार गोड्डा का सामाजिक समीकरण इंडिया गठबंधन के लिए एकबारगी काफी मुफीद तो नजर आता है, और खास कर जब पूरे देश जातीय जनगणना की मांग तेज होती दिख रही है, खुद राहुल गांधी इसकी पैरोकारी करते नजर आ रहे हैं, तो दूसरी ओर सीएम चंपाई सोरेन ने भी बिहार की तर्ज पर झारखंड में जातीय जनगणना करवाने का एलान कर दिया है, सीएम चंपाई की इस घोषणा के बाद निश्चित रुप से झारखंड की सियासत में भी जाति समीकरणों को नये सिरे से समझने की कोशिश शुरु हो सकती है.
कांग्रेस के लिए तुरुप का पत्ता साबित हो सकती हैं दीपिका पांडेय
इन दो पुराने सियासी धुरंधरों के बाद एक तीसरा नाम महागामा विधायक दीपिका पांडेय सिंह का भी है. दावा किया जाता है कि इस बार कांग्रेस के अंदर दीपिका का तेजी से उछल रहा है, और इसका कारण दीपिका की जातीय स्थिति है. दीपिका खुद तो ब्राह्मण जाति से आती है, लेकिन उनकी शादी कुर्मी घराने में हुई है. हालांकि निश्चित रुप से अपनी शादी के वक्त दीपिका सिंह ने जाति के इस एंगल पर विचार नहीं किया होगा, उनकी यह मंशा भी नहीं होगी, लेकिन उनका वही पुराना फैसला आज उनकी बड़ी सियासी पूंजी बनती नजर आ रही है. क्योंकि इन तमाम नामों में सिर्फ दीपिका ही एक ऐसी चेहरा हैं, जो बेहद आसानी के साथ सवर्ण मतदाताओं के साथ ही पिछड़ी और दलित जातियों को भी अपने पाल में कर सकती है. एक साथ पिछड़ी जातियों के साथ ही करीबन ढाई लाख ब्राह्मण मतदाताओं को भी साधा जा सकता है. और खास बात यह है कि निशिकांत के विपरीत गोड्डा में दीपिका की पहचान एक सौम्य और मृदूभाषी राजनेता की है, जो बगैर किसी सियासी विवाद का शिकार हुए लगातार लोगों के साथ अपना संवाद बनाये रखती है. यहां यह भी याद दिला दें कि दीपिका की सियासी जीवन की शुरुआत यूथ कांग्रेस से हुई थी, लेकिन इन तमाम बातों से अलग एक और बात जो दीपिका के पक्ष में जाती है वह उनका खांटी झारखंडी होना, जबकि इसके विपरीत निशिकांत पर बाहरी होने का आरोप लगता रहा है, हालांकि इंडिया गठबंधन अंतिम समय में किस चेहरे को चुनावी अखाड़े में उतारता है, यह देखना की बात होगी. लेकिन इतना साफ है कि दीपिका के पास वह सामाजिक समीकरण है, जिसके सहारे कांग्रेस इस हारी हुई बाजी को पलटने का दमखम दिखला सकता है.
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