Ranchi-अपनी लम्बी खामोशी के बाद आखिरकार टाइगर जयराम ने गिरिडीह संसदीय क्षेत्र से चुनावी दंगल में कूदने का खुला एलान कर दिया और इसके साथ ही तमाम स्थापित दलों का सियासी समीकरण संकट में फंसता दिखने लगा, हालांकि अब तक जयराम ने कभी भी अपने आप को कुर्मी पॉलिटिक्स का चैंम्पियन जताने की कोशिश नहीं की है, जयराम का दावा झारखंड और झारखंडियत को आवाज देने की रही है, आदिवासी-मूलवासियों के सामने जुझते सवालों को उठाने और उसका समधान खोजने की रही है, जल जंगल और जमीन लूट और प्राकृतिक संसाधनों पर नजर जमाये बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिद्ध दृष्टि से आदिवासी मूलवासी समाज को सावधान करने की रही है. लेकिन बावजूद इसके स्थापित सियासी दलों की दृष्टि में जयराम कुर्मी पॉलिटिक्स का एक चमकता सितारा है.
स्थापित दलों के सामने जयराम एक बड़ी चुनौती
यदि हम स्थापित सियासी दलों के नजरिये से ही जयराम को परखने की कोशिश करें तो भी उतरी छोटानागपुर जहां उनकी लोकप्रियता आज अपने उफान है, स्थापित दलों के सामने जयराम एक बड़ी चुनौती हैं, कोल्हान की तरह की उतरी छोटानागपुर में भी सियासत की चाभी हमेशा से कुर्मी मतदाताओं के हाथ में ही रहती है, और इसका कारण यह है कि आदिवासी समूहों के बाद झारखंड में सबसे बड़ी आबादी इन्ही कुर्मी मतदाताओं की है, कई कुर्मी नेताओं का तो यह दावा है कि उनकी आबादी आदिवासी समुदाय के 26 फीसदी आबादी से कहीं ज्यादा है. लेकिन किसी भी हालत में यह आबादी 20 फीसदी से कम नहीं है और यदि इतनी बड़ी आबादी को कोई युवा सियासी दंगल में आवाज देता नजर आता है, तो इसके गंभीर मायने है, हालांकि एक बात यह भी सच है कि जयराम को जो लोकप्रियता रोजगार, भाषा विवाद और 1932 के खतियान पर मिली, क्या जयराम आज उसी लोकप्रियता पर सवार होकर सियासी दंगल में उतरने का मादा रखते हैं?
गिरिडीह का दंगल बतायेगा जयराम की लोकप्रियता कितनी जमीनी और कितना फसाना
इसका फैसला तो चुनावी दंगल में ही होगा, लेकिन जिस प्रकार जयराम ने करीबन 45 दिनों की चुप्पी के बाद अचानक से गिरिडिह के मैदान से उतरने का खुला एलान कर दिया है, उसके बाद स्थापित दलों के सामने संकट गहराता नजर आने लगा है, शायद यही कारण है कि वह आजसू जो अब तक झारखंड की सियासत में अपने आप को कुर्मी पॉलिटिक्स का अघोषित चैंपियन मानती थी, आज वह भी इस तूफान के आगे गिरिडीह के दंगल से बाहर निकल यहां भाजपा को ही मुकाबले में उतारना चाहती है, खबर यह है कि आजसू गिरिडीह का मैदान खाली कर हजारीबाग पर नजर जमाये हुए है. हजारीबाग को लेकर वैसे भी चर्चा तेज है कि भाजपा इस बार यहां जयंत सिन्हा को टिकत नहीं देने जा रही है, इस हालत में आजसू के लिए यहां विकल्प तो बनता है, लेकिन क्या भाजपा अपने पुराने गढ़ को इतना आसानी से आजसू के हाथ सौंपने को तैयार होगी, लेकिन इस सवाल का जवाब तलाशने के पहले यह जानना भी जरुरी है कि उसी भाजपा ने अपने पांच बार के सांसद रहे रविन्द्र पांडेय को बेटिकट कर यह सीट आजसू को सौंपा था, उस हालत में वह हजारीबाग की सीट आजसू के खाते में डाल भी दे तो कोई आश्यर्च नहीं होगा. वह एक तीर से दो शिकार भी कर सकती है, आजसू भी खुश और जयंत का कांटा भी दूर.
किसका खेल बिगाड़ेंगे जयराम
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यदि जयराम अपनी उसी लोकप्रियता पर सवार होकर गिरिडीह के चुनावी दंगल में उतरने का दम खम दिखलाते हैं, तो इस हालत में वह किसका वोट बिगाड़ेगें, उनके साथ भाजपा का वोट खिसकेगा या वह झामुमो को चूना लगायेंगे. इस सवाल का जवाब तलाशने के पहले हमें वर्तमान हालात में गिरिडीह संसदीय सीट के समीकरण को समझना होगा, गिरिडीह संसदीय सीट के अंर्तगत कूल छह विधान सभा आता है, इसमें गिरिडीह विधान सभा में सुदिव्य कुमार सोनी(झामुमो), डूमरी विधानसभा-बेबी देवी (झामुमो) गोमिया विधान सभा- लम्बोदर महतो(आजसू), बेरमो-विधानसभा-जयमंगल सिंह(कांग्रेस), टूंडी विधानसभा- मथुरा महतो(झामुमो) और बाधमारा विधान सभा में ढुल्लू महतो (भाजपा) का कब्जा है, इस प्रकार कुल छह विधान सभा में से चार पर महागठबंन का झंडा, तो दो पर एनडीए का कब्जा है.
झामुमो के पक्ष में झूका नजर आता है पलड़ा
इस हालत में यह निश्चित रुप से महागठबंधन के पक्ष में झूका नजर आता है, लेकिन यहां भी ध्यान रहे कि इस पूरे लोकसभा में कुर्मी मतदाताओं की मजबूत पकड़ है और सत्ता की चाभी इन्ही कुर्मी मतदाताओं के पास है, आजसू की सक्रियता के अब तक कुर्मी मतदाताओं का जो हिस्सा भाजपा के साथ नजर आता था, जयराम की इंट्री के बाद यदि इन मतदाताओं ने पलटी मारी तो भाजपा की राह मुश्किल में फंस सकती है, क्योंकि अभी वर्तमान हालात में जयराम का जो उभार है, सुदेश महतो उसका मुकाबला करते नजर नहीं आते, रही बात झामुमो की तो जयराम आदिवासी- मस्लिम मतदाताओं में सेंधमारी कर पायेंगे, इसमें संदेह है. मुस्लिम मतदाताओं का सीधा जुड़ाव झामुमो के साथ है. इस प्रकार जयराम की इंट्री से झामुमो को उस सीमा तक नुकसान होता नजर नहीं आता, लेकिन यदि जयराम के साथ उनके साथ कंधा से कंधा मिला कर संघर्ष करते रहे रिजवान अंसारी भी मैदान में कूदते हैं तो यह झामुमो तो परेशानी में डाल सकता है, हालांकि झामुमो के पक्ष में एक बात और जा सकती है, वह है बेरमो विधायक जयमंगल सिंह. लेकिन क्या जयमंगल सिंह अपने चेहरे के बूते सामान्य जाति के मतदाताओं को झामुमो के पक्ष में खड़ा करने की स्थिति होंगे. उनका सियासी कद अभी उस सीमा तक पहुंचा नजर नहीं आता. इस प्रकार कहा जा सकता है कि जयराम की सियासी इंट्री से भाजपा झामुमो दोनों की सियासत फंसती नजर आ रही है, हालांकि अभी भी झामुमो को बढ़त जरुर नजर आता है, लेकिन यदि जयराम के तूफान ने जोर पकड़ा, तो ये सारे समीकरण बिखर सकते हैं, और संसद का दरवाजा जयराम के लिए खुल सकता है, लेकिन बड़ा सवाल संसाधनों का है, लोकप्रियता अपनी जगह तो ठीक है, लेकिन उस लोकप्रियता को वोटों के फसल में तब्दील करने में संसाधनों का अपना रौल होता है, इससे आज कोई इंकार नहीं कर सकता. और जयराम इस खेल में पीछे छुट्ट सकते हैं.
जयराम का असर अब कुणाल षाड़ंगी के स्थान पर गौतम महतो पर दांव लगा सकती है भाजपा
इस बीच खबर यह भी कि जयराम जमदेशपुर संसदीय सीट से भी अपने पहलवान को उतराने की योजना पर काम कर रहे हैं और इस खबर मात्र में भाजपा का खेल बिगड़ने लगा है, वर्तमान सांसद विद्युत वरण महतो का पर कतर कुणाल षाड़ंगी पर दांव लगाने की तैयारी कर चुकी भाजपा अब अपना पैर खिंचने की तैयारी में है, दावा किया जाता है कि इस बार विश्व हिन्दू परिषद में सक्रिय रहे गौतम महतो को आगे कर वह जयराम के इस आंधी का मुकाबला करने की तैयारी कर चुकी है.
बाबूलाल पर भारी कर्मवीर! दिल्ली दरबार में एक और ऑपेरशन की तैयारी तो नहीं
4+