TNPDESK-बाबूलाल की इंट्री के बाद जैसे ही पूर्व सीएम रघुवर दास को ओडिशा का राज्यपाल बनाये जाने की खबर सामने आयी. सियासी गलियारों में इस बात के दावे तेज हो गयें कि रघुवर को किनारा कर दिल्ली दरबार झारखंड की सियासत में बाबूलाल को खुला हाथ देना चाहती है. ताकि बाबूलाल के आदिवासी चेहरे के भरोसे भाजपा अपनी जमीन को वापस पा सके. तर्क दिया गया कि जिस तरीके से 2015 के विधान सभा चुनाव में भाजपा ने बगैर किसी चेहरे के बहुमत का आंकड़ा हासिल किया और उसके बाद अचानक से इस आदिवासी बहुल राज्य में एक गैर आदिवासी को सीएम की कुर्सी पर बैठाया. उसके कारण आदिवासियों के बीच एक नकारात्मक मैसेज गया. उनके बीच धारणा पनपने लगी कि भाजपा को आदिवासियों का वोट तो चाहिए, लेकिन वह किसी आदिवासी चेहरे को झारखंड की कुर्सी पर नहीं देखना नहीं चाहती. आदिवासी समाज में पसरते इसी आक्रोश को झामुमो ने अपना सियासी हथियार बनाया. 2020 के विधान सभा में भाजपा को भारी सियासी शिकस्त का सामना करना पड़ा, जिस रघुवर दास पर डबल इंजन की सरकार का हांकने की जिम्मेवारी सौंपी गयी थी, वह चुनाव समर में वह रघुवर दास अपनी विधायकी भी नहीं बचा पायें. लेकिन इन तमाम दावों के बावजूद झारखंड की सियासत से पूर्व सीएम रघुवर दास की हनक कम होती नहीं दिख रही. और आज भी रघुवर दास बाबूलाल के सियासी डगर में दीवार की तरह खड़े नजर आते हैं. दावा किया जाता है कि रघुवर दास के इसी सियासी हनक के कारण प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी संभालने के बावजूद बाबूलाल लम्बे समय तक अपनी टीम का गठन करने का जोखिम नहीं उठा पायें और जब आखिरकार जब अपनी टीम का गठन भी किया गया तो रघुवर दास के चेहरों को आउट करने जोखिम नहीं ले पायें.
रघुवर के करीबी प्रदीप वर्मा को राज्य सभा का टिकट
इसी में से एक चेहरा इस बार झारखंड से राज्यसभा भेजे जाने वाले प्रदीप वर्मा है. हालांकि प्रदीप वर्मा लम्बे समय से झारखंड में संगठन का कार्यभार देखते रहे हैं. लेकिन वह मूल रुप से यूपी के आजमगढ़ के रहने वाले हैं. रघुवर दास के शासन काल में इनके सियासी जलबे की चर्चा जोरों पर थी. तब दावा किया जाता था कि यदि रघुवर दास तक पहुंचना है तो वह रास्ता बिरला परिवार से जुड़े प्रदीप वर्मा से होकर गुजरता है. इस बार भी प्रदीप वर्मा का रांची संसदीय सीट से लोकसभा चुनाव लड़ने की चर्चा तेज थी. लेकन एन वक्त पर संजय सेठ ने बाजी पलट दी.
संजय सेठ और प्रदीप वर्मा दोनों ही रघुवर टीम का हिस्सा
यहां ध्यान रहे कि संजय सेठ को भी रघुवर दास कैम्प का ही माना जाता है. रघुवर दास ने ही सीएम रहते हुए रांची संसदीय सीट से संजय सेठ के लिए मैदान तैयार किया था. और इसी रघुवर दांव में पांच बार के सांसद रहे रामटहल का पत्ता साफ हो गया, लेकिन रघुवर दास के इस चेहते तो इस बार उन्ही के दूसरे शार्गीद प्रदीप वर्मा के द्वारा चुनौती पेश की जा रही थी. दावा किया जाता है कि इस बार भी रघुवर दास ने अपना कमाल दिखाया और संजय सेठ के हाथ में कमल चुनाव चिह्न बरकरार रह गया. लेकिन दूसरी चुनौती प्रदीप वर्मा की नाराजगी को दूर करने की थी और यह नाराजगी राज्यसभा भेज कर पूरी की गयी. यानि ओडिशा में बैठकर भी रघुवर दास झारखंडी सियासत में अपने प्यादों को फीट करने में कामयाब रहें. यहां ध्यान रहे कि इसके पहले तक राज्यसभा जाने के लिए अनुशंसित उरांव, आशा लकड़ा और अरुण उरांव की चर्चा थी. दावा किया जा रहा था कि चूंकि यह सीट समीर उरांव से खाली हुई है. इस हालत में किसी आदिवासी चेहरो को ही राज्यसभा भेजना ही झारखंड की सियासी आबोहवा के अनुकूल होगा. लेकिन आखिरकार यह बाजी प्रदीप वर्मा के हाथ लगी. यानि रघुवर के चाल में एक बार फिर से एक आदिवासी चेहरा को गायब कर दिया गया. और इसके साथ ही ऱघुवर दास बेहद सधे अंदाज में अपने दोनों प्यादों को फीट करने में कामयाब रहें.
आशा लकड़ा की सियासत पर लगाम
ऱधुवर दास के सियासी हनक को समझने के लिए आशा लकड़ा के सियासी सफर पर भी एक नजर दौड़ाना जरुरी होगा. ध्यान रहे कि जब रघुवर दास सीएम थें, तब आशा लकड़ा रांची की मेयर थी. लेकिन तब रघुवर दास ने आशा लकड़ा से सारे वित्तीय अधिकार छीन लिये थें. साफ है कि आशा लकड़ा और रघुवर दास की सियासी अदावत पुरानी है. रघुवर दास की विदाई और बाबूलाल की इंट्री के बाद आशा लकड़ा का नाम भाजपा खेमें में तेजी से उभर रहा था. पीएम मोदी और अमित शाह से बढ़ती नजदीकियों के आधार पर इस बात का दावा भी किया जाने लगा था कि यदि 2025 में भाजपा की सरकार बनती है तो अपनी पुरानी भूल से सबक लेते हुए इस बार भाजपा आशा लकड़ को सीएम भी बना सकती है. इस बीच आशा लकड़ा को राज्यसभा भेजे जाने की भी चर्चा थी. लेकिन इन तमाम कयासों पर विराम लगाते हुए आशा लकड़ा को अचानक से राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग का सदस्य बनाये जाने की खबर आयी. ध्यान रहे कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग का सदस्य का एक संवैधानिक पद है और जिस पर तैनाती के बाद राजनीतिक गतिविधियों पर विराम लग जाता है. यानि अब आशा लकड़ा सियासत की मुख्य धारा से दूर कर दी गयी हैं. इस हालत में यह सवाल खड़ा होना लाजमी है कि जिस आशा लकड़ा को भाजपा के अंदर 2025 का सीएम बताया जा रहा था, उस आशा लकड़ा को इस संवैधानिक पद पर बैठा कर, उनकी चमकती सियासत पर कैंची चलाने की पटकथा कहां और किसके इशारे पर तैयार की गयी. और क्या रघुवर दास की ही तरह आशा लकड़ा को भी यह पद अपने दिल में कांटा की तरह चुफ तो नहीं रहा होगा? हालांकि राजनीति में कुछ भी अंत नहीं होता, बहुत संभव है कि एक बार फिर से आशा लकड़ा का सियासत के मुख्य अखाड़े में इंट्री हो और भाजपा के अंदर जो दावे किये जा रहे थें, 2025 में आशा लकड़ा उस मुकाम तक खड़ी हो, लेकिन फिलहाल तो आशा लकड़ा की सियासत में कांटा फंस नजर आता है.
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