Tnp Desk-लोकसभा की डुगडुगी बजने ही वाली है. इस बीच भाजपा ने बड़ी संख्या में अपने प्रत्याशियों का एलान कर इस बात का दवाब बनाने की कोशिश की है कि इस महासमर को लेकर उसके मन में कोई संशय नहीं है और “यदि प्रधानमंत्री अबकी बार चार सौ पार” के दावे कर रहे हैं, तो यह अकारण नहीं है. पीएम मोदी की इस गारंटी को सरजमीन पर उतारने के लिए पूरी भाजपा मुस्तैद खड़ी है. वहीं दूसरी ओर कांग्रेस अभी भी घटक दलों के साथ अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने का संघर्ष करती नजर आ रही है. हालांकि यूपी-बिहार की तस्वीर काफी कुछ साफ हो चुकी है, लेकिन जिस तरह जिस प्रकार ठीक लोकसभा की डुगडुगी बजने के पहले सीएम हेमंत को कालकोठरी में कैद किया गया. भाजपा के साथ ही कांग्रेस भी इसे सियासी अवसर के रुप में इस्तेमाल करती नजर आ रही है. उसकी कोशिश इस संकट का उपयोग अपने हिस्से की संख्या बढ़ाने में नजर आती है.
यूपी बिहार और झारखंड में क्या है कांग्रेस का सियासी जमीन
लेकिन क्या वास्तव में यूपी बिहार और झारखंड में कांग्रेस उस जमीन पर खड़ी है, जहां उसके साथ समझौता कर सपा, राजद और झामुमो को कोई बड़ा सियासी लाभ होने वाला है, या इन दलों की सवारी कर कांग्रेस अपनी खोयी जमीन को वापस पाने की सियासत भर साध रही है. जमीन पर संघर्ष और पसीना बहाने के बजाय सिर्फ सियासत की रोटी खाना चाहती है. यदि वाकई कांग्रेस में अपने सियासी जमीन को वापस पाने की चाहत होती तो इसकी झलक सांगठनिक गतिविधियों में दिखलायी पड़ती. संगठन के स्वरुप मे उसकी तस्वीर दिखती. आज कोई भी यह सवाल खड़ा कर सकता है कि जिस जातीय जनगणना का की हुंकार राहुल गांधी अपनी तमाम रैलियों में करते नजर आ रहे हैं. दलित पिछड़ों की सामाजिक-सियासी हिस्सेदारी की वकालत कर रहे हैं. खुद कांग्रेस संगठन में उसकी तस्वीर क्या है? क्या कांग्रेस ने अपने संगठन के अंदर ही दलित-पिछड़ों को समूचित प्रतिनिधित्व प्रदान किया है? या फिर राहुल गांधी का यह वादा कांग्रेस के उन पुराने नारों की कार्बन कॉपी भर है. जिसमें एक तरफ दलित-पिछडों के बीच गरीबी हटाओं का नारा चलता था. और दूसरी तरफ राज्य दर राज्य सीएम का चेहरा सवर्ण जातियों को बनाया जाता था. संगठन से लेकर सरकार तक में दलित पिछडों को भटकने नहीं दिया जाता था, अधिकांश राज्यों में सीएम कुछ चंद जातियों से ही आते थें. याद कीजिये नेहरु से लेकर इंदरा गांधी का वह दौर और तमाम कांग्रेस शासित राज्यों के सीएम चेहरा देखिये और उन चेहरों में दलित पिछड़ों और अल्पसंख्यक समाज की सियासी और सामाजिक हिस्सेदारी. जबकि उस दौर में दलित अल्पंसख्यकों का एकजूट वोट तो कांग्रेस को ही जाता था, तो क्या राहुल गांधी अपनी दादी की राह ही बढ़ने का संकल्प ले चुके हैं. नहीं तो झारखंड, बिहार से लेकर यूपी तक आज कांग्रेस का नेतृत्व किसके हाथ में है? और दलित पिछडों के साथ ही अल्पसंख्यकों को इसका मैसेज क्या है?
यूपी, बिहार और झारखंड में किसके हाथ में कांग्रेस की कमान
यूपी में अजय राय, बिहार में अखिलेश सिंह और झारखंड में राजेश ठाकुर को कांग्रेस की कमान क्या अनायास है? या फिर यह किसी विशेष सामाजिक समूह को कांग्रेस के साथ जोडऩे की सियासी रणनीति है? और सवाल यह भी है कि इस प्रकार राज्य दर राज्य संगठन से दलित पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को आउट कर काग्रेंस इन सामाजिक वर्गों को कौन सा संदेश देना चाहती है? क्या कांग्रेस अभी भी इस भ्रम का शिकार है कि दलित, पिछड़े अल्पसंख्यक समाज महज राहुल गांधी के नारे में विश्वास कर उसके साथ खड़ा हो जायेगा. और उससे भी बड़ी बात है कि इन चेहरों को साध कर कांग्रेस इन राज्यों में कौन से सामाजिक समूह को अपने साथ खड़ा करने जा रही है, जिसके बूते वह सियासी कमाल का सपना देख सकती है? पिछड़ावाद की इस राजनीति के दौर में ये चेहरे कांग्रेस की ताकत बनेंगे या फिर इनके कंधों पर मोदी के विजय रथ को मजबूत करने की जिम्मेवारी है. इसके पहले की इन चेहरों के बारे में आप कोई राय बनायेंगे, बेहतर होगा कि अपने अपने राज्यों में इन चेहरों की जमीनी ताकत पर भी नजर डाल लें.
बिहार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अखिलेश सिंह का सियासी जुगाड़
अखिलेश प्रसाद सिंह के सियासी सफर की शुरुआत राजद से हुई है, वर्ष 2000 से 2004 तक ये अरवल के विधायक रहें. 2004 में ये राजद चुनाव चिह्न पर मोतिहारी से सांसद चुने गयें. लेकिन वर्ष 2009 में पूर्वी चंपारण और 2014 में मुजफ्फरपुर से भारी पराजय का सामना करना पड़ा, और हार का यह सिलसिला लगातार जारी रहा, वर्ष 2015 में इन्हे तरारी विधान सभा से सुदामा प्रसाद के हाथों हार का सामना करना पड़ा. लेकिन वर्ष 2018 आते आते ये बिहार से कांग्रेस कोटे से राज्य सभा पहुंचे और 5 दिसंबर 2022 को बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाये गयें. इनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता की हालत यह है कि यह खुद कांग्रेस का झंडाबरदार बने रहते हैं, लेकिन इनका बेटा उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी से चुनाव लड़ता है, बावजूद इसके भारी पराजय का सामना करना पड़ता है. दावा किया जाता है कि वर्ष 2019 में अखिलेश सिंह ने गठबंधन के तहत उपेन्द्र कुशवाहा को मोतिहारी की सीट इस शर्त के साथ दिलवाया था कि उस सीट पर उनका बेटा आकाश सिंह को उम्मीदवार बनायेगा. जिसके बाद कांग्रेस के अंदर काफी नाराजगी देखी गयी थी, हालांकि पार्टी के साथ इस गद्दारी के बावजूद उनका बेटा आकाश सिंह को भारी पराजय का सामना करना पड़ा. कुल मिलाकर बिहार की सियासत में यह आम धारण है कि अखिलेश सिंह अपने सियासी वजूद के दम खम पर पार्टी तो क्या अपने बेटे को विजय भी श्री का माला पहनाने की हैसियत में नहीं है. बावजूद इसके पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेवारी संभाल रहे हैं. यह चर्चा आम है कि अखिलेश सिंह की सियासत कांग्रेस को मजबूत करने के बजाय अपना सियासी भविष्य संवारने और अपने बेटे की सियासी इंट्री पर ज्यादा फोकस है, अभी हाल में कांग्रेस के पास संख्या बल नहीं होने के बावजूद खुद राज्य सभा का जुगाड़ लगा लिया, लेकिन संख्या बल होने के बावजूद विधान परिषद से प्रेमचंद मिश्रा का पत्ता कट गया.
झारखंड कांग्रेस अध्यक्ष राजेश ठाकुर की सियासी उपलब्धियां
उस दौर में जब पूरे झारखंड में 1932 का खतियान का शोर है, बाहरी भीतरी का बिगुल फूंका हुआ है. स्थानीय बनाम बाहरी की गुंज तेज होती जा रही है, कांग्रेस ने गैर झारखंडी चेहरे पर अपना दांव लगाया और जबकि उसके पास जलेश्वर महतो से लेकर बंधू तिर्की तक आदिवासी पिछड़ा चेहरा है, राजेश ठाकुर ने आज तक एक पंचायत का चुनाव नहीं लड़ा है, पूरे झारखंड में एक भी विधान सभा नहीं है, जहां राजेश ठाकुर अपने बूते जीत का दावा कर सकते हों. इनके नेतृत्व से आहत कांग्रेस के करीबन 12 विधायक दिल्ली की दौड़ लगा चुके हैं, और ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ दलित पिछड़ी जातियों से आने वाली विधायकों के बीच राजेश ठाकुर के नेतृत्व को लेकर नाराजगी है, सामान्य श्रेणी से आने वाले विधायक भी बगावत का बिगुल फुंक रहे हैं, बावजूद इसके राजेश ठाकुर की कुर्सी सही सलामत है, जबकि सियासी गलियारों में यह चर्चा आम है कि यदि राजेश ठाकुर इसी प्रकार झारखंड की सियासत को हांकते रहें तो कांग्रेस बहुत ही जल्द एक बड़ी टूट की ओर बढ़ सकती है.
यूपी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय का सियासी जलबा
ठीक यही हाल यूपी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय का है. कांग्रेस अध्यक्ष के रुप में इनकी ताजपोशी का आधार महज इतना भर है कि इन्होंने बनारस के अखाड़े में पीएम मोदी को चुनौती दी थी. हालांकि उसका परिणाम क्या निकला और यूपी की सियासत में इनका सामाजिक आधार क्या है, वह एक अलग सवाल है. यह वही अजय राय हैं, जिन्होंने मध्यप्रदेश चुनाव के वक्त सपा की ओर से विधान सभा सीटों की मांग करने पर अखिलेश यादव के विरोध में मोर्चा खोला था, जिसके जवाब में अखिलेश यादव ने चिरकुट की उपाधि से नवाजा था. अब कांग्रेस के उसी 'चिरकुट' यूपी में मोदी रथ को रोकने की जिम्मेवारी है? अब लोकसभा चुनाव में ये चेहरे क्या गुल खिलायेंगे, देखने की बात होगी.
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