संताल परगना स्थापना दिवस आज, 169 वर्षों में कितना बदला संताल परगना, जानिए सामाजिक कार्यकर्ता सच्चिदानंद सोरेन की कलम से

टीएनपीडेस्क(TNPDESK): आज संताल परगना अपना 169वां स्थापना दिवस मना रहा है. इस दिन की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्ता बहुत खास है. क्योंकि यह दिन भारतीय इतिहास के उस अध्याय से जुड़ा है, जब आदिवासी समुदाय ने अपने अस्तित्व, अधिकार और अस्मिता की रक्षा के लिए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ अद्वितीय संघर्ष किया था. 1885 के संताल हुल विद्रोह के परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार को मजबूर होकर संताल परगना नामक एक अलग प्रशासनिक क्षेत्र का गठन करना पड़ा. इस क्षेत्र को विशेष रूप से संताल आदिवासियों के अधिकारों और उनके सांस्कृतिक, सामाजिक और भूमि संबंधी अधिकारों की रक्षा के लिए बनाया गया था. संताल परगना की स्थापना का सीधा संबंध 1855 के संताल हुल (संताल विद्रोह) से है. यह विद्रोह ब्रिटिश हुकूमत, स्थानीय ज़मींदारों और महाजनों के अत्याचारों के खिलाफ सिदो मुर्मू, कान्हू मुर्मू, चांद मुर्मू, भैरव मुर्मू, फूलो मुर्मू और झानो मुर्मू के नेतृत्व में हुआ था. संताल आदिवासी समुदाय अपनी जल, जंगल, जमीन और आजीविका की सुरक्षा के लिए एकजुट हुए और ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ एक सशक्त आंदोलन खड़ा किया.
30 जून 1855 को 30 हजार से अधिक संताल आदिवासी झारखण्ड के साहेबगंज जिले के भोगनाडीह गांव में एकत्र हुए और सिदो मुर्मू और कान्हू मुर्मू के नेतृत्व में ब्रिटिश शासन और शोषणकारी महाजनों से स्वतंत्रता की घोषणा की. यह विद्रोह जल्द ही एक व्यापक आंदोलन में बदल गया. जिसे दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार को पहली बार मार्शल लॉ लागू करना पड़ा, इस दौरान हजारों आदिवासी मारे गए. इस विद्रोह को "संताल हुल" के नाम से जाना जाता है. इस संघर्ष में अन्य समुदाय के लोग भी अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से साथ रहे. यद्यपि यह विद्रोह क्रूरतापूर्वक दबा दिया गया, लेकिन इसने ब्रिटिश शासन को हिला कर रख दिया. उन्हें इस क्षेत्र की शासन प्रणाली और सामाजिक-आर्थिक संरचना पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया.
संताल परगना का गठन
संताल हुल के बाद, ब्रिटिश प्रशासन ने महसूस किया कि आदिवासी समुदाय को दबाने के लिए केवल सैन्य बल ही पर्याप्त नहीं है. आदिवासियों के भूमि, जंगल और संस्कृति के प्रति विशेष लगाव को देखते हुए ब्रिटिश शासन ने एक नई रणनीति अपनाई. 22 दिसंबर 1855 को ब्रिटिश सरकार ने संताल परगना क्षेत्र को एक स्वतंत्र प्रशासनिक इकाई के रूप में स्थापित किया. इस इकाई के भूमि और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए संताल परगना काश्तकारी अधिनियम (Santal Pargana Tenancy Act) बनाया गया. संताल परगना काश्तकारी अधिनियम सिर्फ आदिवासियों पर लागू नहीं होता है, बल्कि यह अधिनियम उन सभी गैर आदिवासी काश्तकारों (किसानों) और भूमि धारकों पर भी लागू होता है जो संताल परगना क्षेत्र के भीतर भूमि का उपयोग करते हैं. इसका उद्देश्य भूमि पर आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा करना था, लेकिन इसके नियम और प्रावधान अन्य गैर-आदिवासी काश्तकारों पर भी लागू होते हैं.
संताल परगना के भौगोलिक और प्रशासनिक पहलू
संताल परगना क्षेत्र पहले एक ही जिला हुआ करता था जो अब झारखंड के छह जिलों में विभाजित है. 1.दुमका (प्रमुख जिला और संताल परगना का मुख्यालय) 2.साहिबगंज 3.गोड्डा 4.पाकुड़ 5.जामताड़ा 6.देवघर. इस क्षेत्र में ज्यादातर संताल आदिवासी रहते हैं, जो यहां की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा हैं. यहां की संस्कृति और परंपराएं भारत की अनमोल धरोहर है. आदिवासियों के लोकगीत, नृत्य और रीति-रिवाज यहां के समाज का अभिन्न हिस्सा हैं. इस क्षेत्र में जंगल, वनस्पति और खनिज की प्रचुरता है, जो इसे प्राकृतिक संसाधनों का धनी क्षेत्र बनाती है.
22 दिसंबर को संताल परगना स्थापना दिवस के रूप में मनाना शहीदों के बलिदानों और उनके संघर्ष की अमर विरासत को श्रद्धांजलि देने का एक उपयुक्त अवसर है. यह हमें हमारे गौरवपूर्ण इतिहास के महत्व को याद दिलाता है. संताल हुल अंगेजो के विरुद्ध लड़ा गया पहला जन आन्दोलन है. यह दिन आदिवासी गौरव का प्रतीक है, क्योंकि इस दिन संताल आदिवासियों की भूमि और सांस्कृतिक अधिकारों को ब्रिटिश सरकार ने मान्यता दी. सिदो मुर्मू, कान्हू मुर्मू, चाँद मुर्मू, भैरव मुर्मू, फूलो मुर्मू और झानो मुर्मू जैसे वीरों के बलिदान का सम्मान इस दिन किया जाता है. यह दिन आदिवासी समुदाय के अधिकारों और संस्कृति की रक्षा के प्रति एक प्रतिबद्धता की याद दिलाता है. यह दिन दिखाता है कि शोषित और वंचित समुदाय भी संगठित होकर संघर्ष के माध्यम से न्याय और अधिकार प्राप्त कर सकते हैं. यह भी सिखाता है कि जब कोई समाज अपनी अस्मिता और अधिकारों की रक्षा के लिए एकजुट होकर संघर्ष करता है, तब उसे कोई हरा नहीं सकता. सिदो-कान्हू मुर्मू और अन्य की कुर्बानी और 22 दिसंबर का दिन हर साल यह याद दिलाता है कि असली जीत अन्याय के खिलाफ संघर्ष में ही निहित है.
रविवार को संताल परगना की स्थापना दिवस पर कई कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे है. लेकिन सवाल उठता है कि 169 वर्ष में संताल परगना का कितना विकास हुआ. आज भी संताल परगना को पिछड़ा माना जाता है. शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं से ग्रामीण वंचित है. झारखंड राज्य के गठन के पीछे मुख्य तर्क आदिवासी हित और पहचान को संरक्षित करना था. ऐसे में संताल परगना की ऐतिहासिक भूमिका को नज़रअंदाज करना उचित नहीं है. हुल दिवस (30 जून) की तरह संताल परगना स्थापना दिवस को भी सरकारी मान्यता मिलनी चाहिए. चूंकि संताल परगना का योगदान केवल झारखंड के लिए ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए भी महत्वपूर्ण है, इसलिए केंद्र सरकार को इसे राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता देनी चाहिए. संताल परगना का इतिहास केवल हुल क्रांति तक सीमित नहीं है. इसका सामाजिक और सांस्कृतिक योगदान भी उल्लेखनीय है. यह क्षेत्र झारखंड के आदिवासी समाज के गौरव का प्रतीक है. यदि स्थापना दिवस को मान्यता मिलती है, तो क्षेत्र में शिक्षा, पर्यटन और सांस्कृतिक विकास के लिए नई संभावनाएं भी पैदा होंगी. झारखंड के गठन के बाद से अधिकांश मुख्यमंत्री आदिवासी समुदाय से ही रहे हैं, फिर भी संताल परगना को वह स्थान नहीं मिला, जिसका वह हकदार है. यह मुद्दा राजनीतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि आदिवासी समुदाय की अस्मिता से जुड़े मुद्दे चुनावी राजनीति में अहम भूमिका निभाते हैं.
रिपोर्ट:सच्चिदानंद सोरेन\पंचम झा
4+