Ranchi-जैसे-जैसे 2024 का चुनावी संघर्ष अपने चरम की ओर बढ़ रहा है, एक बार फिर से खूंटी के इस हाई प्रोफाइल सीट को लेकर उत्सुकता बढ़नी शुरु हो गयी है. जहां एक तरफ तीन-तीन बार के सीएम और मोदी कैबिनेट में जनजातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा जैसा एक बड़ा चेहरा है, वहीं दूसरी ओर भाजपा नेता नीलकंठ सिंह मुंडा के भाई और कांग्रेसी उम्मीदवार कालीचरण मुंडा जैसा अति सामान्य कार्यकर्ता है.
2019 में कालीचरण के हाथ से निकल गयी थी जीत की बाजी
यह मुकाबला इसलिए भी दिलचस्प है कि 2019 में कालीचरण जीतते-जीतते बाजी हार बैठे थें और बेहद संघर्षपूर्ण मुकाबले में अर्जुन मुंडा महज 1445 मतों के साथ इस हार को जीत में बदलने में कामयाब रहे थें. चुनावी रोमांस ऐसा था कि मैच के अंतिम क्षण तक कालीचरण को जीत अपने हिस्से में आती दिख रही थी. बल्कि यो कहें कि जीत की वरमाला भी पहना दी गयी थी. अधिकारियों ने जीत की मुनादी भी कर डाली थी, कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के बीच में जश्न की शुरुआत हो चुकी थी. मिठाईयों का आर्डर हो चुका था और भाजपा कार्यकर्ता उदास चेहरे के साथ अंतिम फैसले का इंतजार कर रहे थें. लेकिन लोकतंत्र की खूबसूरती यही है. यहां एक वोट भी अपनी कीमत रखता है, किस्मत बदल देता है, हार जीत की भविष्यवाणियों को पलट देता है.
पूरे पांच वर्ष कालीचरण ने संभाले रखा मोर्चा
लेकिन इन पांच वर्षों में कालीचरण ने ना तो मैदान छोड़ा, ना समर्थक इस जीत को स्वीकार करने को तैयार हुए. दावा किया जाता रहा है कि जनता-जनार्दन ने तो अपना फैसला कालीचरण के पक्ष में सुनाया था, लेकिन सत्ता ने अपना खेल खेला और लोकतंत्र की आत्मा कराह उठी, तो क्या इस बार कालीचरण के समर्थक जीत-हार के इस फासले को इतना विशाल बनाने जा रहा है कि जहां कोई भी जादू काम नहीं आने वाला, सिर्फ और सिर्फ कालीचरण का ‘काला जादू’ बोलेगा या फिर सत्ता के पहिया में बदलाव के बावजूद ‘अर्जुन रथ’ अविराम आगे बढ़ता नजर आयेगा? और क्या अर्जुन मुंडा ने केन्द्रीय मंत्री की अपनी भूमिका में इन पांच वर्षों में खूंटी में इतनी मेहनत की है कि इस बार वह जीत की औपचारिकता पूरी करने के बजाय जीत का नगाड़ा बजायेंगे.
मोदी लहर के बावजूद खरसांवा में हार का सामना
यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि जिस मोदी लहर में ना जाने कितनों का बेड़ा पार हो गया, उस मोदी लहर के बावजूद अर्जुन मुंडा अपनी परंपरागत सीट खरसांवा को बचाने में नाकामयाब साबित हुए. दशरथ गगराई ने झामुमो के तीर-धनूष से खरसांवा के किले में अर्जुन रथ का पहिया धवस्त कर डाला. हालांकि इस हार में भी अर्जुन मुंडा की किस्मत खुलती नजर आयी और केन्द्रीय मंत्री के रुप में ताजपोशी कर जख्म पर मरहम लगा दिया गया.
क्या अर्जुन मुंडा ने अपनी कमजारियों पर विजय हासिल कर लिया
लेकिन सवाल यह है कि इस बार क्या होने वाला है? क्या अर्जुन मुंडा ने इन पांच वर्षो में अपनी कमजारियों को दुरुस्त कर लिया है? क्या इन पांच वर्षो में खूंटी की जनता के साथ उनकी नजदीकियां बढ़ी है? वह खूंटी की जनता के सियासी सामाजिक आकांक्षाओं पर खरे उतरे हैं. क्या आदिवासी समाज के जमीनी मुद्दों के साथ वह जुड़ते नजर आयें है? या इस बार भी सारा दांव पीएम मोदी के चेहरे पर होगा? मोदी मैजिक चला तो जीत की वरमाला नहीं तो कालीचरण का रास्ता साफ? और बड़ा सवाल यह भी है कि क्या पीएम मोदी के चेहरे में आज भी वह जादू बरकरार है कि तमाम विपरित परिस्थितियों के बावजूद वह सिर्फ अपने चेहरे के बूते अर्जुन रथ का नैया पार ले जाय? इसका जवाब तो चार जून को सामने आयेगा, अभी तो पीएम मोदी का दौरा भी नहीं हुआ है, देखना होगा पीएम मोदी के दौरे के बाद खूंटी में हवा का रुख किस ओर बहता है.
चुनौतियों का विस्तार या संकट खत्म
लेकिन इस बीच सियासी जानकारों का दावा है कि 2019 में जो चुनौती अर्जुन मुंडा के सामने खड़ी थी, आज भी वह सारी चुनौतियां अपनी जगह मौजूद है, बल्कि इन चुनौतियों का विस्तार ही हुआ है. यहां ध्यान रहे कि खूंटी लोकसभा की कुल छह विधान सभाओं से आज खूंटी से कालीचरण के बड़े भाई और भाजपा नेता नीलकंठ सिंह मुंडा, तमाड़ से झामुमो विकास कुमार मुंडा, तोरपा से भाजपा को कोचे मुंडा, खरसांवा से झामुमो के दशरथ गोगराई, सिमडेगा से कांग्रेस के भूषण बारा और कोलिबेरा से कांग्रेस के नमन विक्सल कोंगारी का कब्जा है. यानी कांग्रेस, झामुमो और भाजपा के पास दो- दो सीट है. पिछले अर्जुन मुंडा को उनके परंपरागत सीट खरसांवा से 32 हजार और तमाड़ से 41 हजार से अच्छी खासी बढ़त मिली थी, लेकिन बाकि की सभी चार विधानसभा में पिछड़ना पड़ा था. सबसे अधिक नुकसान कोलेबिरा में उठाना पड़ा था. जहां कालीचरण ने करीबन 24 हजार की बढ़त हासिल कर ली थी.
क्या इस बार भी अर्जुन मुंडा खरसांवा-तमाड़ में अपनी मजबूत पकड़ बनाये रखने में सफल होंगे
इस हालत में सवाल उठता है कि क्या अर्जुन मुंडा इस बार खरसांवा और तमाड़ में अपनी इस बढ़त तो बनाये रखने में सफल होंगे, और इसके साथ ही बाकी के चार विधान सभा में अपनी कमजोर पकड़ को दुरस्त कर पायेंगे. यही वह चुनौती है, जिस पर अर्जुन रथ का भविष्य टिका है. और यह चुनौती तब है, जब दावा किया जाता है कि पिछले पांच वर्षों मे अर्जुन मुंडा की सक्रियता खूंटी में देखने को नहीं मिली, एक प्रकार से वह खूंटी से कटे-कटे नजर आयें, दूसरी ओर कालीचरण पूरे पांच वर्ष तक अपनी इस हार को जीत में तब्दील करने का जोर लगाते रहें. देखना होगा कि इस हालत में अंतिम बाजी किसके हाथ आती है.
चुनौतियां गंभीर, मुकाबला कांटे का है
लेकिन इतना तय है कि इस बार भी चुनौती गंभीर है. मुकाबला कांटे का है. और इस सबके बीच निगाहें पीएम मोदी के दौरे पर टिकी हुई है. लेकिन सवाल यह है कि जिस हिन्दूत्व का कार्ड खेल, सामाजिक धुर्वीकरण की आंच में पीएम मोदी हार को जीत में बदलते करिश्मा दिखलाते रहे हैं, क्या वह दांव 60 फीसदी आबादी वाले इस आदिवासी बहुल सीट पर काम आने वाला है? वैसे भी खूंटी पत्थलगड़ी आन्दोलन का केन्द्र रहा है. आदिवासी अस्मिता और जल जंगल और जमीन की लडाई के लिए भगवान बिरसा की यह भूमि काफी उर्वर रही है. इस हालत में खूंटी में किसी भी नतीजे के लिए तैयार रहना होगा. आज के दिन यह इंडिया गठबंधन की सबसे सुरक्षित सीट में एक है.
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