Ranchi-कल्पना सोरेन के नामांकन के साथ ही गांडेय उपचुनाव के सियासी सरगर्मी तेज हो चुकी है. एक तरफ इंडिया गठबंधन के तमाम घटक दल जीत की हुंकार लगा रहे हैं. इस बात का सिंहनाद कर रहे हैं कि चुनाव तो महज एक औपचारिकता है. गांडेय की जनता ने एकतरफा फैसला ले लिया है. मतपेटियों से सिर्फ और सिर्फ कल्पना के नाम पर जनता की मुहर सामने आयेगी. दूसरी ओर भाजपा-आजसू का दावा है कि चाहे जीतनार जोर लगा लिया जाय, लेकिन गांडेय की जनता दिग्भ्रमित होने वाली नहीं है. उसे पता है कि जिस हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी को मुद्दा बना कर सहानुभूति बटोरने की साजिश की जा रही है, उसकी हकीकत क्या है? आदिवासी समाज को यह भली-भांति मालूम है कि किसने जमीन की लूट की और किसने जल जंगल और जमीन के नारे के साथ आदिवासी अस्मिता पर प्रहार किया. आदिवासी समाज की संवेदनाओं को छला.
क्या चुनावी जंग महज एक औपचारिकता है?
लेकिन परस्पर विरोधी दावों से जुदा सवाल यह है कि जमीन की सच्चाई क्या है? क्या कल्पना सोरेन की इंट्री भर से जीत पर मुहर लगने वाली है? क्या चुनावी जंग महज एक औपचारिकता है? जैसा कि झामुमो और उसके सहयोगी दलों की ओर से दावा किया जा रहा है, या फिर इन दावों से उलट कहानी कुछ और है. सवाल यह भी है कि क्या दिलीप वर्मा को आगे कर भाजपा ने वाकई एक मजबूत घोड़ा मैदान में उतारा है? या फिर हार तय मान सिर्फ लड़ाई की औपचारिकता पूरी की जा रही है? सवाल यह भी है कि यदि लडाई की औपचारिकता ही पूरी की जानी थी तो फिर इस सीट को लेकर आजसू-भाजपा के बीच तकरार देखने को क्यों मिली? आखिर इस सुनिश्चित हार वाली सीट पर आजसू अपने उम्मीदवार को मैदान में उतारने के लिए इतना बेचैन क्यों थी? और सवाल यह भी क्या वाकई यह सीट आजसू के खाते में होती तो रोचक मुकाबला देखने को मिलता?
कौन है दिलीप वर्मा
इन सारे सवालों का विचार करने से पहले हमें यह जान लेना बेहतर होगा कि दिलीप वर्मा कौन है? दरअसल गांडेय विधान सभा के लिए दिलीप वर्मा नया चेहरा नहीं है. 2019 के विधान सभा चुनाव में भी दिलीप वर्मा मैदान में थे. लेकिन तब उनका चुनाव चिह्न कंधी छाप था, यानि वह बाबूलाल मरांडी की पार्टी झाविमो की ओर से अखाड़े में थें. लेकिन उस मुकाबले में दिलीप वर्मा को महज 8 हजार 952 मतों के साथ छठे स्थान पर संतोष करना पड़ा था, यानि उस मुकाबले में दिलीप वर्मा का दूर दूर तक कोई अता पता नहीं था, उनके सामने जमानत बचाने की चुनौती थी. जबकि भाजपा की ओर से ताल ठोकते हुए दूसरे स्थान पर रहने वाले जयप्रकाश वर्मा आज खुद झामुमो के साथ खड़े हैं. खबर यह भी है कि वह कोडरमा लोकसभा सीट से ताल ठोंकने की तैयारी में है, जबकि गांडेय में वह कल्पना सोरेन के साथ खड़े नजर आयेंगे. इस हालत में दिलीप वर्मा कितनी गंभीर चुनौती पेश करेंगे, यह एक बड़ा सवाल है. हालांकि इस बार उनके साथ भाजपा का कोर वोटर तो जरुर होगा. लेकिन जयप्रकाश वर्मा के समर्थक किस करवट बैठेंगे, यह भी देखने वाली बात होगी. यहां यह भी बता दें कि दिलीप वर्मा 2015 में गिरिडीह सदर प्रखंड के पांडेडीह पंचायत से मुखिया भी रहे हैं. यानि कुल मिलाकर दिलीप वर्मा गांडेय विधान सभा के लिए कोई अपरिचित चेहरा नहीं है. लेकिन इसके साथ ही वह मजबूत चेहरा भी नजर नहीं आते.
क्या है सियासी समीकरण
अब रही बात सियासी समीकरण की तो सन 1977 में इस सीट पर लक्ष्मण स्वर्णकार (जनता पार्टी), 1980-सरफराज अहमद (कांग्रेस) 1980,1985 सालखन मुर्मू (झामुमो) 1995-लक्ष्मण स्वर्णकार (भाजपा) 2000,2005 (सालखन मुर्मू) 2009 (कांग्रेस) 2014 (जयप्रकाश वर्मा) और 2019-सरफराज अहमद( झामुमो) इस प्रकार भी इस सीट पर झामुमो की मजबूत पकड़ रही है. यानि 1977 से अबतक कुल पांच बार झामुमो, दो बार कांग्रेस और एक बार भाजपा को जीत मिली है. जहां तक सामाजिक समीकरण की बात है तो गांडेय विधान सभा में मुस्लिम- 26 फीसदी, अनुसूचित जनजाति- 20 फीसदी, अनुसूचित जाति-11 फीसदी है. साथ ही करीबन दस फीसदी आबादी कुर्मी महतो की भी है. अब यदि हम इंडिया गठबंधन का कोर वोटर माने जाते रहे मुस्लिम और आदिवासी मतदाताओं जोड़ कर देखने की कोशिश करें तो यह आंकड़ा करीबन 46 फीसदी तक जाता है. यानि झामुमो एक मजबूत सियासी जमीन दिखलायी पड़ती है और यही वह सामाजिक समीकरण है जिसके बूते झामुमो-कांग्रेस को कल्पना सोरेन की राह आसान नजर आ रही है. इसके साथ ही जिस अंदाज में कल्पना सोरेन ने जमीन पर उतर कर मोर्चा खोलते नजर आ रही है, वह भी भाजपा की एक मुसीबत साबित हो सकती है.
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