Ranchi- झारखंड में आज भी ईडी का शोर थमा नहीं है. एक तरफ सीएम हेमंत को समन दर समन भेजने की सुर्खियां तो दूसरी ओर उनके समर्थकों से जुड़े ठिकानों पर छापेमारी, और इन छापेमारियों को सीएम हेमंत के कथित भ्रष्टाचार से जोड़कर उनके सियासी औरा को ध्वस्त करने की भाजपा की ख्वाहिश, कुल मिलाकर 2024 के महासंग्राम से पहले भाजपा की एकमात्र यही रणनीति नजर आती है, यदि इस पटकथा से परे कुछ भी सोचना शुरु करें तो ‘मोदी है तो मुमकिन है’ का पुराना राग और अयोध्या में रामलला की मूर्ति का भव्य उद्धाटन.
हेमंत के किले को ध्वस्त करने के लिए भाजपा के तीन हथियार
यानी हेमंत के इस किले को ध्वस्त करने के लिए आज के दिन भाजपा के पास यही तीन हथियार है, जिसके दम पर वह 2024 के महामुकाबले में झामुमो से दो दो हाथ करने का दंभ पालती है. इससे परे ना कोई संघर्ष और ना ही जनमुद्दों से जुड़ा कोई आन्दोलन. लेकिन क्या यही तीन मुद्दों के बूते भाजपा झारखंड की 14 लोकसभा में से अपने हिस्से की 12 सीटों पर परचम फहराने वाली है. क्योंकि दूसरी ओर से 1932 का खतियान और उससे जुड़ा आदिवासी-मूलवासी समाज की जनभावानाओं का जन ज्वार है. भाजपा भले ही पूरे आदिवासी समाज को हिन्दू धर्म की धरोहर घोषित करता हो, उन्हे हर कीमत पर हिन्दू धर्म से जोड़कर देखने पर आमादा हो, लेकिन एक दूसरी सच्चाई यह भी है कि आज के दिन आदिवासी समाज का एक बड़ा हिस्सा सरना धर्म कोड को अपनी सामाजिक पहचान से जोड़कर देखता है. उसके लिए यह महज एक सियासी मुद्दा नहीं है, उसकी पहचान का सवाल है. दूसरी ओर पिछड़ी जातियों का सामाजिक हिस्सेदारी भागीदारी का सवाल है, जिनकी आबादी करीबन 54 फीसदी मानी जाती है, झारखंड गठन के पहले तक उन्हे 27 फीसदी आरक्षण मिलता था, लेकिन उनके आरक्षण पर कैंची भाजपा की ही चली थी, बाबूलाल के सीएम रहते ही उनके आरक्षण को 27 फीसदी से 14 फीसदी करने का फैसला किया गया था. और हेमंत सोरेन ने उनके आरक्षण को 27 फीसदी करने का एलान कर एक बड़ा कार्ड खेल दिया है. रही बात अयोध्या में रामलला की मूर्ति का पुनर्स्थापना का. तो बड़ा सवाल तो यही है कि राज्य की 26 फीसदी आबादी वाले आदिवासी समुदाय उससे अपने को किस हद तक जुड़ा पाता है? और यदि वह एक हद तक अपना जुड़ाव देखता भी है तो क्या वह सिर्फ इसी के आधार पर वह भाजपा का कमल खिलाने चल निकलेगा.
आज भी आदिवासी समाज का सबसे चमकदार चेहरा हैं हेमंत
इस बात को स्वीकार करने में कोई गुरेज होना चाहिए, आदिवासी समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी सीएम हेमंत में अपना सामाजिक अक्स देखता है. सीएम हेमंत के चेहरे में उसे अपनी पहचान दिखती है, उसके लगता है कि उसके समाज को कोई चेहरा उस पर शासन कर रहा है, वह किसी विजातीय चेहरे के शासन तले अपनी जिंदगी बसर नहीं कर रहा. उस हालत में सीएम हेमंत को ईडी का यह ताबड़तोड़ समन को वह किस रुप में ले रहा है, एक बड़ा सवाल है, और जिस प्रकार सीएम हेमंत इस समन को आदिवासी मूलवासी समाज की अस्मिता से जोड़ कर उछाल रहे हैं, भाजपा के लिए यह एक गंभीर खतरा साबित हो सकता है, ईडी की तमाम छापेमारियों के बीच सीएम हेमंत का यह एलान कि यदि वह गुनाहगार हैं तो ईडी उन्हे गिरफ्तार क्यों नहीं करती? यह हवा में छोड़ा गया कोई शिगूफा नहीं है, इसके अपने सियासी और सामाजिक मायने हैं, कुछ संदेश हैं, और यह संदेश ईडी के लिए कम, अपने समर्थक समूहों के लिए कुछ ज्यादा ही है.
क्या गांव कस्बों में बसे उनके समर्थक समूहों तक यह संदेश नहीं जा रहा?
यह यह बताने की कोशिश है कि हम यहां बैठकर जिस तरीके से 1932 का खतियान, सरना धर्म कोड, स्थानीय नीति, और जातिगत गणना की मांग कर रहे हैं, उसके कारण भाजपा के पेट में दर्द होना लाजमी है, और उसकी ही परिणति उनकी गिरफ्तारी है. तो क्या यह मानना एक अति आत्मविश्वास नहीं होगा कि गांव-कस्बों और जंगल में बसा उनका समर्थक वर्ग तक यह बात नहीं पहुंच रही होगी? और वह इसका जवाब 2024 के लोकसभा चुनाव में नहीं देगा? और इससे हटकर जब हेमेत सरकार लगातार राशन कार्ड की संख्या बढ़ा रही है, एक आकंड़े के अनुसार इस सरकार में पेंशनधारियों की संख्या में करीबन दो सौ फीसदी की वृद्धि हो चुकी है, आज के दिन करीबन 36 लाख लोगों को हर माह पेंशन की राशि मिल रही है, इसके साथ ही उन्हे पांच किलो राशन का सौगात भी मिल रहा है, इधर दलित-आदिवासियों के लिए पेंशन की उम्र 60 से 50 कर क्या हेमंत सरकार ने अपने लिए एक लाभार्थी वर्ग तैयार नहीं कर लिया है? क्या चुनाव में ये पेंशनधारी और दलित आदिवासी अपना रंग दिखलाने नहीं जा रहें?
सीएम हेमंत का सियासी औरा ध्वस्त होने का इंतजार
लेकिन भाजपा इन तमाम मंचों से गायब होकर सिर्फ सीएम हेमंत का सियासी औरा ध्वस्त होने का इंतजार कर रहा है, उसकी रणनीति महज इतनी है कि जैसे जैसे ईडी की गतिविधियां बढ़ेगी, सीएम हेमंत का सियासी कद गिरता चला जायेगा, और अंतत: सत्ता उसके हाथ में आ टपकेगी, लेकिन वह भूल रही है कि अखबारों की इन सुर्खियों का मजबूत सामाजिक आधार वाले नेताओं के सियासी पकड़ पर कोई असर नहीं पड़ता, वहां बड़ा सवाल सियासी और सामाजिक भागीदारी का होता है. और यदि ऐसा होता तो आज लालू परिवार सियासी गुमनामी का शिकार हो होता, लेकिन जमीनी हालत क्या है, अखबारों ने जितना अधिक लालू परिवार के बारे में लिखा, उसके भ्रष्टाचार की खबरों से अपने पन्ने रंगे, उनकी सियासी जमीन उतनी ही मजबूत होती चली गई, आज भी बिहार की सियासत में सामाजिक पकड़ के मामले में भाजपा से काफी दूर खड़ी है राजद.
तो क्या झारखंड के आदिवासी समाज में सामाजिक हिस्सेदारी की वह भूख नहीं है
तो क्या झारखंड के आदिवासी मूलवासी समाज में सियासी सामाजिक भागीदारी की वह भूख नहीं है, जो उसे अपने चेहरे के साथ खड़ा करने को विवश करें, क्या सिर्फ कथित भ्रष्टाचार के शोर में वह अपने नेतृत्व से किनारा कर लेगा, और भ्रष्टाचार भी वह, जिसका हर दूसरा सिरा खुद भाजपा नेताओं की ओर बढ़ता नजर आता है, नहीं तो क्या कारण है कि रघुवर दास को राज्यपाल बनाकर झारखंड की सियासत से विदा करने को मजबूर होना पड़ा. आज जिन चेहरों को सामने कर सीएम हेमंत को घेरने की कोशिश की जा रही है, उनका रघुवर शासन काल में क्या जलबा था, क्या यह कोई गुप्त दस्तावेज है, सब कुछ तो शीशे की तरफ साफ है, फिर क्या यह मान लेना कि भ्रष्टचार का यह प्रलाप भाजपा को सत्ता के शिखर तक पहुंचा कर दम लेगा, एक ख्याली पुलाव तो नहीं है?
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