Patna-कभी लव कुश के सामाजिक समीकरण को साध, तो कभी दलित महादलित की अवधारणा के साथ दलितों को दो टुकड़ों में विभाजित करने का सियासी प्रयोग, तो कभी पंचायत चुनाव से लेकर निकाय चुनावों में अतिपिछड़ी जातियों को आरक्षण, तो कभी पंचायती राज संस्थानों में महिलाओं को 33 फीसदी का आरक्षण जैसे नव-नुतन प्रयोग करने वाले सीएम नीतीश ने इस बार भीम संवाद का महाप्रयोग करने की घोषणा की है.
करीबन तीन दशकों के बाद सीएम नीतीश को आई भीम संवाद की याद
यहां ध्यान रहे कि करीबन तीन दशकों तक भाजपा-आरएसएस के साथ सियासी युगलबंदी का प्रयोग करने के बाद सीएम नीतीश को भीम संवाद का यह नुतन ख्याल आया है. दावा किया जा रहा है कि जनता दल यूनाइटेड की ओर से इस भीम संवाद में करीबन दो लाख दलित-महादलितों का महाजुटान किया जायेगा. इसकी तैयारियों को लेकर पटना के ट्रैफिक व्यवस्था में बड़ा बदलाव हुआ है. शहर में प्रवेश करनी वाली सभी गाड़ियों का रुट डायवर्ट किया गया है. लेकिन यहां बड़ा सवाल यह है कि आखिर तीन दशकों के अपने विभिन्न सियासी प्रयोग के बाद अचानक से सीएम नीतीश को भीम संवाद का यह ख्याल क्यों और कैसे आया? क्या लव कुश समीकरण, अति पिछड़ों का सियासी प्रयोग, पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं की हिस्सेदारी के बाद भी जदयू को आज भी अपने लिए एक मजबूत सियासी जमीन की तलाश है.
बिहार में बीस फीसदी है दलितों की आबादी
यहां याद रहे कि जातीय जनगणना के आंकडों के अनुसार बिहार में दलितों की आबादी करीबन 20 फीसदी की है. इसके साथ ही अतिपिछड़ों की आबादी 36 फीसदी की है, इस प्रकार दलित अतिपिछड़ों की आबादी बिहार की पूरी जनसंख्या का करीबन 56 फीसदी के आसपास खड़ा हो जाता है. लेकिन 75 वर्षों की आजादी के बाद आज भी इन सामाजिक समूहों को सत्ता संसाधनों में अपनी हिस्सेदारी की तलाश है. पिछले तीन दशकों की सामाजिक चेतना का विकास और मंडलवादी राजनीति के दौर के बाद दंबग पिछडों को सत्ता में हिस्सेदारी तो मिल गयी, लेकिन दलित और अतिपिछड़ी जातियों की भूमिका महज उन्हे सत्ता तक पहुंचाने की रही. जबकि पिछले तीन दशकों में इन सामाजिक समूहों में सत्ता की भूख लगातार बलवती होती दिखलायी पड़ रही है. और इनके अंदर हर इलाके में स्थानीय नेतृत्व अपना राजनीतिक विकल्प की तलाश में है.
दलित जातियों में तेज हो रही है सत्ता की भूख
अब जब कि सीएम नीतीश ने जातीय जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक कर दिया है, हर सामाजिक समूह में सत्ता की भूख तेज होती दिख रही है, इसलिए राजद हो या जदयू किसी भी राजनीतिक समूह को इन सामाजिक समूहों की उपेक्षा कर सत्ता के शीर्ष तक पहुंचना नामुमकिन नजर आने लगा है, और इसी बदली सियासी हकीकत में सीएम नीतीश भीम संवाद को आयोजित कर अपनी सियासी जमीन धारदार बनाने की मुहिम बनाने की ओर बढ़ते नजर आते हैं, लेकिन यहां सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या भीम संवाद से सीएम नीतीश और दूसरे सियासी दलों को दलितों का साथ मिल जायेगा.
कमंडलवादी राजनीतिक की काट भीम संवाद
दरअसल पिछले तीन दशकों में जहां एक तरफ कमंडल की राजनीति को विस्तार कर दलित पिछड़ी जातियों में धर्म का उन्माद खड़ा करने का सियासी प्रयोग हुआ है. और इस धार्मिक उन्माद में उनकी शिक्षा स्वास्थ्य और सत्ता संसाधनों में उनकी सामाजिक भागीदारी के सवाल को पीछे ढकलने की साजिश हुई है, वहीं दूसरी ओर बेहद खामोशी के साथ इन सामाजिक समूहों में अम्बेडकरवादी सोच ने भी विस्तार लिया है. हालांकि कमंडलवादी राजनीति के शोर में अम्बेडकरवादी विचारधारा का फैलता दायरा कई बार हमें दिखलाई नहीं देता, लेकिन हकीकत यह है कि आज दलित जातियों में सबसे ज्यादा पूजा जाना वाला कोई चेहरा हैं तो वह बीआर अम्बेडकर हैं, और यही अम्बेडकरवाद भाजपा के विस्तार में एक प्रमुख बाधा है.
जीतन राम मांझी के साथ टकराहट से बचा जा सकता था
इधर दूसरी ओर सीएम नीतीश की नजर जातीय जनगणना और पिछड़ों के आरक्षण विस्तार के बाद इस दलित जमात पर लगी हुई है. हालांकि नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को सीएम बनाकर दलितों के बीच अपनी एक पहचान जरुर स्थापित किया था, लेकिन हालिया दिनों में जिस प्रकार से उन्होंने बेवजह तू तू मैं की स्थिति पैदा की, इससे बचा भी जा सकता है, बावजूद इसके सीएम नीतीश ने अब भीम संवाद का सम्मलेन कर एक सियासी दांव जरुर खेला है.
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