पटना (PATNA)-यह सत्य है कि दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर गुजरता है, लेकिन इसके साथ ही एक दूसरी सच्चाई यह भी है कि देश की राजनीति किस करवट लेने वाली है, इसका संकेत बिहार की मिट्टी से मिलता है. कुल मिलाकर बिहार और यूपी की सियासत को नजरअंदाज कर लालकिले के प्राचीर तक पहुंचना असंभव नहीं तो एक मुश्किल टास्क जरुर है. लेकिन 2024 के महाजंग के पहले भाजपा के लिए सबसे मुश्किल चुनौती इन्ही दो राज्यों से मिलती दिख रही है.
जब हम इन दो राज्यों में भाजपा के लिए मुश्किल शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं तो कईयों के मन में यह सवाल उभर सकता है कि अभी तो अयोध्या में राममंदिर का उद्घाटन होना बाकी है, और उसकी गुंज तो पूरे देश में सुनाई पड़नी वाली है, उस गुंज के आगे विपक्षी एकता का यह राग कितना गुल खिलायेगा. राम मंदिर के उद्घाटन के बाद देश में वह सियासी बयार बहेगी कि विपक्ष के सामने सांप सुंघने की स्थिति आ खड़ी होगी. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी यूपी में राम मंदिर बाबरी मस्जिद विवाद की स्थिति में कारसेवकों पर गोलियां चली थी, और उसके बाद भाजपा यह मान कर चल रही थी कि अब मुलायम सिंह की सत्ता से विदाई तय है, लेकिन उसके बाद भी मुलायम सिंह पूरे दम खम के साथ यूपी के सियासत में मौजूद ही नहीं रहें, बल्कि पिछड़ी जातियों की एक व्यापक गोलबंदी के बैनर तले लम्बे समय तक राज भी किया.
एक सीमा के बाद धार्मिक गोलबंदी बेअसर होने लगता है
कहने का अभिप्राय यह है कि धार्मिक गोलबंदी की एक सीमा होती है, जबकि इसके विपरीत जातीय गोलबंदी लम्बे समय तक अपना असर दिखाता है, धार्मिक गोलबंदी से पिछड़े दलित और वंचित जातियों को सत्ता नहीं मिलती, उन्हे सिर्फ हिन्दू होने का एहसास मिलता है, जबकि जातीय गोलबंदी के सहारे उसे सत्ता का रसास्वादन मिलता है. और यही कारण है दलित पिछड़ी और वंचित जातियों के जिस उभार को मेनस्ट्रीम मीडिया के द्वारा जातीय गोलबंदी करार दिया जाता है, उसी दलित पिछड़ी जातियों के उसी उभार को इन सामाजिक समूहों के द्वारा सामाजिक न्याय का संघर्ष बताया जाता है. साफ है कि दलित वंचित जातियों की राजनीतिक सामाजिक भागीदारी के सवाल को आप अपनी सुविधा और सामाजिक चेतना के हिसाब से देखते और उसका नामांकरण करते हैं.
राम मंदिर का शोर पैदा कर दलित पिछड़ों की सत्ता की भूख का दमन नहीं किया जा सकता
लेकिन यह मानना कि सिर्फ राम मंदिर के भरोसे भाजपा यूपी बिहार में दलित पिछड़ों की सत्ता की भूख का दमन कर देगी, तो यह एक अधूरी सोच है. बिहार की धरती से जिस जातीय जनगणना और पिछड़ों की राजनीति हिस्सेदारी और भागीदारी का नया तूफान खड़ा किया है, उसकी जद्द में आज सिर्फ बिहार नहीं है, बल्कि राज्य दर राज्य उसकी मांग बढ़ती दिख रही है, और यह कोई अनायास नहीं है, जो कांग्रेस करीबन दो दशक तक मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर कुंडली मार कर बैठी रही, आज उसकी कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी राज्य दर राज्य जातीय जनगणना का अलख जलाये चल रहे हैं, अब यह कितना कारगार होगा यह एक अलग सवाल है, क्योंकि जिस सवाल को राहुल गांधी खड़ा कर रहे हैं, यदि वही सवाल लालू, नीतीश, बहन मायावती और अखिलेश यादव के सहारे खड़ा किया जाता तो, शायद उसकी मारक क्षमता ज्यादा होती.
पिछड़ों का महानायक बनते दिख रहे हैं राहुल गांधी
लेकिन फिलहाल तो पिछड़ों दलित और वंचित तबकों की इस राजनीति का सबसे बड़ा योद्धा राहुल गांधी बनते दिख रहे हैं, और शायद यही अखिलेश यादव से लेकर एक हद तक नीतीश कुमार को नागवार गुजर रही है. लेकिन सियासी मजबरी यह भी है कि पिछड़ी जातियों के तमाम क्षत्रपों की एक अपनी भौगोलिक सीमा है. और बीच-बीच में सीएम नीतीश को इंडिया गठबधंन का संयोजक बनाने की चर्चा इसी भौगोलिक सीमा को तोड़ने की सियासत का हिस्सा हो सकता है.
बिहार भाजपा के अंदर की तलवारबाजियां
लेकिन यहां हम चर्चा बिहार भाजपा की सियासी ताकत और उसके अंदर की तलवारबाजियों की कर रहे हैं. इतना तो साफ है कि सीएम नीतीश ने जातीय जनगणना और पिछड़ों के आरक्षण विस्तार का जो ब्रह्मास्त्र फेंका है, उसकी कोई तोड़ फिलहाल भाजपा के हाथ मिलती दिख नहीं रही है, ले-देकर वह राममंदिर का उद्घाटन के सहारे ही अपनी सियासी वैतरणी पार लगाने की जुगत लगाता दिख रहा है, लेकिन हकीकत यह है कि यह कार्ड अब अपनी धार खो चुका है. और उधर राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस का उभार होता दिखने लगा है, इस बीच सबसे बड़ी चुनौती प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता का हर दिन गिरता ग्राफ है. इस हालत में सिर्फ और सिर्फ राममंदिर के सहारे सियासी जंग में उतरना भाजपा के लिए एक खतरनाक प्रयोग हो सकता है.
इन खतरों से अनजान नहीं केन्द्रीय भाजपा
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि भाजपा इन खतरों से अनजान है. सारे राज्यों का चुनाव छोड़ कर बार बार अमित शाह का बिहार आना इस बात का संकेत है कि भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व इस चुनौती को कितनी गंभीरता से ले रहा है. और वह इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए लगातार प्रयोग भी कर रहा है. भाजपा ने बिहार में दो दो अतिपिछड़ी जातियों को उपमुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाकर कर अपनी सियासी जमीन को मजबूत करने की रणनीति पर काम किया, लेकिन उसके बाद भी उसे वह मनचाही सफलता नहीं मिली.
दो दो अति पिछड़ी जातियों को उपमुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाते ही अलर्ट हो गये थें सीएम नीतीश
लेकिन यहां सवाल यह है कि जब सुशील मोदी जैसे सबसे विश्वस्त सहयोगी को हटाकर भाजपा नीतीश कुमार के साथ दो दो अतिपिछड़ी जातियों को उपमुख्यमंत्री की कुर्सी पर सौंप रही थी, तो क्या इस सियासी खतरे की भनक नीतीश कुमार को नहीं थी, क्या भाजपा के इस प्रयोग से ही नीतीश कुमार के कान खड़े नहीं हो गये थें.और क्या उसके बाद ही बिहार नीतीश और भाजपा के बीच दूरी बढ़ने की शुरुआत नहीं हो गयी थी.
यादव वोट बैंक में सेंधमारी करने में प्लॉप हुए नित्यानंद राय
खैर इन सवालों को जाने दें, यहां सवाल नित्यानंद राय और सम्राट चौधरी का है. बिहार भाजपा में लम्बे समय तक यह शिगूफा चलता रहा है कि नित्यानंद को आगे कर भाजपा पिछड़ों को अपने पाले में करेगी, और तो और यह दावा भी किया गया कि नित्यानंद की ताजपोशी के साथ ही लालू यादव का साथ छोड़कर यादव जाति भाजपा के साथ आ खड़ी होगी, लेकिन ना इसको होना था और ना हुआ, नित्यानंद राय का दांव बेकार गया, इसके बाद जैसे ही नीतीश कुमार के सबसे खास माने जाने वाले उपेन्द्र कुशवाहा को तोड़ा गया तो माना गया कि शायद वह अब उपेन्द्र कुशवाहा को आगे कर अपनी लड़ाई लड़ेगी, लेकिन जैसे ही उपेन्द्र कुशवाहा की एनडीए में इंट्री हुई, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी सम्राट चौधरी के सिर पर रख दी गयी.
सम्राट चौधरी की ताजपोशी के पीछे खड़े थें नित्यानंद राय
दावा तो यह भी किया जाता है कि सम्राट चौधरी की ताजपोशी के पीछे खुद नित्यानंद की प्लानिंग थी, सोच यह थी कि सम्राट चौधरी के सिर पर प्रदेश अध्यक्ष का ताज होगा, लेकिन इसके बदले में सम्राट चौधरी नित्यानंद को सीएम फेस घोषित करने में मदद करेंगे. लेकिन अपनी ताजपोशी के साथ ही सम्राट चौधरी ने अपनी बैंटिंग की शुरुआत कर दी. इस प्रकार उपेन्द्र कुशवाहा से लेकर नित्यानंद अपनी सियासी जमीन बचाने की लड़ाई लड़ने लगे.
खामोश उपेन्द्र कभी भी छोड़ सकते हैं भाजपा का साथ
आज हालत यह कि उपेन्द्र कुशवाहा लम्बे समय से खामोश है, और उनकी यह खामोशी बिहार में एक नये बदलाव का संकेत दे रही है, जबकि नित्यानंद राय और सम्राट चौधरी के बीच तलवार खींची नजर आ रही है. और इसी तलवारबाजी की अंतिम परिणति कल बापू सभागार में देखने को मिली. जिस झलकारी बाई जयंती के बहाने 25 हजार लोगों को पटना आने का दावा किया गया था, उसकी पूरी प्लानिंग नित्यानंद राय खेमे के द्वारा ही किया गया. लेकिन दावा किया जाता है कि बिहार भाजपा की इस प्लानिंग को प्लौप करवाने में और किसी का नहीं खुद प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी की भूमिका थी, इस एक प्लानिंग के सहारे सम्राट चौधरी ने यह बताने में सफल रहें कि सीएम बनने का सपना पाल रहे नित्यानंद की औकात तो महज पांच सौ की भीड़ जुटाने की है. अब इस सियासी जमीन पर खड़ा होकर भाजपा 2024 की लड़ाई कितनी मजबूती के साथ लड़ेगी यह एक गंभीर सवाल है. और एक सच्चाई है कि आज भी उसके पास बिहार में नीतीश कुमार के जैसा चेहरा और मजबूत रणनीतिकार नहीं है, उपर से उसका अंतिम मुकाबला उस लालू से होना है, जिसे खुद सीएम नीतीश अपना बड़ा भाई मानते हैं.
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