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आसान नहीं है कोल्हान की धरती पर कमल का खिलना! जाते जाते रघुवर दास ने चला अपना दांव

आसान नहीं है कोल्हान की धरती पर कमल का खिलना! जाते जाते रघुवर दास ने चला अपना दांव

Ranchi-करीबन दो दशकों की राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सेवा और झारखंड की पथरीली जमीन पर कमल खिलाने की लम्बे जद्देजहद के बाद आखिरकार वर्ष 2006 में भाजपा के अन्दर की चौकड़ी से तंग आकर पूर्व सीएम बाबूलाल ने बेहद बुझेमन से भाजपा को अलविदा कह सियासी वनवास का रास्ता अख्तियार कर लिया. जिसके बाद वह करीबन 16 वर्षों तक अपनी जमीन की तलाश करते रहें. बाबूलाल के इस सियासी अस्त के बाद झारखंड की सियासत में कुछ समय के लिए अर्जुन काल का उदय हुआ, लेकिन आखिरकार इस चौकड़ी को अर्जुन मुंडा में भी अपना सियासी हित सधता नजर नहीं आया, और अंतत: उनकी विदाई की कथा भी लिख दी गयी. हालत कुछ ऐसी बन गयी कि सियासी गॉड फादर माने जाने वाले राजनाथ सिंह भी अर्जुन मुंडा को संरक्षण देने में नाकाम रहें.

मंहगा पड़ा आदिवासी बहुल झाऱखंड में गैर आदिवासी चेहरे पर दांव लगाने का फैसला

इसी बीच केन्द्रीय राजनीति में पीएम मोदी का अवतरण हो चुका था, पूरे देश में उनकी आंधी बह रही थी, और उसी आंधी में भाजपा ने बगैर किसी चेहरे के ही झारखंड को फतह कर लिया, और जब सीएम बनाने की बात आयी तो अर्जुन मुंडा उस सूची में कहीं भी नहीं थे. तब भाजपा आलकमान ने उस रघुवर पर दांव लगाना बेहतर समझा, उस समय तक पूरे झारखंड में रघुवर दास के चेहरे की पहचान भी नहीं थी. लेकिन तब दावा किया गया कि यह मोदी का मास्टर स्ट्रोक है, जहां सामाजिक समीकरण और हिस्सेदारी का सवाल कोई मायने नहीं रखता. इस राजनीति के तहत आदिवासी बहुल झारखंड में एक गैर आदिवासी, तो मराठा बहुल महाराष्ट्र में ब्राह्मण और जाट बहुल हरियाणा में गैर जाट को चेहरा बनाने का फैसला किया गया. लेकिन जैसे ही चुनाव का सामना करने की बात आयी, ये चेहरे दम तोड़ते नजर आने लगे, रघुवर दास तो सीएम रहते हुए भी अपनी विधायकी बचाने में सफल नहीं रह पायें और अपने ही एक पूर्व सहयोगी के हाथों चारों खाने चित हो गयें.

लेकिन इस बीच अपने पंसदीदा चेहरों को स्थापित करने में सफल हो चुके थें रघुवर दास

लेकिन इस बीच रघुवर दास अपने पसंदीदा चेहरों को झारखंड की राजनीति में स्थापित करने में सफल हो चुके थें. संजय सेठ से लेकर आदित्य साहू को स्थापित किया जा चुका था, और वह चौकड़ी जो बाबूलाल से लेकर अर्जुन मुंडा को हलकान किये रहती थी, खुद अपना अस्तित्व बचाने का संघर्ष कर रही थी. भाजपा का परंपरागत ब्राह्मण बनिया राजनीति में इन चेहरों के सामने भी मुसीबत खड़ी हो गयी थी. यहां हम बता दें कि जिस रघुवर दास को भाजपा पिछड़ों का चेहरा के रुप में स्थापित करनी की कोशिश कर रही थी, पिछड़ा समुदाय उसे स्वीकार करने को कदापी तैयार नहीं था, उसकी नजर तो किसी महतो चेहरे पर लगी हुई थी, जो भाजपा में पहले सिरे से गायब था.

हार के बाद पूरी तरह से बदल चुके थें हेमंत

इस बीच विपक्ष में रहते हुए हेमंत सोरेन झामुमो के लिए नयी जमीन को तैयार कर रहे थें, उन्हे इस बात का भान हो चुका था कि यदि पूरे झारखंड की सियासत करनी है, तो उन्हे दिशोम गुरु से आगे की रणनीति अपनानी होगी, संथाल से बाहर निकल शहरी मतदाताओं के बीच भी अपनी स्वीकार्यता स्थापित करनी होगी, इसी रणनीति के तहत कांग्रेस को स्पेस देने की कोशिश की गयी और परिणाम रंग लाया. झामुमो अपना परंपरागत किला संताल से बाहर निकल कोल्हान को भी भेदने में भी सफल हो चुका था. एसटी के लिए सुरक्षित कुल 28 सीटों में से 26 पर जीत का परचम फहरा कर झामुमो ने साफ कर दिया कि भले ही आरएसएस इस बात का दंभ भरे कि उसका झारखंड में बड़ा काम-काज है, लेकिन यह दावे हकीकत पर आधारित नहीं है. जहां बात पहचान की होगी, संस्कृति और सम्मान की होगी, आदिवासी समुदाय अपना स्वतंत्र फैसला लेने में सक्षम है. कुल मिलाकर भाजपा की जमीन पूरी तरह से बंजर हो चुकी थी, गैर आदिवासी चेहरे को मास्टर स्ट्रोक बताने का दावा झारखंड की सियासत में जमींदोज हो चुका था. और यह भी साफ हो चुका था कि अब यह राजनीति यहां चलने वाली नहीं है.

पीएम मोदी और अमित शाह को भी अपने मास्टर स्ट्रोक के खोखलेपन का हो चुका था भान

इसी बदली रणनीति और सियासत की तल्ख हकीकत के बाद पीएम मोदी और अमित शाह को अपनी भूल का एहसास हो चुका था, और यहीं से बाबूलाल की वापसी का रास्ता साफ हो गया, लेकिन बाबूलाल अब भी भाजपा से बिभरे हुए थें, उस रघुवर दास को भला वह कैसे स्वीकार कर सकते थें, जिसने उनकी पार्टी के छह विधायकों को अपने पाले में कर उन्हे गहरा जख्म दिया था. लेकिन भाजपा आलाकमान में हर गुजरते दिन के साथ बाबूलाल को अपने पाले में लाने की बेचैनी बढ़ती जा रही थी, और आखिरकार वह दिन भी आया, जब बाबूलाल भाजपा में शामिल हो चुके थें.

बाबूलाल की ताकत को समझने में भूल कर बैठे रघुवर दास

लेकिन रघुवर दास अपनी इस जमीन को नहीं समझ सकें, वैसे ही सीएम बनने के बाद उनकी भाषा और शैली बदल चुकी थी, इसी सियासी अकड़ का परिणाम था कि सरयू राय जैसे समर्पित नेता ने भाजपा छोड़ा था, और आजसू जैसी सहयोगी किनारा कर चुकी थी, जानकारों का दावा है कि रघुवर दास अपने आप को पीएम मोदी का सबसे खास मानने लगे थें, उन्हे लगता था कि वह झारखंड को अपनी मर्जी से हांकने को स्वतंत्र हैं, लेकिन जमीनी पर उनकी कोई पकड़ नहीं थी, ना तो सीएम बनने के पहले और ना ही सीएम बनने के बाद, उल्टे उनके कारण भाजपा के उपर एक से बढ़कर एक घोटाले के आरोप चस्पा हो रहे थें.

बाबूलाल ने जब झारखंड की कमान संभाली तो उन्हे यह भान हो गया कि अभी भी उनकी राह कांटों से भरी हुई है, रघुवर दास हर दिन एक नयी बाधा खड़ी कर रहे हैं, और यही कारण था कि वह अपनी कमेटी का गठन करने में भी असमर्थ थें, लेकिन जैसे ही उनके द्वारा संकल्प यात्रा निकाली गयी, यह दरार और भी बढ़ने लगा, हालत यह हो गयी कि जमशेदपुर पहुंचते ही उनकी संकल्प यात्रा दम तोड़ता दिखने लगा. जैसे ही यह खबर आलाकमान को मिली, एकबारगी रघुवर दास की विदाई का मन बना लिया गया.

गवर्नर बनाये जाने के फैसले से बेहद नाराज थें रघुवर दास

दावा किया जाता है कि जैसे ही रघुवर दास को यह खबर मिली कि उन्हे गवर्नर बना कर झारखंड की सियासत से वनवास देने का फैसला कर लिया गया है, वह कोप भवन में चले गयें, जिसके बाद केन्द्रीय आलाकमान ने अपनी उंगली को टेढ़ा करना शुरु कर दिया और उन्हे इसके संभावित परिणाम की जानकारी दे दी गयी, यह बता दिया गया किया कि आज के दिन जो ईडी और सीबीआई हेमंत सरकार के खिलाफ जांच में जुटी है, कल ही उसका मुंह आपकी ओर भी मुड़ सकता है, और उसके बाद आपका हश्र क्या होगा. यह जगजाहीर है. चाहे खूंटी मनरेगा घोटला हो, या प्रेम प्रकाश का उदय, या फिर संताल का अवैध खनन घोटला हर जगह आपकी ही तस्वीर नजर आ रही है, केन्द्रीय आलाकमान के इस रौद्र रुप को देखकर उनकी सारी हेकड़ी निकल गयी और वह सम्मानपूर्ण तरीके गवर्नर बनना स्वीकार कर लिया.

ऑपरेशन बाबूलाल का का द इंड

लेकिन कहा जाता है कि सियासत का फितूर कभी मरता नहीं है. हालांकि उन्हे यह भान हो चुका था कि बाबूलाल को कमतर आंकना उनकी सियासत पर भारी पड़ गया, और बाबूलाल ने बेहद खुबसूरती के साथ उनका काम तमाम कर दिया, लेकिन इस बीच जाते जाते रघुवर दास ने बाबूलाल की एक बड़ी हसरत पर पानी फेर दिया. वह हसरत थी कोल्हान की जमीन पर कमल खिलाने का, बाबूलाल इसकी पूरी तैयारी कर चुके थें. लेकिन रघुवर दास ने अपनी ताकत दिखलाई और मधु कोड़ा एंड फैमिली को उस खतरे से आगाह कर दिया जो उसे कमल की सवारी करने के बाद होनी थी. क्योंकि बाबूलाल वैसे ही कभी भी मधु कोड़ा को पसंद नहीं करते थें. हालांकि बदले सियासी हालत में वह जरुर वापसी का जुगाड़ लगा रहे थें. लेकिन जैसे ही मधु कोड़ा को यह विश्वास हो गया कि बाबूलाल की इस सियासत में उनकी बनी बनाई राजनीति पर भी तुषारापात हो जायेगा और कमल की इस सवारी के बाद वह कहीं के भी नहीं रहेंगे, जिसके बाद गीता कोड़ा सामने आयी और इसके साथ ही कोल्हान में बाबूलाल के ऑपरेशन का द इंड हो गया.

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Published at:04 Nov 2023 02:11 PM (IST)
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