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बकरी बेच सियासत का रास्ता, लोबिन के बगावती तेवर! जानिए वह किस्सा जब जेएमएम से टिकट कटने के बाद भी दिशोम गुरु के चरणों में भेंट किया था जीत का तोहफा

बकरी बेच सियासत का रास्ता, लोबिन के बगावती तेवर! जानिए वह किस्सा जब जेएमएम से टिकट कटने के बाद भी दिशोम गुरु के चरणों में भेंट किया था जीत का तोहफा

Ranchi-वक्त बदला, सियासत बदली, लेकिन नहीं बदला तो लोबिन का बगावती तेवर. राजमहल के जिस अखाड़े में आज ताल ठोंकते हुए लोबिन इस बात की हुंकार लगा रहे हैं कि बगावत उन्होंने नहीं की है, बगावत को झामुमो ने किया है, यह झामुमो है, जो अपने सिंद्धातों से भटकन का शिकार हुई है, जिस जल जगंल और जमीन और आदिवासी-मूलवासी अस्मिता की लड़ाई के लिए झामुमो का गठन हुआ था, उसकी नींव पड़ी थी, दिशोम गुरु ने जिस विचारधारा को अपने खून-पसीने सींचा था, सत्ता की सवारी करते ही झामुमो उस पूरी लड़ाई और संघर्ष को अतीत का हिस्सा बना चुकी  है. सत्ता की चकाचौंध का शिकार हो चुकी है, हमारी लड़ाई तो झामुमो को बचाने की है, हमारा संघर्ष को झामुमो को वापस उस राह पर  लाने की है, जिस राह पर चलते हुए गुरुजी और उनकी पीढ़ी के दूसरे नेताओं ने अपनी कर्बानी दी. गुरुजी के झामुमो में अभिषेक प्रसाद पिंटू, पंकज मिश्रा और सुनील श्रीवास्तव जैसे लोगों की क्या भूमिका हो सकती है? संघर्ष के उन साथियों को आज कहां भूला दिया गया? क्यों आदिवासी मूलवासियों की बात करनी वाली झामुमो में पंकज मिश्रा और दूसरे जैसे दूसरे किरदारों की हर गुजरते दिन के साथ  दखलअंदाजी बढ़ती गयी?और आज हालत यह हो गयी कि हेमंत सोरेन को इन लोगों की कारदास्तानियों को कारण जेल की हवा खानी पड़ी है, आखिर झामुमो के इस वैचारिक और जमीनी पतन  का गुनाहगार कौन है?

झामुमो को बचाने की लड़ाई

इसके साथ ही लोबिन ने यह हुंकार भी लगायी कि जिस विजय हांसदा को पार्टी ने टिकट दिया है,  राजमहल में उसके विरोध में असंतोष की लहर है, कार्यकर्ताओं में गुस्सा है, और लोगों में नाराजगी है. इन 10 वर्षों में विजय हांसदा की संपत्ति में ना जाने कितनी गुणी की वृधि हो गयी, जनप्रतिनिधि से वह ठेकेदार बन गया, इस हालत में पार्टी उसके चेहरे पर दांव लगा अपनी भद क्यों पिटाना चाहती है? जबकि बंसत सोरेन से लेकर सीएम चंपाई तक को इस बात की खबर है कि इस बार विजय हांसदा का जीतना नामुमकीन है,  फिर पार्टी में यह निर्णय किसके इशारों पर लिया,  गुरुजी जी को भी किनारा किया जा चुका है. इस हालत में यह हर झामुमो कार्यकर्ता की जिम्मेवारी है, वह झामुमो को बचाने को आगे आये, आज हम वही लड़ाई लड़ रहे हैं. लोबिन झामुमो से अलग नहीं हो रहा, लोबिन झामुमो को नहीं छोड़ रहा, लोबिन तो झामुमो को मजबूत करने की लड़ाई लड़ रहा है, राममहल में हमारी यह जीत गुरुजी के चरणों में भेंट होगी. यह झामुमो की  जीत होगी, और लोबिन महज उसका वाहक होगा.

क्या वाकई लोबिन पार्टी को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं

इस हालत में यह सवाल खड़ा होता कि क्या वाकई यह लोबिन की नेक ख्याली है, क्या वाकई लोबिन हेम्ब्रम पार्टी को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं या फिर यह पार्टी के अंदर दूसरी पीढ़ी के नेताओं की वर्तमान पीढ़ी की सियासी अंदाज के संघर्ष है, और क्या वाकई यदि लोबिन को जीत हासिल होती है, तो भी वह झामुमो का हिस्सा बने रहेंगे या यह सब कुछ  महज झामुमो के कार्यकर्ताओं को अपने पाले में खड़ा करने की कवायद है, तो इस बात का जवाब खोजने के पहले हमें लोबिन के शुरुआती जीवन की ओर लौटना पड़ेगा, लोबिन के सियासी संघर्ष की शुरुआत को समझनी होगी. क्योंकि उसके बाद हमें लोबिन के व्यक्तित्व को समझने में काफी हद तक मदद मिलेगी. हालांकि यह जरुरी नहीं है, कल जो लोबिन का व्यक्तित्व था, जो उनका तेवर था, आज भी वही हो, बदलते वक्त के साथ जीवन के दूसरे चीजों की तरह व्यक्तित्व में भी बदलाव आता है. बावजूद इसके कुछ हद तक समझ बनाने में मदद मिलती है.

बकरी बेच चुना था सियासत का रास्ता

दरअसल लोबिन की सियासी शुरुआत 1990 से होती है, उस वक्त गुरुजी जी बोरियो से किसी जुझारु चेहरे की खोज में थें और पार्टी संसाधनों की कमी से जुझ रही थी, पार्टी के पास अपने उम्मीदवारों पर खर्च के लिए पैसे नहीं थें. सिर्फ उनका संघर्ष और कार्यकर्ताओं का जुनून ही पार्टी की ताकत थी, गुरुजी को वही जुनून लोबिन में दिख रहा था, उस वक्त लोबिन कॉलेज की पढ़ाई कर रहे थें, लेकिन गुरुजी  के साथ जुड़ाव पुराना था, इस बीच गुरुजी ने लोबिन को चुनाव लड़ने की प्रस्ताव दिया, लेकिन यह भी साफ कर दिया कि उनके पास देने को पैसे नहीं है. यानि यह चुनाव सीमित संसाधनों ओर जन भागीदारी से लड़ा जायेगा. कहा जाता है कि उस वक्त लोबिन ने किसी प्रकार घर की बकरी और दूसरे पशुओं को बेच कर कुछ पैसे का जुगाड़ किया था, और चुनावी समर में ताल ठोंक बैठे थें, और उनके सामने थें जॉन हेंब्रम, जॉन हेंब्रम  का परिवार का उस समय झारखंड की सियासत में मजबूत पकड़ थी, दावा किया जाता है कि इस परिवार की पकड़ तक कांग्रेस के दिल्ली दरबार थी, धन बल की कमी भी नहीं थी, लेकिन चुनावी अखाड़े में जॉन हेंब्रम लोबिन जैसे नौसिखुए के हाथों सियासी शिकस्त का सामना करना पड़ा.

1995 का चुनाव जब  पार्टी ने लोबिन को किया था बेटिकट

लेकिन 1995 आते-आते पार्टी के अंदर लोबिन के विरोधी तैयार होने लगे, और एन चुनाव के पहले लोबिन का टिकट काट कर उस जॉन हेंब्रम को मैदान में उतार दिया गया, जिस जॉन हेंब्रम को पराजित कर लोबिन विधान सभा पहुंचे थें. लेकिन लोबिन ने घर बैठने के बजाय निर्दलीय चुनाव में कूदने का फैसला कर लिया, लेकिन आज की तरह उस वक्त भी लोबिन इस बात का ताल ठोंकते रहें कि गुरुजी का आर्शीवाद उनके साथ  है, भले ही गुरुजी प्रचार जॉन हेंब्रम का कर रहे हों, लेकिन उनका आशीर्वाद उनके साथ है. दावा किया जाता है कि उस वक्त लोबिन यह हर हॉट-बाजार में यह बात फैला दिया कि झामुमो का असली उम्मीदवार वह खुद है, जबकि जॉन हेंब्रम पार्टी के अंदर कुछ मुठ्ठी पर लोगों की पसंद है, और उसके बाद की कहानी एक इतिहास है, लोबिन चुनाव जीत गयें और गुरुजी का उम्मीदवार जॉन हेंब्रम  चुनावी अखाड़े से बाहर हो  गया.

जीत के साथ झामुमो के साथ खड़ा हो गये थें लोबिन

लेकिन इस जीत के साथ भी लोबिन ने पार्टी नहीं छोड़ी, दावा किया जाता है कि जीत का प्रमाण पत्र लेकर लोबिन सीधे पटना निकल गयें, चंद दिन बाद ही उन्हे इस बात की खबर मिली की आज गुरुजी दिल्ली से पटना आने वाले हैं, जैसे ही यह खबर मिली, लोबिन हवाई अड्डे की ओर निकल पड़े, कई घंटों तक दिल्ली से पटना वाली फ्लाईट का इंतजार करते रहें, और जब आसमान पर हवाई जहाज मंडराता नजर आया, सीधे मुख्य दरवाजे की ओर चल पड़ें, कुछ ही पलों  में लोबिन के सामने गुरुजी खड़े थें, देखते ही गुरुजी ने लोबिन से हालचाल पूछने की कोशिश की, लेकिन उसके पहले लोबिन अपना जीत का यह प्रमाण पत्र गुरुजी के चरणों में भेंट कर चुके थें.  इसके साथ ही एक बच्चे की तरह गुरुजी से गुहार लगा रहे थें कि उन्होंने तो पार्टी छोड़ी ही नहीं थी, वह तो उनके आशीर्वाद के बूते ही यह पूरी लड़ाई जीती है, और यदि  इस जीत का किसी का श्रेय जाता है, तो वह दिशोम गुरु को जाता है.

आज भी फिर से उसी दुमाने पर खड़े हैं लोबिन 

आज जैसे ही लोबिन ने राजमहल जैसे झामुमो के किले से निर्दलीय अखाड़े में उतरने का एलान किया है. एक बार फिर से  वही कहानी दुहराती दिख रही है, हालांकि इस बात जीत मिलेगी या सियासी शिकस्त, इसका फैसला अभी होना है. क्योंकि लोबिन अपनी जीत का जीतनी भी ताल ठोक लें, लेकिन हेमलाम मुर्मू की कहानी एक बड़ा सबक है. कभी हेमलाल मुर्मू को यह विश्वास था कि वह कमल की सवारी कर राजमहल में अपना झंडा बुंलद कर देंगे, लेकिन दो दो बार सियासी शिकस्त के बाद आखिरकार घर वापसी का फैसला किया. तो क्या लोबिन का भी वही हाल होने वाला है, इसका फैसला तो चुनाव परिणाम के घोषणा के बाद ही होगा. फिलहाल जिस सुप्रियो को लोबिन झामुमो का बाहरी चेहरा बताते रहें है, उसी सुप्रियो ने साफ साफ चेतावनी देते हुए कहा कि यदि लोबिन ने नामांकन फाइल किया तो पार्टी के पास कार्रवाई का विकल्प खुला है. तो क्या लोबिन एक बार फिर से गुरुजी के चरणों में जाने वाले हैं.  गुरुजी के आशीर्वाद से ही एक बार फिर से लोबिन का रास्ता निकलेगा.  

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Published at:11 Apr 2024 03:04 PM (IST)
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