Ranchi-चंपाई सरकार के शपथ ग्रहण के बाद पूरे झारखंड की नजर कैबिनेट विस्तार पर टिकी हुई थी, सियासी गलियारों में यह मान लिया गया था कि इस सरकार के पास एक अपार बहुमत है, जिसे तत्काल भेद पाना भाजपा के लिए दूर की कौड़ी है, 29 और 48 के आंकड़े ही इस बात की गवाही दे रहे थें कि भाजपा सासंद निशिकांत, प्रदेश प्रभारी बाबूलाल के द्वारा जो दावे किये जा रहे हैं, दरअसल वह दावे किसी ठोस बुनियाद पर नहीं होकर एक खूबसूरत अफसाना है, जिसे देखने हक हर सियासी दल को है, ताकि कार्यकर्ताओं के साथ ही उसके समर्थक समूहों के बीच भी एक उत्साह बना रहें, लेकिन इस शपथ ग्रहण के ठीक पहले जिस तरीके का सियासी ड्रामा देखने को मिला, सत्ता की चासनी चाटने की जैसी बेचैनी देखी गयी, जिस अंदाज में पार्टी निष्ठा और वफादारी को तार-तार करने की धमकी दी गयी, उसके बाद सियासत का एक नौसिखुआ भी बता सकता है कि इन विधायकों की निष्ठा की सवारी कर चंपाई सरकार की गाड़ी लम्बी नहीं चलने वाली है. क्योंकि जिस तेवर और भाषा का इस्तेमाल इनके द्वारा किया जा रहा है, उसके बाद इस बात में कोई संशय नहीं है कि आने वाले विधान सभा सत्र के दौरान जब मनी बिल को विधान सभा के फ्लोर पर रखा जायेगा, उस वक्त क्या हालात होने वाले हैं. निश्चित रुप से उस वक्त यह सरकार हांफती नजर आ सकती है, और यदि उस वक्त एक साथ ये 10 विधायक नदारद हो गयें तो उसी विधान सभा के प्लोर पर ही यह सरकार अपना दम भी तोड़ सकती है.
उमड़ती जनभावनाओं कत्ल करने की राह पर कांग्रेस
यहां याद रहे कि जिस हेमंत की गिरफ्तारी को भाजपा अपने मास्टर स्ट्रोक के रुप में प्रस्तूत करने की कोशिश कर रही थी, यह सपना सजों रही थी कि इस गिरफ्तारी के बाद आम लोगों के बीच से इस सरकार के प्रति एक गुस्से की झलक देखने को मिलेगी, हेमंत सोरन पर भ्रष्टाचार का आरोप चस्पा हो जायेगा, सारा दांव ही उल्टा पड़ने दिखने लगा था. झारखंड के हर कोने से हेमंत के प्रति एक जनसैलाब उमड़ता दिखा और जनभावनाओं के इस उफान के सामने भाजपा को भी अपना स्टैंड बदलना पड़ा, अचानक से सुदेश महतो से लेकर दूसरे विपक्षी नेताओं की भाषा बदलती नजर आयी, कोई हेमंत को अपना बड़ा भाई बता रहा था, तो कोई अपना अभिभावक और खुद भाजपा इस बदले सियासी हालत में हेमंत पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने के बजाय कांग्रेस पर हमलावर होती नजर आ रही थी, मानो मुद्दा हेमंत का भ्रष्टाचार नहीं होकर कांग्रेस की अतीत की कथित गलतियां हो. कांग्रेस के अतीत के उसी गुनाह को जड़ मूल समाप्त करने के लिए हेमंत को गिऱफ्तार किया गया हो. साफ है कि भाजपा के रणनीतिकारों को इस बात का एहसास हो रहा था कि हेमंत की गिरफ्तारी एक बड़ी सियासी भूल हो गयी. उधर झामुमो इस गिरफ्तारी को भी अपने पक्ष में बेहद सियासी खूबसूरती के साथ इस्तेमाल करती दिख रही थी, हेमंत यानि झारखंड का प्रतिविम्ब खड़ा किया जा रहा था, हेमंत की गिरफ्तारी को झारखंड के स्वाभिमान के साथ जोड़कर परोसनी की सियासी बिसात बिछायी जा रही थी, और झामुमो इस सियासी विसात में कामयाब होती भी दिख रही थी. लेकिन अब जो हालत बन रहे हैं, उसके बाद तो लगता है कि जैसे कांग्रेस इस बार प्रमाणित करने की कोशिश कर रही हो कि हम पर जो भी आरोप लगाये जा रहे थें, वह सौ फीसदी सत्य है, हम तो सत्ता के साथ ही चलना जानते हैं, सत्ता की मलाई दूर हटी नहीं कि हमारी विचारधारा और प्रतिबद्धता का कोई मायने नहीं रहता, हमें तो किसी भी कीमत पर सत्ता चाहिए, और हालत यह है कि यदि एक को मनाया जाता है, तो दूसरा बगावत का झंडा लेकर खड़ा हो जाता है, और इसमें सिर्फ वह नहीं है, जो आज बगावत का झंडा लेकर खड़े हैं, जिन मंत्रियों के कारण यह विवाद सामने आ रहा है, पूरी पार्टी टूटती नजर आ रही है, आखिर उनको अपनी कुर्सी से इतना प्रेम क्यों है? वह अपने आप ही अपनी कुर्सी का त्याग कर इस बात को साबित क्यों नहीं करते कि उनके लिए सत्ता ही सब कुछ नहीं है, पार्टी रहेगी तो सत्ता को कभी भी हासिल किया जा सकता है, पार्टी से ही तो सत्ता आती है, लेकिन ऐसा नहीं है, उन्हे पता है कि सत्ता जहां भी होगी, हमारी वफदारी वहीं होगी, यानि कांग्रेस के सामने खतरा दुहरा है, यदि इन मंत्रियों से कुर्सी छीनी गयी तो कल ये भी पार्टी को बॉय-बॉय करने में देरी नहीं करेंगे.
कौन है इसका जिम्मेवार
इस हालत में यह सवाल खड़ा होना लाजमी है कि इसका गुनाहकार कौन है, आखिरकार कांग्रेस के रणनीतिकार अपने ही पार्टी के विधायकों को समझा पाने में नामायाब क्यों रहें? क्योंकि शपथ ग्रहण भले ही सम्पन्न हो चुका हो, लेकिन इन विधायकों के सीने में सत्ता की मलाई दूर खिसकने के दर्द अभी भी कायम है, और यह कोई आश्चर्य नहीं होगा कि कल इसमें कई विधायक विपक्षी पाले में खड़े नजर आयें, तो क्या कांग्रेस के रणनीतिकारों को विधायकों के अंदर सुलग रहे इस आग की जानकारी नहीं थी, यदि नहीं थी को क्या यह उनकी प्राथमिकता के केन्द्र में नहीं था? अपने विधायकों का दर्द समझने के बजाय उनकी दिलचस्पी इस सत्ता से निकलते प्रसाद के बंटवारे में ज्यादा थी? सारी उर्जा अपने अपने व्यक्तिगत लाभ-हानि के इर्द घूम रहा था, उनकी उर्जा इस बात में खत्म हो रही कि इस सत्ता का “सदुपयोग” करते हुए ट्रांसफर-पोस्टिंग के धंधे को कैसे चमकाया जाय? ताकि यह सत्ता रहे या ना रहे, सत्ता जिसकी भी आये, इस जमा पूंजी के भरोसे उस सत्ता में भी अपना जुगाड़ बिठाया जा सके. पार्टी की जो गति हो वह हो, लेकिन अपनी सियासत चलती रहे.
हालात को भांपने में क्यों नाकामयाब रहे मीर या सत्ता की मलाई खाते कांग्रेसियों को सामने हुए लाचार
लेकिन बड़ा सवाल को अभी हाल ही में झारखंड कांग्रेस प्रदेश प्रभारी का कमान संभाले कश्मीर वाले मीर साहब का है, क्या मीर साहब को भी यहां के कांग्रेसियों ने जमीनी हालात की भनक भी नहीं लगने दी? या फिर यह पाठ समझाने में कामयाब रहें कि जैसे चलता है, चलने दीजिये, लोकसभा चुनाव के पहले इस बर्रे के खोथे में हाथ डालना आग लगाने के समान होगा? या फिर सत्ता तक पहुंचाये गये मंत्रियों के सहारे आमद इतनी है सब कुछ उपर तक फिक्स हो चुका है, और मीर साहब बेचारा बन कर रह गये है, चाहे जो हो, लेकिन इतना साफ है कि हेमंत की गिरफ्तारी के बाद झामुमो का राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव में विस्तार हुआ है, और यदि यह सरकार गिरती है, तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही होगा, क्योंकि झारखंड की सियासत में हेमंत का कद इतना बड़ा हो चुका है, कि अब वह खुद अपनी ताकत के बल पर बैटिंग करने की स्थिति में हैं. एकाएक फिल्डर वह कहीं से भी खोज सकते हैं, जो बूरा गत होना है वह कांग्रेस और उसके सियासी भविष्य का है.
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