Ranchi- अपनी तल्ख भाषा और तेवर के साथ राजनीति-सामाजिक सत्ता में आदिवासी-मूलवासियों की हिस्सेदारी-भागीदारी का सवाल, उसकी अस्मिता और पहचान की आवाज बन कर सामने आये जयराम अपनी राजनीति के चरमोत्कर्ष पर पहुंचे के पहले ही विवादो में घिरते नजर आने लगे हैं. जयराम के वह सहयोगी जो भाषा आन्दोलन के समय कंधा से कंधा मिलाकर प्रतिरोध की आवाज बन कर चट्टान की तरह खड़े नजर आ रहे थें, आज उनके वही हरदिल अजीज साथी सोशल मीडिया से लेकर दूसरे प्लेटफार्मों पर जयराम के खिलाफ ही आग उलगलते नजर आने लगे हैं.
अभी तो आन्दोलन अपने शैशव अवस्था में है
आम रुप से किसी भी आन्दोलन की यह परिणति उसके चरमोत्कर्ष के बाद की होती है. जब यह सवाल उभरने लगता है कि इतने दिनों का संघर्ष और बगावत के बाद आखिर हाथ क्या लगा? जिस सपनों का पीछा करते हुए हम आगे बढ़ रहे थें, उस दिशा में हम कितना कदम चल पायें, हमारे प्रयासों और जद्दोजहद से कितनी आंखों में रोशनी आयी, जिंदगी में क्या बदलाव हुआ? और यही स्थिति आन्दोलन के बिखराव की होती है, लेकिन अभी तो जयराम का आन्दोलन अपने शैशवकाल से बाहर भी नहीं निकला था, और उसके पहले ही सहयोगियों में आंतरिक विभाजन और क्लेश की यह स्थिति सामने आ गयी. और यह स्थिति जयराम के व्यक्तिव के साथ ही आन्दोलन की पूरी प्रांसगिकता पर भी सवाल खड़े कर रहा है.
क्या जयराम को रॉबिनहुड की छवि प्रदान करने की कोशिश की जा रही है
जयराम के खिलाफ सबसे बड़ा आरोप यह लगाया जा रहा है कि वह आदिवासी-मूलवासी समाज के लिए मिले चंदे का इस्तेमाल अपने व्यक्तिगत रसूख और प्रचार के लिए कर रहे हैं, सवाल खड़ा किया जा रहा है कि आखिर ऐसी क्या परिस्थिति आ खड़ी हुई है कि जमीन पर बैठ कर बासी रोटी खाने वाला जयराम आज लाखों रुपये की कार का सफर कर रहा है, सवाल यह उठाया जा रहा है कि आदिवासी मूलवासी समुदाय के जिस चंदे को आंदोलन के लिए खर्च किया जाना चाहिए था, उस पैसे को मुम्बई दिल्ली और दूसरे शहरों में “शो” के रुप में क्यों फूंका जा रहा है, इन तमाम “शो” से जयराम को एक रॉबिनहुड की छवि प्रदान करने की कोशिश क्यों की जा रही है, सवाल किया जा रहा है कि जयराम को चंदा देने वाले वह आदिवासी-मूलवासी समुदाय है, जो आजादी के 75 वर्षों के बावजूद आज भी सरकारी राशन पर जिंदा रहने को अभिशप्त है और इस भंयकर गरीबी और त्रासदी के बीच वह अपना पेट काट कर वह चंदा सिर्फ इसलिए दे रहा है, क्योंकि उसे यह विश्वास है कि जयराम के आन्दोलन से उसकी जिंदगी में एक आमूलचूल बदलाव आयेगा, उसे हाशिये की जिंदगी से मुक्ति मिलेगी. उसे अपने खेत, खलिहान और खदानों की मिल्कियत मिलेगी, जिसे यह विश्वास है कि शहीद निर्मला दा, भगवान बिरसा और दूसरे दर्जनों शहीदों के सपनों को जमीन पर उतारने की दिशा में जयराम संघर्ष कर रहे हैं. जिन्हे यह विश्वास है कि जयराम उनकी माटी की आवाज है, वह उसकी बोली बोलता है, उसी के जैसा सोचता है, उसका सपना आदिवासी-मूलवासियों का सपना है, दोनों अलग-अलग नहीं होकर एक ही दरिया के सहचर है.
क्या जयराम के पीछे किसी की फंडिंग है
लेकिन सवाल यह है कि जयराम की छवि को आखिर एक रॉबिनहुड की छवि प्रदान करने की कोशिश क्यों की जा रही है. क्या जयराम के पीछे किसी कॉरपोरेट की फंडिग है? क्या जयराम की पूरी कवायद महज किसी सियासी दल की साजिशों का नतीजा है? क्या जयराम आदिवासी-मूलवासियों की सामूहिक चेतना की आवाज नहीं होकर महज एक कठपुतली हैं. जो भाषा तो आदिवासी मूलवासी समाज की बोलता है, मुद्दे तो हाशिये की उठाता है, बात तो प्रतिरोध और बगावत की करता है, लेकिन जिसकी मंशा निहायत व्यक्तिगत है, जो बात संविधान की करता है, जिसके हाथ में तो संविधान की प्रति होती है, लेकिन उसके दिल में व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा है.
कई जानकारों के द्वारा जयराम को समावेशी राजनीती की ओर बढ़ने की सलाह दी जा रही है, बताया जा रहा है कि यदि जयराम को झारखंड की सियासत पर कब्जा करना है. सत्ता की सवारी करने की है, तो उसे अपना फोकस बदल कर समावेशी राजनीति की शुरुआत करनी होगी, “समावेशी राजनीति” यह शब्द सुनने में जितना अच्छा लगता है, दरअसल यह उतना ही छलपूर्ण है, वंचित समाज की राजनीति करने वालों को लिए तो यह शब्द बेहद निरर्थक है, उसे तो अपना पूरा फोकस आदिवासी मूलवासी राजनीतिक और सामाजिक सशक्तीकरण पर रखना होगा, उस राजनीति और राजनीतिक सफलता क्या मायने, जहां आपको अपने उसुलों से समझौता करना पड़े.
आदिवासी-मूलवासी के बीच दीवार खड़ी करने की कोशिश सामाजिक न्याय की सोच पर हमला
लेकिन मूल सवाल वही है कि क्या इन तमाम प्रश्नों पर खुद जयराम की सोच क्या है? निश्चित रुप से जयराम को सामने आकर इन तमाम सवालों का जवाब देना चाहिए. उन्हे साथियों की पीड़ा और शिकायत का भी निराकरण करना चाहिए, उनकी तमाम शंकाओं का समाधान करना चाहिए, एक अच्छे नेतृत्व की यही खासियत है. जहां तक जयराम पर यह आरोप चस्पा करने की कोशिश की जा रही है कि वह सिर्फ कुड़मियों की आवाज बन कर सामने आ रहे हैं, तो सवाल यह है कि इस आरोप का आधार क्या है, क्या जयराम को कुड़मी साथियों का छोड़ देना चाहिए, क्या कुड़मी मूलवासी नहीं है, क्या कुड़मी झारखंडी नहीं है, क्या वह भूमि पुत्र नहीं है, और यदि वे हैं तो कुड़मी जाति को अपने साथ जोड़ने में परेशानी क्या है, हां सवाल यह हो सकता है कि जयराम को अपने साथ झारखंड के आदिवासी मूलवासी समाज के सभी समुहों को प्रतिनिधित्व देना चाहिए, ऐसा कहीं से भी नजर नहीं आना चाहिए कि कुड़मी जाति के प्रति उनकी कोई विशेष पक्षधरता है, बल्कि एक सजग नेतृत्व को सबसे अधिक हिस्सेदारी उस समाज को देना चाहिए जो सामाजिक रुप से सबसे ज्यादा वंचित है, निश्चित रुप से इस आधार पर आदिवासी समाज को विशेष तवज्जो दिया जाना चाहिए, हां जो मूल सवाल है, वह है कुड़मियों के लिए आदिवासी दर्जे की मांग, तो इसका निराकरण आन्दोलन से नहीं होकर शोध के जरिये हो सकता है, यह विशुद्ध बौद्धिक विमर्श है, जिसके निराकरण के लिए हमारे पास संस्थायें है, शोध संस्थान है, और इस सवाल का जवाब उन संबंधित संस्थानों पर छोड़ा जा सकता है, लेकिन इस बहाने आदिवासी मूलवासियों की बीच में दीवार खड़ी करनी कोशिश एक खतरनाक चाल है.
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