TNP DESK-झारखंड में चुनावी रणभेरी बज चुकी है. भाजपा और आजसू गठबंधन की ओर से अपने सभी प्रत्याशियों का एलान कर दिया गया है, जबकि इंडिया एलाइंस की ओर से कांग्रेस ने खूंटी, लोहरदगा और हजारीबाग और सीपीआई माले ने कोडरमा से प्रत्याशियों का एलान किया है, कांग्रेस की ओर से जल्द ही दूसरी सूची जारी होने की संभावना जतायी जा रही है. आज या कल इसकी घोषणा की जा सकती है. लेकिन इस सियासी भिड़त में इस बार कुर्मी मतदाताओं की क्या रुख होगा एक बड़ा सवाल बनता दिख रहा है. यहां याद रहे कि एक दावे के अनुसार झारखंड में कुर्मी मतदाताओं की संख्या करीबन 16 फीसदी है और आबादी करीबन 76 लाख की है. हालांकि यह कोई प्रमाणित आंकड़ा नहीं है, कई कुर्मी नेताओं के द्वारा झारखंड में कुड़मियों की आबादी 20-25 फीसदी बतायी जाती है. कुड़मी मतदाता कभी भाजपा तो कभी झामुमो के साथ ख़ड़ा होते रहे हैं. यदि वर्ष 2019 की बात करें तो कुर्मी मतदाताओं का बहुसंख्यक वोट भाजपा और आजसू के पास गया था. लेकिन इस बार तस्वीर कुछ दूसरी बनती दिख रही है, और इसका कारण है, कुड़मी जाति के द्वारा अनुसूचित जाति में शामिल करन की मांग को केन्द्रीय जनजातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा के द्वारा सिरे से खारिज करना. दावा किया जा रहा है कि कुड़मी मतदाताओं के बीच इस बार नाराजगी है और इसका असर चुनावी परिणाम में देखने को मिल सकता है.
कुड़मी बहुल लोकसभा की सीटें
यहां याद रहे कि झारखंड की कुल 14 लोकसभा की सीटों में रांची में 17 फीसदी, हजारीबाग-15 फीसदी, जमशेदपुर-11 गिरिडिह-19 और धनबाद में-14 फीसदी कुड़मी मतदाताओं की संख्या है. इसके साथ ही दूसरे लोकसभा क्षेत्रों में भी कुड़मी मतदाताओं का अच्छा खासा सियासी दखल है. इसका एक उदाहरण चाईबासा लोकसभा की सीट है, यह सीट भले ही अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हो, लेकिन यहां हार जीत की चाभी हमेशा से कुड़मी मतदाताओं के हाथ रहती है. इस हालत में सवाल खड़ा होता है कि कुड़मियों की कथित नाराजगी में कुड़मी बहुल रांची, हजारीबाग, जमशेदपुर, गिरिडीह और धनबाद में इस बार सियासी समीकरण क्या होने वाला है. क्या एक बार फिर से कुड़मी मतदाताओं का बहुसंख्यक हिस्सा भाजपा-आजसू के साथ खड़ी होगी या उनकी नाराजगी असर लोकसभा की इन सीटों पर देखने को मिलेगा. सवाल यह भी है जिस तरीके से केन्द्रीय जनजातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा ने कुड़मियों की इस मांग को खारिज कर सियासी जोखिम लिया है, क्या उसका असर खूंटी लोकसभा में भी देखने को मिलेगा? क्योंकि भले ही खूंटी में अनुसूचित जनजाति की आबादी करीबन 59 फीसदी की हो, लेकिन इसके साथ ही कुड़मी मतदाताओं की भी एक बड़ी संख्या निवासी करती है. इस प्रकार यदि हम समझने की कोशिश करे तो कुल सात लोकसभा की सीटों पर इस बार कुड़मी सियासी दलों का भविष्य लिखने जा रहे हैं, दरअसल कुड़मियों की नाराजगी का एक और बड़ा कारण उनकी आबादी के अनुरुप प्रतिनिधित्व का अभाव है, अमुमन सियासी दलों के द्वारा प्रतिनिधित्व के मामले में कुड़मियों की उपेक्षा की जाती है, जबकि दूसरे कई सामाजिक समूह जिनकी आबादी कुछ खास नहीं है, बाजी मार जाते हैं. कुड़मी मतदाताओं का मानना है कि सियासी दलों में उनके वोट को लेकर मारी मारी तो खुब रहती है, लेकिन जब टिकट वितरण की बात आती है, तो हम किसी कोने में खड़े नजर आते हैं, वर्ष 2019 में भी यही स्थिति थी, 25 फीसदी के आबादी के बावजूद हमारे सिर्फ दो सांसद लोकसभा तक पहुंचे थें, जबकि जिनकी आबादी दो से तीन फीसदी भी नहीं है, उनके हिस्से कहीं अधिक सीटें थी.
अब तक कितने कु़ड़मियों को मिला टिकट
यदि हम वर्तमान टिकट वितरण की बात करें तो इस बार भी भाजपा ने महज एक कुडम़ी विद्यूत वरण महतो को जमशेदुपर से उम्मीदवार बनाया है, वहीं आजसू ने गिरिडीह से चन्द्रप्रकाश चौधरी को मैदान में उतारा है, जबकि कांग्रेस की ओर से घोषित अब तक तीन प्रत्याशियों में एक जेपी पेटल को टिकट मिला है, इस हालत में एनडीए खेमा अपने पुराने समीकरण के साथ ही खड़ी है, यानि कुड़मियों की तुलना में उसने वैश्यों को कहीं अधिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया है, अब देखना होगा कि इंडिया गठबंधन की जब पूरी सूची आती है तो उसकी तस्वीर क्या होती है, हालांकि अब तक की जानकारी के अनुसार झामुमो जमशेदुपर से स्नेहा महतो, गिरडीह से मथुरा महतो को मैदान में उतराने जा रही है, लेकिन सवाल है कि रांची और धनबाद की तस्वीर क्या होगी, हालांकि बीच बीच में रांची से राम टहल चौधरी का नाम सामने आता है, लेकिन दावा किया जाता है कि सुबोधकांत सहाय अभी भी मैदान छोड़ने को तैयार नहीं है, इस हालत में बड़ा सवाल यह है कि क्या रांची लोकसभा की 17 फीसदी कुड़मी आबादी सुबोधकांत सहाय के साथ खड़ी होगी. क्योंकि हार जीत का आखिरी फैसला इनके ही हाथों से होना है.
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