Ranchi-जनवरी की इस हाड़ तोड़ती ठंड में भी झारखंड की सियासत में तपिश बरकरार है, और हर चाल के पीछे 2024 का लोकसभा का महासंग्राम और उसके ठीक बाद होने वाला विधान सभा का सियासी मैदान है. गोटियां उसी की बिछायी जा रही है, मोहरे उसी के चले जा रहे हैं, चाहे सीएम हेमंत को ईडी का सातवां समन हो या उस समन को रद्दी की टोकरी में फेंकने की कसरत, या फिर राज्य में चेहरा बदलने के दावे हों या उस दावे के समानान्तर सरकार की स्थिरता का उद्घोष, हर चाल 2024 और उसके बाद के विधान सभा चुनाव के मद्देनजर ही फेंके जा रहे हैं, हर सियासी दल इसका आकलन करने में व्यस्त है कि कहीं उसका चाल उलटी दिशा की सैर तो नहीं कर रही है. जिस दांव को वह अपने जीत का आसरा मान रही है, कहीं वही चाल हार की पटकथा तो नहीं लिखने वाली है. और शायद यही कारण है कि तमाम गर्जना और सिंहनाद के बावजूद सीएम हेमंत की कुर्सी निरापद बची हुई है, क्योंकि भाजपा खेमे में इस बात का डर तो जरुर है कि जैसे ही ईडी का हाथ सीएम हेमंत की ओर बढ़ा, इसका एक बड़ा सियासी मैसेज आदिवासी-मूलवासी समाज के बीच जायेगा, और उसे उसकी कीमत चुकानी होगी, क्योंकि जब सियासी शहादत का चादर ओढ़ हेमंत या उनके दूसरे सिपहसलार मैदान में सिंहनाद करेंगे तो भाजपा उसका मुकाबला सिर्फ भ्रष्ट्राचार का अलाप लगाकर नहीं कर सकती.
दूसरे खेमे भी बढ़ा हुआ है सियासी बीपी
और ऐसा भी नहीं है कि धड़कन दूसरी ओर बढ़ हुई नहीं है, सियासी बीपी वहां भी हाई है, धड़कने वहां भी बढ़ी हुई है, अंदेशें उस खेमे भी है, और अंदेशा इस बात को लेकर है, क्या इस शहादत की मुद्रा का उनकी वोटों के फसल पर कोई असर पड़ेगा, क्या रोज रोज ईडी का समन जिस तरीके से अखबारों की सुर्खियां बन रही है, वह उसी रुप में उसके फेवर में जाने वाला है, जिस दिशा में उनका आकलन जा रहा है, कहीं इसका उल्टा असर तो उनके मतदाताओं पर तो नहीं पड़ने वाला है? और यही कारण है कि ना तो भाजपा हेमंत सोरेन को छुने की हिम्मत कर पा रही है, और ना ही सीएम हेमंत उस तेज आवाज में सिंहनाद करते नजर आ रहे हैं, हालांकि बीच-बीच में उनका मनोबल आसमान जरुर छुने लगता है, लेकिन दूसरे पल उनके सामने भी आशंकाओं के बादल उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं.
क्या आने वाले बजट में ही दिखने वाला है यह सिंहनाद
अब जब जनवरी का महीना गुजरने को है. आने वाले दिनों में बजट की तैयारी करनी है, और बजट भी लोकसभा चुनाव और उसके बाद होने वाले विधान सभा चुनाव को सामने रख कर ही लिखा जाना है. तो क्या सीएम हेमंत की गर्जना का असर उस बजट में भी दिखने वाला है, यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि क्योंकि पिछले कुछ महीनों में हेमंत सरकार की ओर से जो लोकलुभावन घोषणाएं की जा रही है, क्या उसके लिए बजट का आवंटन भी उसी रुप में सामने आयेगा. शादय देश का पहला राज्य झारखंड है, जहां वंचित परिवारों को तीन कमरे का आवास देने की घोषणा हुई है, करीबन आठ लाख परिवारों को तीन कमरे का आवास दिये जाने की चुनौती है, इसके साथ ही पेंशनधारियों की संख्या में दो सौ गुणा से अधिक की भारी भरकम वृद्धि की गयी है, 16 लाख से आगे बढ़कर यह आंकड़ा करीबन 36 लाख तक पहुंच चुका है. इसके साथ ही पेंशन के लिए आदिवासी दलितो की उम्र को 60 के बजाय 50 करने का मास्टर स्ट्रोक भी आ सामने आ चुका है, तो सवाल यह भी है कि क्या आने वाले चुनावी बजट में हम कुछ और घोषणाओं का इंतजार कर सकते हैं.
क्या सिर्फ गांव, युवा, महिला और किसान के बुते ही लड़ी जायेगी पूरी लड़ाई
हालांकि खुद सीएम हेमंत ने गांव, युवा, महिला और किसान को प्राथमिकता में रखने का संदेश देकर यह साफ तो जरुर दिया है कि उनके फोकस में राज्य की तीन चौथाई आबादी है, लेकिन अब तक किसी विशेष सामाजिक समूह पर फोकस करने की बात नहीं की गयी है, तो क्या इस बार के बजट में आदिवासी दलित, पिछड़ी जातियां और अल्पसंख्यक समुदाय के लिए कुछ विशेष बजट प्रावधान नहीं होना जा रहा है? गांव, युवा, महिला और किसान के बुते ही हर सामाजिक वर्ग को साध लिया जायेगा, लगता तो ऐसा नहीं है. निश्चित रुप से इस बार के बजटीय आवंटन में मतदाताओं का एक विशेष वर्ग तैयार करने की कोशिश की जायेगी. उनके हितों का ख्याल करते हुए राज्य की तिजोरी खोली जायेगी, यह विशेष सामाजिक समूह आदिवासी भी हो सकते हैं, और राज्य की 12 फीसदी दलित आबादी भी.
दलित वोट बैंक को साधना हेमंत सरकार की सबसे बड़ी चुनौती
यहां ध्यान रहे कि पिछले विधान सभा चुनाव में जिस एकजूटता के साथ आदिवासी समाज झामुमो के साथ खड़ा हुआ था, दलित जातियों के बीच झामुमो के पक्ष में वह ध्रुवीकरण नहीं दिखा था, जहां आदिवासी समाज के लिए आरक्षित 28 सीटों में से 26 पर महागठबंधन का परचम लहराया था. वहीं दलितों के लिए आरक्षित देवघर, जमुआ, चंदनकियारी, सिमरिया, चतरा, छतरपुर, लातेहार, कांके और जुगसलाई सीट पर भाजपा ने कमल खिला कर यह साफ कर दिया था कि भले ही आदिवासी समाज के बीच झामुमो की तूती बोलती हो, लेकिन दलित जातियों के बीच उसकी पकड़ आज भी मजबूत बनी हुई है. झामुमो के हिस्से सिर्फ लातेहार और जुगसलाई की सीट ही आयी थी, जबकि चतरा आरक्षित सीट पर राजद ने लालटेन जलाया था, इस प्रकार देखे तो दलितों के लिए आरक्षित नौ सीटों में छह पर भाजपा ने कमल खिला दिया, इस हालत में यदि आदिवासी दलितों के लिए वृद्धा पेंशन की उम्र करने की राह पर कुछ और भी बड़े फैसले लिये जाय और उसका बजटीय प्रबंधन किया जाय तो आश्यर्य नहीं होगा
प्रधानमंत्री मोदी का झारखंड दौरा रद्द, सूबे में किसी सियासी भूचाल की आहट तो नहीं!