Ranchi- राजमहल, बोरिया-(एसटी सुरक्षित), बरहेट--(एसटी सुरक्षित), लिटिपारा--(एसटी सुरक्षित), पाकुड़ और महेशपुर--(एसटी सुरक्षित) विधान सभा को अपने आप में समेटे राजमहल संसदीय सीट पर आजादी के बाद लगातार कांग्रेस का डंका बजता रहा. हालांकि बीच में दो बार झारखंड पार्टी के ईश्वर मरांडी को भी कामयाबी का स्वाद चखने का मौका जरुर मिला. लेकिन 1977 के इंदरा विरोध के लहर में जनता पार्टी के एंथोनी मुर्मू ने उन्हे मैदान से बाहर कर दिया. और 1989 आते आते झामुमो यहां कांग्रेस के मुकाबले मुख्य विपक्षी दल के रुप में स्थापित हो चुकी थी.
1998 में सोम मरांडी के साथ होती है भाजपा की इंट्री
यदि हम भाजपा की करें तो पहली बार 1998 में इस सीट पर सोम मरांडी के रुप में भाजपा की पहली इंट्री होती है और भाजपा ने यह करिश्मा 2009 में ही दुहराया, जब उसने देवीधन बेसरा के आगे कर सफलता पूर्वक कमल खिला दिया. लेकिन जैसे यहां भाजपा की जमीन मजबूत होती, कांग्रेस खेल से बाहर होता गया. और आज की सच्चाई यही है कि यहां मुकाबला झामुमो और भाजपा के बीच ही होना है. कहा जा सकता है राजमहल के राज के कांग्रेस का निष्कासन हो चुका है. उसकी जमीन झामुमो से लेकर भाजपा के हाथों जोती जा चुकी है. अब ना उसके पास पाईका मुर्मू जैसे आजादी के पहले नेता है, और ना ही सेठ हेम्ब्रम जैसे कद्दावर जमीनी नेता. थॉमस हांसदा के सियासी परिदृश्य से गायब होने के बाद आज राजमहल में कोई उसका चेहरा भी नहीं बचा है.
विजय हांसदा के विजय रथ को रोकने के लिए भाजपा का पहलवान कौन
इस हालत में सवाल खड़ा होता है कि क्या झामुमो एक बार फिर से विजय हांसदा पर ही अपना दांव लगायेगी. और यदि पहलवान विजय हांसदा ही होंगे तो उनके मुकाबले में भाजपा का चेहरा कौन होगा? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि झामुमो ने अपने पुराने कार्यकर्ता हेमलाल मुर्मू को पार्टी में वापसी करवा कर पहले ही भाजपा को निहत्था खड़ा कर दिया है. 2019 हो या 2014 का मुकाबला दोनों ही बार विजय हांसदा के मुकाबले भाजपा की ओर से हेमलाल मुर्मू ने मोर्चा संभाला था, लेकिन झामुमो से अलग राह पकड़ते ही हेमलाल मुर्मू अपना कोई करिश्मा दिखला नहीं सकें और थक हार कर तीर धनुष थामने में ही अपना सियासी भविष्य नजर आया.
जीत का परमच फहराने के बजाय मुकाबले में बने रहने की लड़ाई लड़ेगी भाजपा
तब सवाल खड़ा होता है कि क्या इस बार भाजपा यहां परचम फहराने के इरादे के बजाय अपने को मुख्य मुकाबले में बनाये रखने की लड़ाई लड़ने वाली है. लेकिन इस निष्कर्ष तक जाने के पहले हमें यह भी याद रखना चाहिए कि इस बार बाबूलाल अपनी कंधी छोड़ कर कमल की सवारी पर हैं. और यदि आप 2014 के मुकाबले को गौर से समझने की कोशिश करें तो यह साफ हो जायेगा कि बाबूलाल किस प्रकार भाजपा की नैया को पार करने में एक मजबूत कड़ी साबित हो सकते हैं, 2014 के मुकाबले में झामुमो उम्मीदवार विजय हांसदा को करीबन तीन लाख उन्नहर हजार वोट मिले थें, जबकि उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा के हेमलाल मुर्मू के खाते में करीबन तीन लाख अड़तीस हजार वोट गया था, लेकिन इसके साथ ही बाबूलाल की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा के हिस्से में 97,374 वोट मिला था, साफ है कि यदि बाबूलाल भाजपा के साथ खड़े होते तो यह सीट झामुमो के पक्ष में जाना मुश्किल हो सकता था, लेकिन जैसे ही 2019 के मुकाबले में बाबूलाल ने मैदान खाली किया, भाजपा और झामुमो के बीच जीत का यह अंतर एक लाख से पार चला गया. तो क्या बाबूलाल की घर वापसी रंग दिखाने की कुब्बत रखती है, लेकिन इस सवाल का जवाब तलाशने के पहले हमें एक दूसरी घर वापसी पर भी निगाह डालना होगा, वह घर वापसी है हेमलाल मुर्मू का, भाजपा की मुश्किल यह है कि इस बार उसका पहलवान ही दंगल के पहले विपक्षी खेमे के साथ खड़ा हो चुका है. और यहीं से भाजपा की हालत पतली होती नजर आती है.
जमीन पर किसकी कितनी ताकत
यदि इससे हटकर भी हम भाजपा झामुमो की जमीनी ताकत को आकलन करने की कोशिश करें, तो इस संसदीय सीट के अंतर्गत आने वाली छह विधान सभा में से राजमहल को छोड़ कर सभी विधान सभाओं में महागठबंधन का डंका बज रहा है, राजमहल सीट पर भाजपा के अनंत ओझा, बारियो से झामुमो के फायर ब्रांड नेता लोबिन हेम्ब्रम, बरहेट से खुद सीएम हेमंत, लिटिपारा से दिनेश विलियम मरांडी (झामुमो), पाकुड़ से कांग्रेस का अल्पसंख्यक चेहरा- आलमगीर आलम तो महेशपुर से स्टाफिन मरांडी ने कमान संभाल रखी है. इस हालत में भाजपा के पास कितनी जमीन शेष है, और संघर्ष का मादा कितना है, इसका सहज आकलन किया जा सकता है, लेकिन एक पैंतरा लोबिन हेम्ब्रम का भी है. सवाल यह है कि लोबिन दादा क्या एक बार फिर से पानी पानी पी पीकर हेमंत को कोसेंगे, क्या वह एक बार फिर से हेमंत के उपर आदिवासी मूलवासियों के मुद्दों के साथ धोखाधड़ी करने का आरोप लगायेंगे, क्या वह एक बार फिर से हेमंत सोरेन को आदिवासी मूलवासियों की भावनाओं के साथ सियासी खेल खेलने का तोहमत लगायेंगे, और यदि ऐसा होता है तो इसका नुकसान झामुमो को झेलना पड़ा सकता है. इस हालत में देखना होगा कि झामुमो अपने की इस फायर ब्रांड नेता पर किस हद तक लगाम लगा पाती है. झामुमो की चुनौती भाजपा से कम अपने ही नेताओं से कुछ ज्यादा नजर आ रही है, और क्या हेमलाल मुर्मू लोबिन हेम्ब्रम की काट हो सकते हैं, इन सारे सवालों का जवाब के लिए हमें चुनाव परिणाम का इंतजार करना पडेगा.
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