Ranchi-बिहार झारखंड में मानसिक इलाज लिए प्रख्यात रांची पागलखाना यानि सीआईपी की आज 106वीं वर्षगांठ है. बताया जाता है कि प्रथम विश्व युद्ध के दरम्यान देश में मानसिक रुप से बीमार लोगों की संख्या में काफी तेजी से इजाफा हुआ था, पागलों की इस बढ़ती संख्या को देखते हुए देश में एक और पागलखाने की जरुरत महसूस की जाने लगी थी. जिसके बाद इसकी स्थापना का निर्णय लिया गया. हालांकि कहा जाता है कि अधिकारियों के द्वारा पहले कई दूसरे स्थलों को भी चिह्नित किया गया था, उस लिस्ट में कांके का नाम सबसे नीचे था, लेकिन इसमें से किसी के पास भी कांके जैसा सदाबहार मौसम नहीं था. तब भी कांके का पारा रांची से करीबन दो से तीन डिग्री नीचे ही रहता था. और यही बात अंग्रेज अधिकारियों को भा गया, और आखिरकार 17 मई, 1918 को करीबन दो सौ एकड़ में इसकी विधिवत स्थापना की गयी. हालांकि शुरुआती दौर में यहां सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजों का इलाज होता था, लेकिन देश की आजादी के बाद इसके दरवाजे हिन्दुस्तानियों को लिए खोल दिया गया.
कभी यूरोपियन पागलखाना के रुप में थी इसकी पहचान
हालांकि कांके हॉस्पिटल या पागलखाना कभी भी इसका औपचारिक नाम नहीं रहा, लेकिन आम लोगों के बीच इसकी यही पहचान रही. 1922 तक इसे यूरोपियन लूनटिक असाइलम या यूरोपियन पागलखाना के नाम से जाना जाता था. बाद के दिनों में इसका नामांकरण यूरोपियन मेंटल हॉस्पिटल के रुप में किया गया. यह वह दौर था जब विदेशों के छात्र यहां अपनी पढ़ाई पूरी करने आते थें, इस मेन्टल हॉस्पिटल की संबंद्ता यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन से की गयी थी. लेकिन आजादी का बाद इसका नामाकरण इंटर प्रोविंसिया मेंटल हॉस्पिटल कर दिया गया. यहां यह भी बता दें कि देश में पहला पागलखाना 1745 में मुम्बई में खोला गया था, उसके बाद 1784 में कोलकत्ता में देश के दूसरे पागलखाने की स्थापना की गयी थी.
अपने पुराने दिनों को आज भी याद करता है कांके पागलखाना
याद रहे कि इस पागलखाने की दीवारों में कभी उर्दू अदब के महान शायर मजाज, बांग्ला भाषा के मशहूर और विद्रोही कवि काजी नजरूल इस्लाम, महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह की आवाजें गुंजती थी, कला और साहित्य जगत की इन महान हस्तियों को आज भी कांके मानसिक आरोग्यशाला पूरे फ़ख़्र के साथ याद करता है. उसे इस बात का गौरव है कि इन महान हस्तियों को उसे अपने प्रांगण में रखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है. कहा जाता है कि इसी कांके पागलखाने के प्रांगण में उर्दू के महान शायर मजाज, बांग्ला भाषा के मशहूर और विद्रोही कवि काजी नजरूल इस्लाम की दोस्ती परवान चढ़ी थी, दोनों एक दूसरे के फन के दीवाना बन गये थें. सरदार अली जाफरी ने 'लखनऊ की पांच रातें' में लिखा है कि जब मजाज को इलाज के बाद रांची से लखनऊ ले जाया गया तो उसके पास एक बक्सा था. उस छोटे से बक्शे में एक चिट थी. और उस पर लिखा था काजी नजरूल इस्लाम. यह वही मजाज है जिन्होंने कभी लिखा था “तेरे माथे पे ये आँचल, बहुत ही खूब है, लेकिन, तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था”
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