टीएनपी डेस्क(Tnp desk):- राजनीति में मोहरे बिछाए जाते हैं और चाले चली जाती है. यहां संभावनाओं का सूरज कभी अस्त नहीं होता और न ही किसी के लिए सियासी दरवाजे बंद होते हैं. यहां मतलब और फायदे के लिए गठजोड़ वोट बटोरने का होता है. सियासत सत्ता के लिए की जाती है यही इसका सार रहा है.
झटका देते रहे हैं नीतीश
2022 में नीतीश कुमार भाजपा से अलग हटकर राजद से मिल गये थे. ऐसा लगा कि पलटू चाचा ने क्या कर दिया. लेकिन, सुशासन बाबू तो पाला बदलने के माहिर खिलाड़ी है . झटके पर झटका देना अच्छे से आता है. क्योंकि इससे पहले भी 2017 में राजद को झटका दे चुके थे . एकबार फिर अब लालू की राष्ट्रीय जनता दल से बिदकर भाजपा के साथ होने की खबरें है. अगर उनकी पलटी पक्की हो जाती है, तो फिर सभी का सर चकरा जाएगा. राजनीति के जानकार से लेकर उनके साथ गलबहियां करने वाले सियासतदान भी समझ जायेगी , की नीतीश को समझना मुश्किल ही नहीं, बल्कि नामुमकीन है. ऐसे ही नहीं कहा जाता कि नीतीश कुमार के पेट में दांत हैं.
राजनीति के जानकार और उन्हें कारीबी जानने वाले ऐसे ही नहीं एक माहिर सियासतदान समझते हैं. उनकी नजरों में तो नीतीश कुमार के लिए विचाराधार से कोई लेना देना नहीं है, बल्कि सत्ता और अपना पार्टी की हित ही पहले रखा है.
कभी इंडिया, तो कभी एनडीए !
सोचिए भाजपा से 2022 में अलग हुए तो इंडिया गठबंधन बनाकर देश भर में घूमे. भाजपा को चुनौती देने के लिए सभी विपक्षी दलों को एकजुट करने लगे . लगा कि नीतीश बाबू केन्द्र में मोदी सरकार को हटाकर ही दम लेंगे . हर जगह यहीं राग अलापते थे कि देश के संविधान खतरे में हैं. बीजेपी हर चिज बर्बाद करने पर तुली है. अब यहीं नीतीश कुमार भाजपा के साथ जाने के लिए तैयार खड़े दिख रहे हैं. ऐसी हरकते और खबरे इस बात की इशारा कर रही है.
सवाल ये उठ रहा है कि अचानक सबकुछ कैसे बदल गया. कुछ दिन पहले तक भाजपा के घोर विरोधी रहे नीतीश अब इतनी बेकरारी क्यों दिखा रहे हैं. जानकार बताते है कि उन्हें ये लग रहा था कि 2019 के लोकसभा चुनाव की सफलता वे भाजपा से अलग रहकर दोहरा नहीं सकते. अपने सांसदों का भी नीतीश पर दबाव था. जिसके चलते पलटी मारने का फैसला लिया .
सियासत के जानकार तो यहां तक कहते है कि नीतीश बाबू की पलटी के पीछे इंडिया ही है. दरअसल, जिसे उन्होंने अगुवाई करके खड़ा किया. लेकिन, जब बैठके हुई तो नीतीश कुमार का कहीं नाम तक नहीं था. हालात तब ही बदलने लगे, ऊपर से अयोध्या में राम लला की प्राण प्रतिष्ठा हुई, उस वक्त जिस तरह से प्राण प्रतिष्ठा हुई . इसके बाद भी नीतीश कुमार को लगने लगा की भाजपा के साथ जाना ज्यादा बेहतर होगा.
लगभग दो दशक से बिहार के मुख्यमंत्री
इससे इंकार नहीं किया जा सकता बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार को दरकिनार नहीं किया जा सकता है. पिछले लगभग दो दशक तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हैं, चाहे उनका पलटी राजद की तरफ हो या फिर बीजेपी की तरफ. सत्ता की चाबी उन्हें के पास ही रही है.
भाजपा और राजद के लिए नीतीश मजबूरी है, जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता . कुछ दिन पहले तक भारतीय जनता पार्टी ने नीतीश के बारे में बोला था कि उनके लिए दरवाजे बंद हैं. लेकिन, अब लगता है कि सुशासन बाबू के लिए यहीं बंद दरवाजे खुल गये हैं.
वजह बिल्कुल साफ है कि नीतीश पलटी मारे या फिर भाजपा संग हो जाए. सभी को सत्ता चाहिए, क्योंकि यहां कोई किसी का सगा साथी नहीं होता . कभी मजबूरी तो कभी मकसद के लिए साठगांठ करते हैं. रही बात नीतीश कुमार की तो उन्हें समझना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुकिन हैं.
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