Ranchi- राज्य में जारी सियासी उठापटक और अफवाहों के गर्म बाजार के बीच भाजपा इस बात का दावा पेश करने से पीछे नहीं रह रही है कि सीएम हेमंत को ईडी का यह बार बार का समन किसी सियासी बदले की कार्रवाई नहीं होकर उनके कुक्रमों की स्वाभाविक परिणति है, और यदि सीएम हेमंत इतने ही दूध के धूले हैं तो वह ईडी के सामने अपना पक्ष रखने से भागते क्यों फिर रहे हैं. दूसरी तरफ सीएम हेमंत इस बात का दावा पेश कर रहे हैं कि उन पर ईडी का यह कसता शिकंजा दरअसल भाजपा के ऑफर को ढुकराने की सियासी कीमत है, इसके साथ ही सियासी हल्कों में इस बात की चर्चा भी तेज है कि भाजपा के द्वारा सीएम हेमंत को अपने शेष कार्यकाल को दो हिस्से में विभाजित करने का ऑफऱ दिया गया था, इसके आधे सफर में सीएम हेमंत को अपनी कुर्सी पर विराजमान रहने की खुली छुट्ट दी गयी थी, साथ ही ईडी और दूसरी केन्द्रीय एजेंसियों से अभयदान का प्रस्ताव दिया गया था. लेकिन बाकि के कार्यकाल के लिए उन्हे बाबूलाल मरांडी की ताजपोशी करनी थी. दावा किया जाता है कि सीएम हेमंत ने एकबारगी इस प्रस्ताव को रद्दी की टोकरी में फेंक कर संघर्ष का रास्ता चुनना स्वीकार किया, भाजपा के द्वारा सत्ता की मलाई को मिल बांट कर खाने के इस प्रस्ताव को जैसा ही नकारा गया, सीएम हेमंत की मुश्किलें बढ़ने की शुरुआत हो गयी, और पहले समन से शुरु हुआ यह सफर सातवें समन तक आ पहुंचा.
क्या था सीएम हेमंत के लिए भाजपा का ऑफर
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि सीएम हेमंत ने अपने शेष कार्यकाल को दो हिस्सों में बांटकर एक हिस्सा भाजपा के देने के बजाय इस संघर्ष के रास्ते का चयन क्यों किया. यदि वास्तव में उनके हाथ काली कमाई से रंगे हैं तो वह भाजपा के सामने नतमतस्तक होकर इस प्रस्ताव को स्वीकार कर आराम से कुछ और दिनों तक सत्ता का रसास्वादन कर सकते थें और इसके साथ ही उनके उपर गिरफ्तारी की तलवार भी नहीं लटती. अब इस मामले में सच्चाई कितनी है, और उन पर लगे आरोपों में कितना दम है, उस पर तो तत्काल कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती, लेकिन इतना तय है कि आज देश में ईडी के निशाने पर सिर्फ और सिर्फ विपक्षी दलों के राजनेता ही है. और इसमें भी वे राजनेता है, जो अपने -अपने राज्यों में खुलेआम भाजपा के साथ दो दो हाथ करने को तैयार है, वह तेजस्वी यादव हो या अरबिंद केजरीवाल, लेकिन यही ईडी ओडिशा में चुप्पी साध लेती है, यही ईडी मायावती के खिलाफ कोई कार्रवाई करती हुई नहीं दिखती, यही ईडी तेलांगना में चन्द्रशेखर राव के सामने मौन की मुद्रा में खड़ी थी. और यही ईडी हैदराबाद में रेड्डी बंधुओं के सामने आंख मुंद बैठी है. तो इतना तो तय है कि सीएम हेमंत को ऑफर भेजा गया था और उन्होंने इस ऑफर को रद्दी की टोकरी में फेंकने की गुस्ताखी की है.
कहां से मिल रही है हेमंत को हिम्मत
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यह हिम्मत हेमंत में आयी कहां से. दरअसल दावा किया जाता है कि ईडी की इस अत्याधिक सक्रियता के राज्य के आदिवासी-मूलवासी मतदाताओं के बीच हेमंत सोरेन को लेकर एक प्रकार की सहानुभूति पैदा हुई है, आम लोगों में इस बात की समझ बनने लगी है कि ईडी की यह कार्रवाई दरअसल बेवजह दवाब बनाने की सियासी चाल है, और ईडी को सामने कर भाजपा सीएम हेमंत के खिलाफ सियासी कुचक्र रच रही है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या सिर्फ आदिवासी मतदाताओं में उपज रही सहानुभूति पर सवार होकर एक बार से सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने में सफल होंगे, या इसके साथ ही उन्हे दूसरे सामाजिक समूहों को अपने साथ जोड़ना होगा.
सीएम नीतीश की इंट्री के साथ ही ध्वस्त हो सकते हैं भाजपा के सारे प्लान
तो रखिये कि इंडिया गठबंधन में सीएम नीतीश की इंट्री के साथ ही झारखंड बिहार और यूपी की राजनीति एक नयी शक्ल लेते हुए दिखलायी पड़ रही है. दावा किया जाता है कि बहुत ही जल्द नीतीश को इंडिया गठबंधन का संयोजक बनाने की घोषणा की जा सकती है, और इसके साथ ही उनका देश व्यापी अभियान की शुरुआत होनी है, इसके साथ यह भी याद रखने की जरुरत है कि देश की सियासत में सीएम नीतीश को कुर्मी पॉलिटिक्स का बड़ा चेहरा माना जाता है, जिसके अपने समीकरण है, हालांकि देश में दूसरे कई कुर्मी चेहरे हैं, एक तो राज्य में खुद सुदेश महतो का, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल का है, तो तेलांगना में चन्द्रशेखर राव भी है, लेकिन इसमें किसी पहचान देश स्तर पर नहीं है, जबकि सीएम नीतीश आज देश में एक जाना पहचाना नाम है, और कुर्मी मतदाता उन्हे एक विशेष नजर से देखते हैं.
क्या होगा नीतीश लालू का झारखंड में इंट्री का असर
अब इसको झारखंड के संदर्भ में समझने की कोशिश करें तो बात कुछ ज्यादा आसान हो जाती है, झारखंड में आदिवासी मतदातओं की संख्या करीबन 26 फीसदी है. इसके साथ ही करीबन 16 फीसदी कुर्मी मतदाता है, हालांकि खुद कुर्मी नेताओं के द्वारा इस आंकड़े को 20 फीसदी से उपर बताया जाता है, इस हालत में यदि सीएम नीतीश हेमंत के लिए झारखंड में कैंप करते हैं. तो यह हेमंत के सियासी सेहत को बड़ा संबल प्रदान कर सकता है, इसके साथ ही यादव और दूसरे पिछड़ी जातियों की भी एक बड़ी आबादी है, यदि इस हालत में लालू नीतीश की जोड़ी हेमंत के पक्ष में अपनी बैटिंग तेज करते हैं, तो हेमंत की सारी मुश्किलें दूर होती नजर आती है. साफ है कि सीएम हेमंत जो आज भाजपा के खिलाफ सियासी गर्जना कर रहे हैं, उसके पीछे एक मजबूत सामाजिक समीकरण है, जातीय जनगणना और पिछडा कार्ड हैं, और हेमंत इस बाजी को हाथ से निकलने देना नहीं चाहतें, भले ही उन्हे लालकोठरी की हवा खानी पड़ें.
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