दिशोम गुरु के अस्सी साल, देखिये कैसे रावण को कुलगुरु बता आदिवासी-मूलवासी सियासत को दिया था एक नई धार
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Ranchi- दिशोम गुरु ने अपने जीवन के अस्सी बंसत पूरे कर लिये, भले ही आज भी राज्य के मुखिया हेमंत सोरेन झारखंड को देश का सबसे पिछड़ा राज्य बताते हैं, और इस पिछड़ेपन का जिम्मेदार झारखंड गठन के बाद लगातार भाजपा का शासन और उसकी नीतियों को बतलाते हों. लेकिन पिछड़ापन क्या होता और उस पिछड़ेपन से संघर्ष की व्यथा क्या होती है, वह दिशोम गुरु से ज्यादा कोई नहीं जानता. जिन चुनौतियों का सामना करते हुए भी शिबू सोरेन आज झारखंड को इस मुकाम तक लाने में कामयाब हुए, और इस दौरान एक बाद एक, कैसे अपने सहयोगियों को खोया, उसकी एक लम्बी दास्तान है, बावजूद इसके , आज भी उनकी आंखों में एक ऐसे झारखंड का सपना पलता है, जहां आदिवासी-मूलवासी समाज का शोषण नहीं होगा, जल, जंगल और जमीन की लूट नहीं होगी, उनके संसाधनों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा नहीं होगा, एक ऐसा झारखंड जहां आदिवासी-मूलवासी समाज के युवाओं को अपनी छोटी-छोटी जरुरतों के लिए महानगरों में आया और दिहाड़ी मजदूर बनने की विवशता नहीं होगी.
जैसे जैसे गुजरता गया जिंदगी का कारंवा, बदलती गयी गुरु जी की चुनौतियां
साफ है कि जैसे जैसे शिबू सोरेन के जिंदगी का कारंवा गुजरता गया, वैसे वैसे उनकी चुनौतियां भी बदलती गयी.महाजनी प्रथा से शुरु हुआ उनका संघर्ष आज जल जंगल और जमीन की लूट के खिलाफ मुखर होता नजर आ रहा है, झारखंड के लिए अबुआ दिशम अबुआ राज के नारे लगाने वाले शिबू सोरेन को इस अबुआ राज्य में शोषण का एक नया स्वरुप नजर आ रहा है. नए चेहरे नजर आ रहे हैं, बदलते वक्त के साथ ना सिर्फ गुरुजी की चुनौतियां बढ़ी बल्कि शोषण का चेहरा भी बदला है. आज उनकी मुख्य चुनौती मूलवासी समाज को सियासी सत्ता और आर्थिक तंत्र में हिस्देदारी -भागीदारी सुनिश्चित करने की है, जल जंगल और जमीन पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिद्द दृष्टि से बचाने की है, और इसके साथ ही सियासत की उस धार को कुंद करने की है, जो आदिवासी-मूलवासी समाज के मूल मुद्दों और जमीनी सवालों को अपने उग्र राष्ट्रवाद और धार्मिक उन्माद के नारों के सहारे नेपथ्य में डालने की साजिश रचता है.
शिवलाल से शिबू होते हुए दिशोम गुरु का सफर
दिशोम गुरु की जिंदगी की शुरुआत बेहद आसामान्य परिस्थितियों के बीच हुई, उनके पिता एक साधारण शिक्षक थें, किसी प्रकार जिंदगी गुजर रही थी, लेकिन इस असामान्य परिस्थितियों के बीच में ही उनके पिता ने नन्हे शिवलाल के सीने में महाजनी प्रथा के खिलाफ बगावत का आग भर दिया था. और इसकी कीमत उनके पिता को अपनी जिंदगी देकर चुकानी पड़ी थी. बात तब की है जब शिबू सोरेन अपने भाई के साथ रहकर गोला में पढ़ाई किया करते थें, 27 नवंबर 1957 का वह मनहूस दिन था, जब उनके पिता दोनों भाईयों से मुलाकात के लिए सुबह-सुबह घर से निकले थें. उन्हें इस बात का जरा भी आभास नहीं था कि मौत उनका इंतजार कर रही है, जिस महाजनी प्रधा के खिलाफ वह आग उगलते है, आज उसकी कीमत चुकानी होगी, और फरसा से मार कर उनकी जीवन लीला समाप्त को समाप्त कर दिया गया, और इसी घटना के बाद नन्हा शिवलाल को पहले शिबू और बाद में दिशोम गुरु बनने की ताकत मिली।
रावण के पुतला दहन के किया था इंकार
उसके बाद का उनका संघर्ष और सियासी सफर जग जाहिर है, लेकिन इतना तय है कि शिबू सोरेन की नजर हमेशा आदिवासी मूलवासी सियासत की धार पर बनी रही, वह उसकी बदलती हर रफ्तार पर नजर बनाये रहें, इसका एक सबूत 2008 की वह घटना है, जब उन्होंने सीएम रहते रावण के पुतला दहन से यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि वह तो हमारे पूर्वज है, कुलगुरु है, हमारे संघर्ष के प्रतीक है, भला कोई अपने ही पूर्वजों को आग लगाता है, आज जब जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी से लेकर जवाहर लाल यूनिवर्सिटी तक महिषासूर शहादत दिवस की खबर आती है, तब यह जानकर अचरज होता है कि कैसे दिशोम गुरु ने आदिवासी-मूलवासी सियासत की इस बदलती धार को वर्षों पहले पहचान लिया था, कैसे उनकी आखों ने यह भांप लिया था कि आने वाले दिनों में आदिवासी मूलवासियों के बीच सियासत की कौन सी धारा प्रबल होने वाली है, आदिवासी सियासत की जिस बदलती धारा को पहचाने में आज भी हेमंत पिछड़े नजर आते हैं, दिशोम गुरु उसकी नब्ज को दशकों पहले पहचान चुके थें.
महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन कर मूलवासी पहचान को स्थापित करने की कोशिश
यहां ध्यान रहे कि सबसे पहले जेएनयू में वर्ष 2011 में महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन किया गया था, उसके बाद यह दूसरे विश्वविद्यालयों के कैंपस तक पहुंची, लेकिन इसकी बुनियाद शिबू सोरेन वर्ष 2008 में ही रख चुके थें. जब उन्होंने रावण का पुतला दहन करने से इंकार कर दिया था. दरअसल दावा यह है कि महिषासुर कोई मिथकीय पात्र नहीं होकर एक एतिहासिक पात्र है, असूर जनजाति के लोगों का मानना है कि महिषासुर उनके पूर्वज थें. यही कारण है कि असूर जनजाति के द्वारा आश्विन पूर्णिमा यानि दशहरा के दसवीं के ठीक पांच दिन बाद महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन कर अपने खोये वैभव को फिर से हासिल करने का संकल्प दुहराया जाता है, और आज इस शहादत दिवस में सिर्फ असूर जनजाति के लोग ही शामिल नहीं होते, बल्कि अब ओबीसी समाज के युवाओं का झुकाव भी इस ओर बड़ी तेजी से बढ़ता नजर आ रहा है, कहा जा सकता है कि महिषासुर को आज बहुजन नायक के बतौर प्रतिस्थापित करने की कोशिश की जा रही है. लेकिन फिर सवाल वही है, आदिवासी मूलवासी सियासत का दंभ भरने वालों दूसरे राजनेता जब इस बदलाव को समझने में नाकामयाब रहें, शिबू सोरेन की आंखों ने बहुत पहले ही बदलती सरजमीन को कैसे पहचान लिया. शिबू सोरेन की सुक्ष्म दृष्टि उनका दिशोम गुरु के रुप में प्रतिस्थापित होने की मुख्य वजह शायद यही है.
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