रांची(RANCHI)- SC-ST, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक मतों का धुर्वीकरण के सहारे कर्नाटक का किला ध्वस्त करने के बाद कांग्रेस के हौसले बुलंद है. उसकी कोशिश अब इसी राजनीतिक पिच पर चौंके-छक्के की बरसात करने की है. उसका अगला निशाना मध्यप्रदेश को भाजपा के हाथों से एक बार फिर से छीनने की है, और कर्नाटक की तरह यहां भी भाजपा ने दलबदल करवा कर सरकार हासिल किया था. कांग्रेस अब उसका बदला लेने पर उतारु है.
अब निगाहें झारखंड की ओर
इसके साथ ही वह छत्तीसगढ़ और राजस्थान की सत्ता को भी अब इसी समीकरण के बुते बचाने की भी है. उसकी निगाहें झारखंड पर भी लगी हुई है, जहां वह झामुमो के सहयोग से सत्ता का रसास्वादन तो कर रही है. लेकिन कई मसलों पर झामुमो उसे जुनियर पार्टनर के बतौर देखती है, जो खुद अपने बुते कुछ भी करने की स्थिति में नहीं है.
ST-SC और पिछड़ी जातियों की गोलबंदी से ही कांग्रेस को मिलेगी सत्ता
झारखंड की राजनीतिक-सामाजिक हकीकत है कि यहां जिसके पक्ष में ST-SC और पिछड़ी जातियों की गोलबंदी होती है, सत्ता उसी को मिलता है, रही बात सवर्ण मतदाताओं की तो उसे पहले ही भाजपा का कोर वोट बैंक माना जाता है, और उसकी आबादी भी झारखंड में निर्णायक स्थिति में नहीं है. लेकिन राजनीति की एक तल्ख हकीकत यह भी है कि झामुमो का प्रमुख जनाधार आदिवासी और दलित जातियों के बीच ही है.
यहां कई हिस्सों में बंटता रहा है पिछड़ों का वोट
साथ ही अल्पसंख्यक मतदाताओं का रुझान भी झामुमो की ओर ही रहता है. लेकिन पिछड़ी जातियों का वोट यहां कई हिस्सो में बंटता रहता है, महतो मतदाताओं पर आजसू की पकड़ अच्छी मानी जाती है, हालांकि झाममों में भी महतो समुदाय के नेताओं की कोई कमी नहीं है, और इस समुदाय के एक हिस्से का समर्थन उसे भी मिलता है, लेकिन महतो मतदाताओं को छोड़ दें तो दूसरी पिछड़ी जातियों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ रहता है. कुल मिलाकर पिछड़ी जातियों को वोट एक साथ किसी पार्टी के साथ जाता नजर नहीं आता.
झारखंड के सामाजिक समीकरण के बीच बेहद गंभीर है कांग्रेस की चुनौतियां
इस सामाजिक समीकरणों के बीच कांग्रेस को अपने लिए जमीन तैयार करने की चुनौती है, और अब तक उसका प्रमुख जनाधार सवर्ण मतदाताओं के बीच ही रहा है, लेकिन कर्नाटक में जिस प्रकार से दलित आदिवासी और पिछड़ी जातियों की गोलबंदी कांग्रेस के पक्ष में हुई है, और जिस प्रकार से मंत्रिमंडल से सवर्णों को दूर रखा गया है, उससे बाद कांग्रेस अब इसी सामाजिक फार्मूलों को अपने राजनीतिक उत्थान की दवाई मानती है. अब वह इसी सामाजिक समीकरण के साथ चुनावी अखाड़े में उतरना चाहती है, लेकिन सवाल यह है कि झामुमो के रहते उसे इस जनाधार में सेंधमारी का कितना अवसर मिलेगा?
दलित आदिवासी, अल्पसंख्यक और ब्राह्मण ही कांग्रेस का मुख्य जनाधार था
ध्यान रहे कि जब कांग्रेस अपने स्वर्णिम काल थी, जब वह पूरे देश में उसका डंका बज रहा था, तब दलित आदिवासी और अल्पसंख्यकों के साथ ही ब्राह्रणों को ही उसका कोर वोट बैंक माना जाता था, लेकिन मंडलवादी राजनीति के बाद पूरे देश में इन जातियों में क्षत्रपों का उदय हुआ और कांग्रेस दिन पर दिन अपनी जमीन खोती गयी. रही सही कसर पीएम मोदी ने अपना पिछड़ा कार्ड खेल कर पूरा कर दिया, पीएम मोदी के राजनीतिक अवतरण से पिछड़ों में एक आत्म विश्वास का उदय हुआ, और उन्हे यह महसूस हुआ कि मंडल की राजनीति के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में पिछड़ी जातियों के विभिन्न क्षत्रपों बीच पीएम मोदी सबसे बड़ा अखिल भारतीय चेहरा है. और यही उनकी सफलता का आधार बना.
पीएम मोदी का पिछड़ा कार्ड
ध्यान रहे कि इस बात का चाहे जितना दावा हो कि भाजपा ने धार्मिक ध्रुवीकरण के सहारे पिछले दो चुनावों मे जीत हासिल की है, लेकिन सच्चाई यह है उस धार्मिक ध्रुवीकरण से उसे महज एक बढ़त मिली है, उसकी असली सफलता की वजह पीएम मोदी का पिछड़ा कार्ड है, लेकिन राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता, अब चुनाव दर चुनाव मोदी का चेहरा अपना असर खो रहा है, और कांग्रेस अब को अपना अवसर बनाने में जुट गयी है.
राज्य दर राज्य कांग्रेस का पिछड़ा कार्ड
यही कारण है कि राज्य दर राज्य अब वह भी पिछड़ा कार्ड ना सिर्फ खेल रही है, बल्कि उसे प्रचारित भी कर रही है, सिद्धारमैया, भूपेश बघेल, अशोक गहलौत इसी पिछड़ा कार्ड के चमकते सितारे हैं. लेकिन फिर से वही सवाल, झारखंड में जेएमएम के रहते कांग्रेस के पास इस सामाजिक समीकरण को साधने का कितना अवसर है? झारखंड में उसकी चुनौतियां गंभीर है, बड़ा सवाल तो चहेरे का है, आज भी उसके बाद कोई दमदार आदिवासी, दलित और पिछड़ा चेहरा नहीं है, और अल्पसंख्यों को तोड़ना भी बेहद मुश्किल है. तब क्या माना जाय कि आने वाले दिनों में कांग्रेस यहां से सामाजिक समीकरणों के हिसाब से एक नये चेहरे के साथ झामुमो के साथ दोस्ताना संघर्ष करती हुई दिख सकती है.
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