टीएनपी डेस्क(TNP DESK): 15 नवंबर 2022 को झारखंड स्थापना के 22 साल पूरे हो जाएंगे. इस अवसर पर राज्यभर में तरह-तरह के आयोजन किये जाएंगे. मगर, इस उत्साह और जश्न के पीछे बहुत से आंदोलनकारियों की कठिन लड़ाई शामिल है. कई सालों की लड़ाई के बाद झारखंड एक अलग राज्य बना. झारखंड के अलग राज्य बनने की कहानी बेहद रोचक और मजेदार है. आंदोलनकारियों की इस लड़ाई और झारखंड बनने की क्या कहानी रही, हम उसी के बारे में जानेंगे.
मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा ने की झारखंड आंदोलन की शुरुआत
झारखंड के अलग राज्य की मांग सबसे पहले मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा ने की थी. जयपाल सिंह मुंडा ने 1929 में झारखंड को अलग करने की मांग अंग्रेजों से की थी. इस मांग को साइमन कमीशन ने ठुकरा दिया था. हालांकि, इसके बाद भी जयपाल सिंह मुंडा ने हार नहीं मानी और उन्होंने इस लड़ाई के लिए 139 में आदिवासी महासभा की स्थापना की. तब से आदिवासी महासभा ने लगातार लड़ाई लड़ी. भारत की आजादी के बात जपयाल सिंह मुंडा ने अपनी इसी मांग को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सामने रखा. इस प्रस्ताव में जयपाल सिंह मुंडा ने पंडित को झारखंड बनाए जाने के पीछे के कारण बताए. उन्होंने भाषा और भौगौलिक को लेकर बिहार की तुलना में भिन्नता बताई. उनका कहना था कि बिहार में जहां भोजपुरी, मगही, मैथिली भाषाएं बोली जाती हैं तो वहीं झारखंड में द्रविड और जनजातीय भाषा बोली जाती है. वहीं भौगौलिक भिन्नता के बारे में उन्होंने बताया कि बिहार की में समतल जमीन है, वहां कई नदियां बहती हैं, इससे वहां की जमीन पर खेती अधिक होती है. वहीं झारखंड का हिस्सा पठारी है. वहां कृषि लायक जमीन कम है. हालांकि, उनके इस प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री नेहरू का समर्थन नहीं मिला. इसके बाद भी उन्होंने लड़ाई जारी रखी और 1949 में आदिवासी महासभा का नाम बदलकर वे झारखंड पार्टी कर देते हैं.
झारखंड पार्टी का बदला तरीका
झारखंड पार्टी का तरीका भी बदल गया. झारखंड पार्टी अब राजनीतिक संघर्ष की ओर बढ़ने लगी. लोकसभा और विधानसभा चुनाव भी झारखंड पार्टी लड़ती है. इसका सिर्फ यही उद्देश्य था कि अब बहुमत जुटाकर बिहार से झारखंड को अलग कराना. 1963 में यह प्रयास सफल होता दिखाई भी देता है. पार्टी को 32 सीटों पर जीत मिलती हैं. मगर, इसके बाद बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री के.बी. सहाय ने अपने राजनीतिक कौशल से झारखंड पार्टी को तोड़ दिया. झारखंड पार्टी को कांग्रेस में विलय कर दिया जाता है. इस विलय के साथ ही झारखंड आंदोलन की लड़ाई की आग भी बुझने लगती है. मगर, उसी समय उस लौ को जलाए रखने का जिम्मा एनई होरो ने लिया. एन ई होरो ने झारखंड पार्टी में फिर से आग डाली. उन्होंने पार्टी की पुनर्स्थापना की और कई युवा आदिवासी युवाओं को इससे जोड़ा. इससे फिर झारखंड आंदोलन को एक धार मिली.
शिबू सोरेन ने डाली आंदोलन में नई जान
इसके बाद इस आंदोलन में जान डाली बिनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन ने. झामुमो पार्टी के गठन के साथ इन्होंने झारखंड राज्य की लड़ाई भी लड़ी. शिबू सोरेन के पिता की हत्या जमीन माफियाओं ने कर दी थी. जिसके बाद उन्होंने साहूकारों और जमीन माफियाओं से अपने आदिवासियों की रक्षा के लिए लड़ाई लड़ी. इस कारण शिबू सोरेन ने अपने इलाके में अच्छी पकड़ बना ली थी. वे जयपाल सिंह मुंडा को गुरु भी मानते हैं. इसी कारण वे अपने गुरु के लक्ष्य को आगे बढ़ाने में जुट जाते हैं. इसी उद्देश्य के साथ उन्होंने 1972 में कॉमरेड ए.के. राय, बिनोद बिहारी महतो, टेकलाल महतो की मदद से झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया था.
वादे से मुकरे लालू यादव
झारखंड मुक्ति मोर्चा एक राजनीतिक पार्टी थी. वह बिहार के चुनाव में अपनी किस्मत आजमाना शुरू करती है. 1995 का साल झामुमो के लिए बड़ा साल था. पार्टी उस समय आरजेडी के साथ मिलकर बिहार में सरकार बनाता है. इसके बाद 2 मार्च 1997 को तत्कालीन बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव अलग राज्य झारखंड बनाने को राजी हो जाते हैं.
मगर, ये वादा खोखला साबित होता है और लालू यादव 1998 आते-आते अपनी बात से मुकर जाते हैं. साल 2000 में बिहार में फिर से चुनाव होता है. मगर, इस चुनाव में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला. यह वह समय था जब बीजेपी हर राज्य में अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती थी और सरकार बनाना चाहती थी. मगर, बीजेपी को इसके लिए झामुमो का समर्थन चाहिए था. मगर, ये तब होता जब झारखंड अलग राज्य बनता. उसी समय सरकार बनाने के लिए कांग्रेस ने भी राजद पर दबाव बनाया और झारखंड को अलग राज्य का दर्जा देने का समर्थन किया. उसी साल बिहार विधानसभा में बिहार statehood bill pass होता है और झारखंड राज्य बनने का रास्ता साफ हो गया और इस तरह 15 नवंबर को झारखंड की स्थापना होती है.
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