Ranchi-जैसे-जैसे झारखंड में लोकसभा चुनाव का समर परवान चढ़ता दिख रहा है, इंडिया गठबंधन की चुनौतियां गंभीर होती दिखने लगी है और यह संकट इंडिया गठबंधन के दूसरे घटक दलों के बजाय गठबंधन का सबसे बड़ा घटक कांग्रेस की ओर से आती दिख रही है, जिस तरीके से कांग्रेस की ओर से टिकटों का वितरण किया जा रहा है, उसके कारण कई सवाल खड़े हो रहे हैं. इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण लोहरदगा की सीट है, जहां झामुमो के पास चमरा लिंडा जैसा मजबूत आदिवासी चेहरा था, लोहरदगा लोकसभा के अंतर्गत आने वाले विशुनपुर विधान सभा से वर्ष 2009,2014 और 2019 में लगातार जीत का रिकार्ड भी.
लोहरदगा का संकट, चमरा लिंडा का सवाल
याद रहे, चमरा लिंडा वर्ष 2009 में निर्लदीय और 2014 में तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर लोहरदगा में अपना तोल ठोक चुके हैं, और दोनों ही बार प्रदर्शन काफी बेहतरीन रहा. जहां वर्ष 2009 में निर्दलीय ताल ठोकते हुए चमरा लिंडा ने 1,36,245 वोट पाकर दूसरा स्थान प्राप्त किया था, जबकि 1,44,628 मतों के साथ सुदर्शन भगत के हिस्से जीत आयी थी, और यह स्थिति तब थी, जब कांग्रेस की ओर से बैटिंग करते हुए रामेश्वर उरांव ने 1,29,622 वोट लाकर जबरदस्त सेंधमारी थी, जबकि वर्ष 2014 में चमरा ने तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर 1,18,355 वोट पाकर तीसरा स्थान प्राप्त किया था, वहीं कांग्रेस के घोषित उम्मीदवार रामेश्वर उरांव को 2,20,177 मत मिले थें, जबकि 2,26,666 वोट के साथ भाजपा के सुर्दशन भगत एक बार फिर से बाजी मार गये थें. इस हालत में सवाल खड़ा होता है कि क्या सुखदेव भगत की उम्मीदवारी की घोषणा करने पहले झामुमो को विशवास में नहीं लिया गया, क्या चमरा लिंडा की संभावित नाराजगी पर विचार नहीं किया गया था, क्या सिर्फ अधिक से अधिक सीटों पर दावेदारी की होड़ थी? हालांकि चमरा लिंडा की इन उपलब्धियों को सामने रखने का यह मतलब कतई नहीं है कि सुखदेव भगत कहीं से कमजोर प्रत्याशी हैं, सवाल सिर्फ गठबंधन के अंदर दिख रही तालमेल का अभाव का है, नहीं तो सुखदेव भगत ने वर्ष 2019 में शानदार प्रर्दशन किया था, और महज 10 हजार मतों से बाजी जीतते-जीतते पीछे छुट्ट गये थें.
हजारीबाग में संशय, अम्बा के साथ छल?
ठीक यही स्थिति हजारीबाग सीट को लेकर है, चुनाव के पहले तक इस सीट से बड़कागांव विधायक अम्बा प्रसाद को मोर्चे पर उतारने की चर्चा तेज थी. लेकिन अचानक से भाजपा में सेंधमारी करते हुए जेपी पटेल को उम्मीदवार बना दिया गया. एन वक्त पर अम्बा का पत्ता क्यों कटा? यह अपने आप में एक रहस्य से कम नहीं है. दावा किया जाता है कि ईडी की छापेमारी के बाद अम्बा प्रसाद ने चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया था. यदि यह जानकारी सही है तो सवाल खड़ा होता है कि कांग्रेस के रणनीतिकारों ने इस संकट के समय अम्बा के दर्द को समझने की कोशिश की, मैदान में डटे रहने का हौसला आफजाई किया. क्योंकि जिस तरीके से चुनाव के पहले तक अम्बा के पिता योगेन्द्र साव चुनावी समर में उतरने का ताल ठोक रहे थें, चुनाव लड़ने से इंकार करने की बात हजम नहीं होती, और बड़ा सवाल यह भी है क्या जेपी पटेल की उम्मीदवारी की घोषणा करने पहले योगेन्द्र साव को विश्वास में लिया गया था, क्या उनकी रजामंदी ली गयी, क्योंकि आज के दिन ना तो योगेन्द्र साव और ना खुद अम्बा जेपी पटेल के साथ प्रचार अभियान में खड़ी दिखलायी दे रही है. तो क्या ईडी की छापेमारी को बहाना बना कर अम्बा के साथ खेल हो गया? और यदि यह आशंका सही है, तो निश्चित रुप से कांग्रेस के साथ ही इंडिया गठंबधन को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है.
जेपी पटेल के साथ एक मजबूत सामाजिक समीकरण
यह ठीक है कि जेपी पटेल के साथ एक मजबूत सामाजिक समीकरण है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि युवा मतदाताओं के बीच अम्बा का अपना क्रेज है. जिसकी कमी जेपी पटेल में दिखलायी देती है, हालांकि यदि अभी भी अम्बा और उनके पिता योगेन्द्र साव जेपी पेटल के साथ खुले दिल के साथ खड़ा हो जाय, तो मनीष जायसवाल को मजबूत चुनौती दी जा सकती है, लेकिन यदि जेपी पेटल को उम्मीदवार बनाने के पहले अम्बा को विश्वास में नहीं लिया गया है तो हजारीबाग में कांग्रेस की राह एक बार फिर से मुश्किल हो सकती है, और अंन्तोगतवा इसका नुकसान पूरे महागठबंधन को होगा.
गोड्डा में प्रदीप यादव पर दांव, कितना कारगर
अब जो खबर सामने आ रही है, उसके अनुसार पार्टी ने गोड़्डा में प्रदीप यादव पर दांव लगाने का फैसला किया है, हालांकि अभी तक इसकी औपचारिक घोषणा नहीं हुई है, लेकिन यहां याद रहे कि प्रदीप यादव की पृष्ठभूमि कांग्रेस की नहीं रही है, वह कांग्रेस की विचारधारा से लैश सिपाही नहीं है. जिस भाजपा की साम्प्रदायिक नीतियों के खिलाफ कांग्रेस और राहुल गांधी तोल ठोंकने का हुंकार लगा रहे हैं, प्रदीप यादव उस भाजपा के साथ भी अपनी सियासी पारी खेल चुके हैं. वर्ष 2002 में इसी कमल की सवारी कर लोकसभा पहुंचे थें, उसके बाद बाबूलाल मरांडी की झाविमो से होते हुए कांग्रेस तक पहुंच गयें. इस हालत में कांग्रेस की नीतियों के प्रति उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता कितनी मजबूत होगी? यह एक बड़ा सवाल है. हालांकि एक सच यह भी है कि इस सियासी युद्घ में विचाराधारा से अधिक जोर जीत की संभवाना का होता है, और आज दिन यह प्रयोग सबसे ज्यादा भाजपा कर रही है, लेकिन सवाल फिर वही है कि प्रदीप यादव को आगे कर गोड़्डा में कांग्रेस की संभावना कितनी मजबूत होगी, याद रहे कि 2014 में झाविमो मोर्चा के टिकट पर जब प्रदीप यादव ने निशिकांत के खिलाफ ताल ठोका था, तब 1,93,506 वोट पाकर पर तीसरे स्थान पर थें, जबकि कांग्रेस के उम्मीदवार के रुप में फुरकान अंसारी को कुल 3,19,818 वोट मिले थें. इसके बाद 2019 में गठबंधन के अंदर यह सीट झाविमो के हिस्से में आ गयी, और बाबूलाल मरांडी ने निशिकांत के विजय रथ को रोकने लिए प्रदीप यादव को मैदान में उतारने का फैसला किया, इस मुकाबले में प्रदीप यादव को 4,53,383 वोट मिलें, जबकि निशिकांत दुबे को 6,37,610 वोट मिले थें. यानि जीत-हार का फासला करीबन दो लाख का था. इस हालत में सवाल खड़ा होता है कि इस बार प्रदीप यादव कौन सा करिश्मा दिखलाने जा रहे हैं, क्या इन पांच वर्षो में प्रदीप यादव ने गोड्डा में किसी नये सियासी जमीन को तैयार किया है, जिसके आसरे वह इस बार बाजी पलटने की स्थिति में होंगे. खास कर तब जब वह इन दिनों कई विवादों में भी घिरते नजर आ रहे हैं.
चेहरों का टोटा या अंदरखाने हो रहा है कोई खेल
तो क्या वास्तव में गोड्डा में कांग्रेस के पास कोई मजबूत चेहर नहीं है, या फिर वह चेहरों की तलाश करना नहीं चाहती. किसी नये प्रयोग की ओर बढ़ना नहीं चाहती? नये सामाजिक समीकरण और नयी युद्ध नीति के साथ मैदान में उतरना नहीं चाहती? नहीं तो बार-बार जिस चेहरे को आगे कर निशिकांत के चुनावी रथ को रोकने में नाकामयाबी हाथ आयी है, एक बार फिर से उसी दांव को आजमाने पर अड़ी नजर क्यों आ रही है? गोड्डा की सियासत पर करीबी नजर रखने वाले पत्रकारों का दावा है कि यदि कांग्रेस यहां चेहरे में बदलाव करते हुए महागामा विधायक दीपिका पांडेय पर दांव लगाती है, तो इस मुकाबले को दिलचस्प बनाया जा सकता है और यदि इसकी संभावना नजर नहीं आती है, तो इस सीट को राजद के हवाले कर एक नया सियासी प्रयोग किया जा सकता था. क्योंकि बिहार से सट्टा इलाका होने के कारण पलामू, चतरा, कोडरमा के साथ ही गोड्डा में भी राजद एक मजबूत जनाधार है. और साथ ही संजय यादव जैसा चेहरा भी, लेकिन कांग्रेस किसी भी नये सियासी प्रयोग से बचती दिख रही है, और शायद कांग्रेस की इसी उलझन को सामने रखते हुए झामुमो महासचिव सुप्रियो ने उसे सीटों की संख्या के बजाय जीत के आंकड़ों पर फोकस करने की नसीहत दी थी, लेकिन कांग्रेस के रणनीतिकारों पर अपने ही सहयोगी घटक दल की इस नसीहत का कोई असर होता नहीं दिखा.
रांची में रामटहल का कांटा
ठीक यही कहानी रांची में भी दुहराती दिखायी दे रही है, झारखंड में भाजपा के प्रति कुर्मी जाति की नाराजगी की खबरों के बीच, पांच बार के सांसद और कुर्मी जाति का दिग्गज नेता राम टहल चौधरी का पार्टी में इंट्री तो करवा ली गयी, फूल -मालाओं से लादकर पंजा का पट्टा तो पहना दिया गया, लेकिन अब खबर यह है कि सुबोधकांत मैदान छोड़ने को तैयार नहीं है. दावा किया जा रहा है कि सुबोधकांत की मंशा इस बार अपनी बेटी को चुनावी समर में उतारने की है. इस हालत में सवाल खड़ा होता है कि फिर इस गाजे-बाजे के साथ इंट्री क्यों करवायी गयी थी, और यदि अब वेटिकट किया जाता है, और उसके बाद कुर्मी जाति में जो नाराजगी फैलेगी, उसका असर क्या होगा? निश्चित रुप से सामाजिक समीकरणों के हिसाब से रामटहल चौधरी का पलड़ा सुबोधकांत पर भारी पड़ता दिखता है. लेकिन यहां यह भी याद रहे कि यदि उम्र को पैमाना माना जाये तो रामटहल चौधरी तुलना में सुबोधकांत कुछ ज्यादा ही युवा हैं, सवाल सिर्फ इतना है कि रामटहल चौधरी की इंट्री के पहले ही सारी गुत्थी सुलझा ली जानी चाहिए थी, अब जब कि टिकट का आश्वासन देकर इंट्री करवा ली गयी है, और उसके बाद एक बार फिर से सुबोधकांत की वापसी पर विचार करना, इस बात के साफ संकेत हैं कि कांग्रेस के अंदर उम्मीवारों का चयन को लेकर कोई साफ रणनीति नहीं है, सबके अपने-अपने गुट हैं, और हर गुट का अपना-अपना पकड़ और पहुंच है, अब देखना होगा कि कांग्रेस के रणनीतिकारों के द्वारा अंतिम फैसला क्या किया जाता है, लेकिन जिस तरीके से झारखंड में प्रत्याशियों का एलान हो रहा है और इस एलान में जो देरी हो रही है, उसके कारण आम लोगों के साथ ही महागठबंधन के दूसरे घटक दलों में चिंता की लकीरें खिंचती दिख रही है.
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