दुमका(DUMKA):15 नवंबर 2000 को बिहार से अलग झारखंड राज्य बना.आदिवासियों के सर्वांगीण विकास के नाम पर अलग राज्य बना. राज्य बने 23 वर्ष बीत गए.आमूमन 23 वर्ष का युवा अपना भविष्य संवार लेता है या फिर भविष्य संवरने की दहलीज पर खड़ा रहता है, लेकिन सवाल उठता है कि क्या युवा झारखंड का भविष्य संवर पाया? झारखंड की उपराजधानी दुमका से इस सवाल का जबाब तलाशने की कोशिश है.
लोकसभा उम्मीदवारों से दुमका के लोग करेंगे सवाल
अलग झारखंड राज्य बनने के साथ ही दुमका को उपराजधानी का दर्जा मिला. ऐतिहासिक जिला दुमका संथाल परगना का प्रमंडलीय मुख्यालय भी है. इन 23 वर्षो में दुमका का कितना विकास हुआ यह सवाल आज अहम हो गया है, क्योंकि लोकसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है. 1 जून को दुमका में मतदान होगा.इन ढाई महीनों में विभिन्न दलों के प्रत्यासी सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों तक जाएंगे.मतदाता को लुभाने के लिए तरह तरह के वायदे करेंगे. ऐसा हर चुनाव के वक्त होता है. 23 वर्षो में केंद्र में 13 वर्षो तक एनडीए गठबंधन जबकि 10 वर्षो तक यूपीए की सरकार रही. राज्य में मिली जुली सरकार से लेकर स्पष्ट बहुमत की सरकार रही, इसके बाबजूद दुमका की कुछ समस्याएं ऐसी है जो यथावत है, लेकिन ऐसा भी नहीं कि यहां बिल्कुल ही विकास ना हुआ हो.विकास के कई कार्य किए गए.
आज भी मुम्बई जैसे शहरों के लिए नहीं शुरु हुई ट्रेन सेवा
आजादी के 64 वर्षों बाद 2011 में दुमका जिला मुख्यालय रेलवे के मानचित्र से जुड़ा. आज भी दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों के लिए यहां से ट्रेन सेवा शुरू नहीं हो पाया है. पड़ोसी जिला गोड्डा से तुलना करें तो दुमका के वर्षों बाद गोड्डा जिला रेलवे से जुड़ा.वहां से जितनी सुविधा ट्रैन की है, दुमका से नहीं है.दुमका से हवाई सेवा शुरू करने की घोषणा की गई. हवाई अड्डा के निर्माण पर रुपया भी खर्च हुआ लेकिन वह घोषणा हवा हवाई ही साबित हुआ.सड़कों का जाल बिछाने की बात की जाती है. यह सही है कि जिला मुख्यालय से प्रखंड मुख्यालय को जोड़ने वाली लगभग तमाम सड़कें चकाचक है, इसके बाबजूद कई ऐसे गांव है जहां तक जाने के लिए सड़कें नहीं है. तभी तो समय-समय पर सड़क नहीं तो वोट नहीं का नारा गूंजता है.दुमका में फूलो झानो मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल की स्थापना हुई.लोगों को लगा कि अब दुमका वासियों को इलाज कराने भागलपुर या कोलकाता नहीं जाना होगा, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया.
आज भी मूलभूत सुविधाओं से दूर है लोग
आज भी मेडिकल कॉलेज में मूलभूत सुविधाओं की घोर किल्लत है.बिजली, पानी जैसी मूलभूत समस्याओं से लोग जूझ रहे हैं. खासकर पहाड़ पर बसे कई गांव के लोग गर्मी के दस्तक देते ही बून्द बून्द पानी के लिए तरसते हैं. आज भी लोग नदी नाला का पानी पीते नजर आते है.शिक्षा व्यवस्था में भी अपेक्षित सुधार नजर नहीं आ रहा है.यहां एसकेएम विश्वविद्यालय है. लेकिन समय-समय पर छात्रों द्वारा मूलभूत सुविधा मुहैया कराने को लेकर आंदोलन किया जाता है.शहर से लेकर गांव तक स्कूली शिक्षा व्यवस्था को बेहतर नहीं कहा जा सकता. समस्याओं की बात करें तो आज भी दुमका में हाई कोर्ट बेंच की स्थापना एक सपना बन कर रह गया है.इस मुद्दे को लेकर बार एसोसिएशन द्वारा समय-समय पर आंदोलन भी किया जाता है. जमीन अधिग्रहण से संबंधित कुछ कार्य भी हुए, इसके बाबजूद यह चुनावी मुद्दा बन कर रह गया है.नगर परिषद द्वारा एक अदद कचरा डंपिंग यार्ड को आज तक सघन अधिवास से दूर शिफ्ट नहीं किया जा सका.आज भी बक्शी बांध और आस पास के लोग नारकीय जीवन जीते है. बक्शीबांध में बर्षो से शहर का कचड़ा फेंके जाने के कारण कचड़ा का पहाड़ बन गया है.
ग्रामीण इलाकों में आज भी लोग नारकीय जीवन जीने को है मजबूर
यह सत्य है कि विकास एक सतत प्रक्रिया है.इसके बाबजूद उपराजधानी होने के नाते यहां का जो विकास होनी चाहिए वो नहीं हो पाया. वह भी तब जब यहां से शीबू सोरेन और हेमंत सोरेन राज्य के मुख्यमंत्री बन चुके है. राज्य के पहले सीएम के रूप में जब बाबूलाल मरांडी की ताजपोशी हुई थी, उस वक्त बाबूलाल मरांडी दुमका लोक सभा का प्रतिनिधित्व करते थे. अलग राज्य बनने के बाद 2004, 2009 और 2014 में शीबू सोरेन यहां के सांसद बने.2019 के चुनाव में जनता ने शीबू सोरेन को नकारते हुए बीजेपी प्रत्यासी सुनील सोरेन को अपना मत देकर सांसद बनाया। एक बार फिर बीजेपी ने सुनील सोरेन पर भरोसा जताता है, जबकि झामुमो की ओर से अभी तक प्रत्याशी के नाम की घोषणा नहीं हुई है.आज नहीं तो कल वह भी स्पष्ट हो जाएगा कि इंडिया गठबंधन का चेहरा कौन होगा.समय के साथ साथ दुमका में चुनावी माहौल जोर पकडेगा.एक बार फिर से प्रत्याशी गांव गांव घूम कर जनता से वादा करेंगे, लेकिन अब तक कितना काम हुआ निश्चित रूप से जनता भी गांव घूमने वाले उम्मीदवार से सवाल करेंगी.जो भी हो, दुमका का चुनाव बड़ा दिलचस्प होने वाला है.
रिपोर्ट-पंचम झा
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