रांची(RANCHI)- जिस भाजपा को सामाजिक समीकरणों को साधने का उस्ताद माना जाता है, उसके हर फैसले को मास्टर स्ट्रोक बताने की होड़ लग जाती है. उसी भाजपा ने झारखंड में पहला गैर आदिवासी सीएम बनाने का दांव खेला था. तब भी इसे झारखंड की राजनीति का मास्टर स्ट्रोक बताया गया था. दावा किया गया था कि भाजपा के इस फैसले के साथ ही झारखंड की राजनीति का समीकरण बदल जायेगा. अब तक हाशिये पर चल रहे गैर आदिवासी भाजपा के साथ आ खड़े होगें. इसी गैर आदिवासियत को साधने की होड़ में भाजपा ने विधायकी से लेकर सांसदी तक के लिए गैर झारखंडी चेहरों पर दांव लगाया. यूपी बिहार से आने वाले नेताओं की पूरी फौज को झारखंड के चुनावी दंगल में उतारा गया. लेकिन देश का नया चाणक्य घोषित किये जाने वाले अमित शाह और पीएम मोदी की हर चाल यहां असफल हो गई. और 2019 के विधान सभा चुनाव में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा. स्थिति यह हो गयी कि जिस रघुवर दास को गैर आदिवासियों के बीच में पोस्टर बॉयज बनाने का प्रयोग किया गया था. वह खुद अपनी जमानत भी नहीं बचा सकें. पार्टी की जो दुर्गती हुई वह तो हुई ही. लेकिन तब भी किसी ने चाणक्य के इस विफल दांव पर सवाल खड़े नहीं किये.
पिछड़ा राजनीति का पोस्टर बॉय
हालांकि भाजपा के अन्दर मंथन का दौर शुरु हो गया. हार की समीक्षा की जाने लगी, सवाल पूछा जाने लगा कि जब पीएम मोदी के चेहरे को आगे कर भाजपा लोकसभा में सफलता हाथ कर लेती है. 14 में से 12 सीटों पर अपनी विजय पताका फहराती है. तब वही दांव विधान सभा में नहीं चलता. लेकिन इस तर्क को सामने लाने के पहले यह भूला दिया जाता है कि पीएम मोदी की असफलता सफलता अपनी जगह. वह आज देश की राजनीति में पिछड़ों का पोस्टर बॉयज है. और पिछड़े वर्ग के मतदाता बड़ी ही राजनीतिक चतुरता का परिचय देते हुए लोकसभा चुनाव में मोदी के साथ खड़ा हो जाता है. तो राज्य के लिए वह अपने चेहरे की खोज करता है.
भाजपा का आसरा आदिवासी चेहरा
2019 के विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा को इस बात का भी ऐहसास हो गया कि पीएम मोदी के चेहरे के बुते हर विधानसभा चुनाव जितने की रणनीति एक असफल प्रयोग है. और स्थानीय स्तर पर पिछड़े दलित और आदिवासी चेहरों को मैदान में उतारे बगैर चुनाव नहीं जीते जा सकतें. और झारखंड की राजनीति में आजसू का पिछड़े वर्ग के मतदाताओं के बीच पकड़ का भाजपा के पास कोई काट नहीं है. जिस तेवर और अंहकार के साथ रघुवर दास ने झारखंड की राजनीति से आजसू को किनारे करने का दांव लगाया था. वह उलटा पड़ा, और बहुत हद तक भाजपा की हार का कारण बना.
गैर आदिवासी चेहरे से बनी नहीं बात
इस बीच भाजपा के अन्दर तरह-तरह चलते रहे, लेकिन कुल जमा निष्कर्ष यह निकला कि बगैर किसी सामाजिक आधार वाले नेता को सामने लाये झारखंड में विजय पताका फहराना मुश्किल ही नहीं नाममुकिन भी है. सिर्फ अगड़ी जातियों की मतदाताओं के भरोसे भाजपा के लिए चुनाव जीतना दूर की कोड़ी है.
अब जब भाजपा के सारे प्रयोग धवस्त हो चुके हैं. बाबूलाल को सामने लाना उसकी राजनीतिक मजबूरी थी. क्योंकि अपनी तमाम कमियों के बावजूद बाबूलाल की एक पहचान है. पूरे आदिवासी समाज में उनकी पकड़ है, यदि बाबूलाल को आगे कर आजसू को साधा जाता है. तो झामुमो के इस वर्चस्व को काफी हद तक तोड़ा जा सकता है.
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