बोकारो ( BOKARO) - रंगों का त्यौहार है होली, रंगों से ही इस त्यौहार को जाना जाता है, रंगों के बिना होली की कल्पना नहीं की जा सकती, भारत का शायद ही कोई ही कोई क्षेत्र हो ,जहां होली नहीं खेली जाती है, लेकिन झारखंड के बोकारो जिले के कसमार प्रखंड में एक गाँव ऐसा है जहां होली नहीं मनायी जाती है. लगभग तीन सौ साल से अधिक समय से इस गांव में होली आज तक नहीं मनायी गई है. इसको लेकर कई तरह की कहानियां है. देखिए इस खास रिपोर्ट में.....
होली के दिन शहीद हुआ था राजा का पूरा परिवार
दुर्गापुर आबादी के दृष्टिकोण से बोकारो जिले के कसमार प्रखंड का सबसे बड़ा गांव है। कुल 12 टोला में फैला हुआ है. प्रखंड में मंजूरा के बाद एकमात्र ऐसा गांव है, जो कुल चार सीट में फैला है. एक सीट में, यानी 108 एकड़ में तो केवल दुर्गा पहाड़ी फैली हुई है। केवल दुर्गापुर पंचायत ही नहीं, बल्कि यह पहाड़ी पूरे इलाके की आस्था का केंद्र है. इसके नाम पर पूजा होती है. मन्नत पूरी होने पर बकरा व मुर्गा चढ़ाया जाता है. दुर्गापुर गांव में तीन सौ साल से होली नहीं मनायी जाती है. यहां के लोग होली के दिन रंग-अबीर को हाथ तक नहीं लगाते. इस गांव में सदियों से यही परंपरा चली आ रही है. इसके पीछे गांव के लोग कई तरह की मान्यताओं की दुहाई देते है. कहा जाता है कि करीब साढ़े तीन सौ साल पहले दुर्गापुर में राजा दुर्गा प्रसाद देव का शासन था. गांव की ऐतिहासिक दुर्गा पहाड़ी की तलहटी पर उनकी हवेली थी. वे काफी जनप्रिय थे. युद्ध में वे सपरिवार मारे गए थे. वह होली का समय था. इसी गम में लोग तब से होली नहीं खेलते. ऐसी मान्यता है कि होली खेलने से गांव में कोई अप्रिय घटना घटित होती है.
बाबा को नहीं पसंद था रंग-अबीर
गांव वालों की एक और मान्यता है कि गांव के निकट दुर्गा पहाड़ी पर बडराव नाम के एक बाबा रहते थे, जिनके नाम से भी दुर्गा पहाड़ी को जाना जाता है. ग्रामीणों के अनुसार, बडराव बाबा रंग पसंद नहीं करते हैं। यहीं कारण है कि उनके नाम पर पूजा में बकरा व मुर्गा भी सफेद रंग का ही चढ़ाया जाता है. बडराव बाबा की इच्छा के विपरीत गांव में रंग-अबीर का उपयोग करने पर उनके क्रोध का सामना गांव को करना पड़ता है. विभिन्न प्रकार की अनहोनी गांव में होती है. जिसमें मनुष्य और जानवरों को हानि होती है. बडराव बाबा नाराज न हों, इसलिए ही आज भी गांव में होली नहीं मनायी जाती.
मल्हार की मौत भी एक मान्यता
होली नहीं खेलने के पीछे कुछ ग्रामीणों का यह भी कहना है कि करीब 200 साल पहले कुछ मल्हार यहां आकर दो अलग-अलग जगहों पर ठहरे थे. परपंरा के विपरीत मल्हारों ने खूब होली खेली. उसी दिन पांच मल्हारों की मौत हो गयी. गांव में दो दर्जन से अधिक मवेशी (बैल) मर गये. अन्य अप्रिय घटनाएं भी होने इस घटना के बाद से गांव के लोगों ने होली खेलनी हमेशा के लिए बंद कर दी.
गांव के बाहर खेलने लगे हैं होली
होली नहीं मनाना केवल गांव की सीमा तक ही प्रतिबंधित है. ऐसा नहीं कि गांव वाले दूसरी जगह होली नहीं खेल सकते. लेकिन होली के दिन अगर दुर्गापुर के लोग दूसरे गांव जाते हैं और उनको पता चल जाता है कि यह लोग दुर्गापुर के हैं तो यह लग चाह कर भी उन्हें रंग नहीं देते हैं. अगर कोई चाहे तो दूसरे गांवों में जाकर होली मना सकता है. कुछ लोग मनाते भी हैं. कोई ससुराल तो कोई मामा के घर, कोई मित्र के यहां तो कोई किसी अन्य रिश्तेदार के घर जाकर होली खेलते हैं. दूर प्रदेशों में रहने वाले युवक भी होली जमकर खेलते हैं, लेकिन जिस वर्ष गांव में रहते हैं, रंग छूते तक नहीं है.
रिपोर्ट - संजय कुमार, गोमिया बोकारो
4+