जानिए कौन सी साड़ी है आपके लिए परफेक्ट, साड़ियों में पाएं परफेक्ट लुक

टीएनपी डेस्क (TNP DESK): शादियों का सीजन है और बात साड़ी की न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता. जी हां सुंदर सुंदर साड़ियों में लिपटे हुए सुंदर देह स्त्री की अलग ही आभा तय करते हैं. चाहे कितना भी वेस्टर्न ड्रेस पहन लें लेकिन जो खूबसूरती साड़ी में निकल कर आती है वो और किसी परिधान में निकल कर नहीं आती. आज हम अपको बता रहे हैं भारत में मिलने वाली साड़ियों की विभिन वेराईटी के बारे में साथ ही बताएंगे की किन साड़ियों की क्या है खासियत. इससे आप तय कर सकेंगी की आने वाले शादियों में आप कौन सी साड़ी पहन कर अपने ट्रेडिशनल लुक से लोगों को मजबूर कर देंगी कि एक बार वो आपकी ओर पलट कर जरूर देखें. वैसे तो साड़ियों का क्रेज कभी खत्म नहीं होता लेकिन आजकल शादियों में अलग अलग तरीके से साड़ियों को पहनने का अलग ही ट्रेंड चल रहा है आईए पहले हम जानते हैं साड़ियों की वेराइटी के बारे में ताकि आप अपने लिए इस बार बिल्कुल सटीक खरीदारी कर सकेंगी. बता दें साड़ी को विश्व में सबसे लंबा परिधान माना जाता है. साड़ी पहनने के कई तरीके हैं जो भौगोलिक स्थिति और पारंपरिक मूल्यों और रुचियों पर निर्भर करते हैं. भारत में अलग-अलग शैली की साड़ियों में कांजीवरम साड़ी, बनारसी साड़ी, पटोला साड़ी और हकोबा मुख्य हैं. मध्य प्रदेश की चंदेरी, महेश्वरी, मधुबनी छपाई, असम की मूंगा रशम, उड़ीसा की बोमकई, राजस्थान की बंधेज, गुजरात की गठोडा, पटौला, बिहार की तसर, काथा, छत्तीसगढ़ी कोसा रशम, दिल्ली की रशमी साड़ियां, झारखंडी कोसा रशम, महाराष्ट्र की पैथानी, तमिलनाडु की कांजीवरम, बनारसी साड़ियां, उत्तर प्रदेश की तांची, जामदानी, जामवर एवं पश्चिम बंगाल की बालूछरी एवं कांथा टंगैल आदि प्रसिद्ध साड़ियाँ हैं.
बनारसी साड़ी
बात हो साड़ियों की और शादियों का सीजन हो तो जो सबसे पहला नाम दिमाग में चमकता है तो वो है बनारसी साड़ी. जी हां प्राचीन भारत काल से ही बनारसी साड़ियां अपना एक अलग स्थान रखती है. पुराने जमाने में बनारसी साड़िया भारी और बेहद कीमती होती थी कारण था इसका हाथ से बुना जाना. पहले बनारसी साड़ियों को बनाने में सोने और चांदी की जरी का प्रयोग होता था और रेशम के धागों से साड़ियों की बुनाई होती थी विशेष रत्नों को इसके बॉर्डर पर लगा कर रानी महारानियों के लिए तैयार की जाती थी रजवाड़ी बनारसी साड़ियाँ. आज भी बदलते दौर मे बनारसी साड़ी की पहचान यथावत है. आज भी महिलाओं की पहली पसंद बनारसी है. बनारसी साड़ी एक विशेष प्रकार की साड़ी है जो शुभ अवसरों पर पहनी जाती है. यह मुख्यत उत्तरप्रदेश के चंदौली, बनारस, जौनपुर, आजमगढ़, मिर्जापुर और संत रविदासनगर जिले में बनाई जाती है. रेशम की साड़ियों पर बनारस में बुनाई के संग जरी के डिजायन मिलाकर बुनने से तैयार होने वाली सुंदर रेशमी साड़ी को बनारसी साड़ी कहा जाता है. मालूम हो की पहले बनारस की अर्थ व्यवस्था का मुख्य स्तंभ बनारसी साड़ी का काम था, पर अब इस साड़ी की अस्मिता खतरे में है. कभी इसमें शुद्ध सोने की जरी का उपयोग किया जाता था लेकिन अब नकली चमकदार जरी का काम भी किया जा रहा है. यदि आप भी बनारसी साड़ी पहनने का मन बना रहीं है तो मार्केट में हर रेंज में ये उपलब्ध है. अपको ऑनलाइन भी सीधा बनारस से ये साड़ी मिल जाएगी तो देर किस बात की हो जाईए तैयार इस बार पार्टी की जान आप और आपकी बनारसी साड़ी ही रहेगी.
महाराष्ट्रियन पैठानी साड़ी
महाराष्ट्र में खास साड़ी पहनी जाती है जो नौ गज लंबी होती है, इसे पैठणी कहते हैं. यह पैठण शहर में बनती है इस साड़ी को बनाने की प्रेरणा अजन्ता की गुफा में की गई चित्रकारी से मिली थी. इससे पहनने का अपना पारंपरिक स्टाइल है जो महाराष्ट्र की औरतों को ही आता है. पर आजकल पैठानी साड़ी भी बहुतेरे महिलाओं के द्वारा पसंद किया जा रहा है. पैठनी साड़ी मराठी स्टाइल की साड़ी है जिसे बहुत ही बारीक सिल्क से तैयार किया जाता है. इसमें जरी, बूटी वर्क और बर्ड्स, फ्लावर जैसी डिजाइन होती है. इसके महीन सिल्क के धागे अपनी चमक सालो साल तक नहीं खोते. यदि आप भी इस लग्न में कुछ स्पेशल दिखना चाहती है तो मराठी स्टाईल पैठानी साड़ी भी एक अच्छा विकल्प है.
पटोला साड़ी
पटोला गुजरात मूल की एक प्रकार की रेशमी साड़ी है, जिसे बुनाई के पहले पूर्व निर्धारित नमूने के अनुसार ताने और बाने को गाँठकर रंग दिया जाता है. यह साड़ी वधु के मामा द्वारा उपहार में दी जाने वाली दुल्हन की साज-सज्जा सामग्री का एक भाग है. पटोला साड़ी स्त्रियों द्वारा धारण की जाने वाली प्रमुख साड़ियों में से एक है. यह साड़ी मुख्य रूप से हथकरघे से बनी होती है. यह दोनों ओर से बनायी जाती है. इस साड़ी में बहुत ही महीन काम किया जाता है. यद्यपि गुजरात में मिलने वाली पुरानी पटोला 18वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों से पहले की नहीं है, किंतु इसका इतिहास निश्चित रूप से 12वीं शताब्दी तक का है. पटोला साड़ी के निर्माण का कार्य लगभग सात सौ वर्ष पुराना है. हथकरघे से बनी इस साड़ी को बनाने में क़रीब एक वर्ष का समय लग जाता है. पटोला साड़ी में नर्तकी, हाथी, तोता, पीपल की पत्ती, पुष्पीय रचना, जलीय पौधे, टोकरी सज्जा की आकृतियाँ, दुहरी बाहरी रेखाओं के साथ जालीदार चित्र (पूरी साड़ी पर सितारे की आकृतियाँ) तथा पुष्प गहरे लाल रंग की पृष्ठभूमि पर बनाए जाते हैं. यह साड़ी बाज़ार में बड़ी मुश्किल से मिलती है. इस साड़ी को बनाने के लिए रेशम के धागों पर डिज़ाइन के मुताबिक़ वेजीटेबल और रासायनिक रंगों से रंगाई का काम किया जाता है. इसके बाद हैंडलूम पर बुनाई का कार्य किया जाता है. सम्पूर्ण साड़ी की बुनाई में एक धागा डिज़ाइन के अनुसार विभिन्न रंगों के रूप में पिरोया जाता है. यही कला क्रास धागे में भी अपनाई जाती है. इस कार्य में बहुत अधिक परिश्रम की आवश्यकता होती है. इस कारण इसकी कीमत बहुत अधिक होती है. यह साड़ी मुख्यत हथकरघे से बनती है. पटोला साड़ी दोनों ओर से बनाई जाती है और इसमें बहुत ही बारीक काम किया जाता है. यह रेशम के धागों से बनाई जाती है. पटोला डिजायन और पटोला साड़ी भी अब लुप्त होने की कगार पर है. इसका कारण है कि इसके बुनकरों को लागत के हिसाब से कीमत नहीं मिल पाती.
महेश्वरी साड़ी
महेश्वरी साड़ियों का इतिहास लगभग 250 वर्ष पुराना है. होल्कर वंश की महान् शासक देवी अहिल्याबाई होल्कर ने महेश्वर में सन 1767 में कुटीर उद्योग स्थापित करवाया था. गुजरात एवं भारत के अन्य शहरों से बुनकरों के परिवारों को उन्होंने यहाँ लाकर बसाया तथा उन्हें घर, व्यापार आदि की सुविधाएँ प्रदान कीं. पहले केवल सूती साड़ियाँ ही बनाई जाती थीं, परन्तु बाद के समय में सुधार आता गया तथा उच्च गुणवत्ता वाली रेशमी तथा सोने व चांदी के धागों से बनी साड़ियाँ भी बनाई जाने लगीं. यह साड़ी मुख्यत मध्य प्रदेश में पहनी जाती है. पहले यहां सूती साड़ी ही बनाई जाती थी लेकिन अब धीरे-धीरे रेशम की भी बनाई जाने लगी है. इसका इतिहास काफी पुराना है. यदि आप भी थोड़ा हट के पहनना चाहती है तो एक बार माहेश्वरी साड़ी को ट्राइ जरूर करें.
चंदेरी साड़ी
चंदेरी की विश्व प्रसिद्ध साड़ियां आज भी हथकरघे पर ही बुनी जाती हैं, यही इसकी विशेषता है. इन साड़ियों का अपना समृद्धशाली इतिहास रहा है. पहले ये साड़ियां केवल राजघराने में ही पहनी जाती थीं, लेकिन अब यह आम लोगों तक भी पहुंच चुकी हैं. एक चंदेरी साड़ी बनाने में एक बुनकर को सालभर का वक्त लगता है, इसीलिए चंदेरी साड़ियों को बनाते वक्त कारीगर इसे बाहरी नजरों से बचाने के लिए हर मीटर पर काजल का टीका लगाते हैं. इनके अलावे भी भारत में तरह-तरह के रंगों-डिजायन में साड़ियां बनाई जाती हैं लेकिन इन साड़ियों की अपनी खास विशेषता है. अब तो मिल में साड़ियां बनती हैं जिनके डिजायन्स एक जैसे भी हो सकते हैं लेकिन अभी भी जो हस्तकरघे पर विशेष पारंपरिक साड़ियां तैयार की जाती हैं उनकी डिजायन दूसरी नहीं मिलती.
कांजीवरम साड़ी
अक्सर कई लोग बनारसी को ही कांजीवरम समझ लेते हैं लेकिन अपको बता दूं की कांजीवरम साड़ी बनारसी साड़ियों से बिल्कुल अलग है अगर आप सिल्क की साड़ियों की शौकीन हैं तो आपको बनारसी सिल्क और कांजीवरम में फर्क पता होना चाहिए. ये दोनों ही क्लासी सिल्क हैं, लेकिन इनमें फर्क ये है कि बनारसी साड़ी बनारस में बनती हैं और कांजीवरम साड़ियां साउथ से संबंधित हैं. कांजीवरम साड़ी अलग-अलग रंग के धागों के इस्तेमाल से बनी होती है. रोशनी के कोण बदलने पर साड़ी का रंग भी बदलता हुआ नज़र आता है. कांजीवरम साड़ियां तमिलनाडु में कांचीपुरम से संबंधित हैं. कांजीवरम साड़ियों में सुनहरे धागे का इस्तेमाल होता है, जबकि बनारसी साड़ियों में जरी का इस्तेकमाल किया जाता है. काँजीवरम और बनारसी दोनों ही शादी की पहचान है. उत्तर भारत मे जहा बनारसी ज्यादा पहन जाता है वही दक्षिण भारत में काँजीवरम की लोकप्रियता अधिक है.
विश्व में साड़ी की है अलग पहचान
भारत में साड़ी पहनने की परंपरा अनादी काल से है एक भारतीय स्त्री की कल्पना जब भी की जाती है वो साड़ी में लिपटी हुई ही कल्पित होती है. आपको ये जानकर हैरानी होगी की विश्व में साड़ी पांचवे सबसे ज्यादा पहने जाने वाले परिधान के रूप में माना जाता है. बता दें भारतीय साड़ी को दुनिया के सबसे पुराने परिधानों में से एक माना जाता है. वेद और सिंधु घाटी सभ्यता के इतिहास में महिलाओं के साड़ी का परिधान के रूम में पहनने के बारें उल्लेख हैं. साड़ी ने अपनी प्राचीनता को साथ लिये, आज के फैशन ट्रेंड में अपनी जगह बनाकर रखी हुई है. आज भी मेजर फैशन शो में रैंप पर, बॉलीवुड में, ग्रामीण और शहरी भारत की सड़कों पर साड़ी ने हमारी संस्कृति में अपनी जड़े जमाई हुईं हैं. कई बार इस बात पर भी बहस छिड़ी है की पहली बार साड़ी कब पहन गया था तो इसके जवाब मे हमे वेदों का अध्ययन करना होगा. यजुर्वेद में यह लिखा है की यज्ञ करते समय स्त्री को अपने पति से साथ साड़ी पहन कर ही बैठना चाहिए. ऋग्वेद में भी स्त्री के परिधान के रूप में साड़ी का वर्णन मिलता है.
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