रांची (RANCHI): दिवाली खत्म होते ही झारखंड में सोहराय पर्व की तैयारी शुरू हो गई है. इस पर्व को मनाने का मुख्य उदेश्य गाय और बैलों को खुश करना होता है. उनकी मेहनत से ही खेतों में फसल तैयार होता है. यह पर्व उनके साथ खुशियों को बांटने के लिए मनाया जाता है. हर वर्ष फसल अच्छा हो इस पर्व को मनाने के दौरान यह कामना की जाती है. दिवाली के खत्म होते ही झारखंड में सोहराय पर्व मनाया जा रहा है. लेकिन इस बार सोहराय पर्व को कई किसान परिवार नहीं मना पा रहे हैं,क्योंकि कई घरों में गाय, बैल बीमार हैं. लंपी वायरस का संक्रमण कई गावों में फैला हुआ है. इसलिए कुछ घरों में मायूसी भी जरूर है.
आदिवासी समाज में इस पर्व का है खास महत्व
राज्य के कई जिलों में सोहराय पर्व धूमधाम से मनाया जाता है. इस त्योहार का खास महत्व है. ये दिवाली पर्व के दूसरे दिन मनाया जाता है. आदिवासियों का सोहराय पर्व पाँच दिनों तक चलता है.आदिवासी समाज के लोगों में इस पर्व का बेहद महत्व है. कंवर,बिरहोर ,मुंडा,पहाड़ी,बिरहोर ,नागेसिया सहित सभी सोहराय मनाते हैं.
सोहराय पर्व का इतिहास
सोहराय पर्व राज्य के लगभग सभी जिलों में मनाया जाता है.इसकी शुरुआत दामोदर घाटी सभ्यता के इसको गुफा से हुई थी. आज भी प्राचीन मानवों द्वारा बड़े बड़े नागफनी चट्टानों में सोहराय कला को बनाया गया है. इस पर्व में सुख समृद्धि की कामना की जाती है. गोबर से गौशाला की लिपाई मिट्टी से की जाती है. पशुओं को उस दिन स्नान कराने के बाद तेल मालिश किया जाता है. उनके माथे पर सिंदूर तिक लगाया जाता है. पशुओं के शरीर पर गोलाकार लाल रंग का बनाया जाता है. उसके बाद इनकी पूजा की जाती है. सात तरह के अनाज से बने दाना और पकवान को खिलाया जाता है. पशुओं की सेवा करने वाले चरवाहा को दान के स्वरूप में कपड़े दिए जाते हैं. रामगढ़ जिले मे इस पर्व का महोत्सव मनाया जाता है. जिसमें कई पड़ोसी राज्यों से लोग शामिल होने आते हैं. झूमर गीत और मंदार की थाप पर सभी खूब नृत्य करते हैं.
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