पटना(PATNA)-2024 का जंग और पांच राज्यों में होने वाले सेमीफाइनल मुकाबले से ठीक पहले सीएम नीतीश ने अपना मास्टर कार्ड खेल दिया और आशा के अनुरुप यह तीर बिल्कुल निशाने पर लगता प्रतीत हो रहा है. दलों और गठबंधनों की दीवार भी दरकती नजर आने लगी है, सिर्फ और सिर्फ अपने जातीय समीकरण के हिसाब से नफा-नुकसान को तौला जाने लगा है.
भाजपा के दावों के विपरीत दलित जातियों को देखने लगा है हिस्सेदारी का रास्ता
जिस आक्रमकता के साथ भाजपा नेताओं के द्वारा इस पर प्रतिक्रिया दी जा रही है, जातीय जनगणना की रिपोर्ट को नकारते हुए इसे बिहार में जहर घोलने की कवायद बतायी जा रही है, उतनी ही विपरीत प्रतिक्रिया दलित और अति पिछड़ी जातियों के नेताओं के बयानों में देखने को मिल रही है. दलित-पिछड़ी जातियों से आने वालों नेताओं का तर्क भाजपा के स्टैंड से ठीक विपरीत दिशा में जाता दिख रहा है. उनका दावा है कि जातीय जनगणना की रिपोर्ट से 75 वर्षों के शोषण का पर्दाभाश हो गया. आजादी के बाद अब तक कुछ मुट्ठी भर जातियां ही बिहार की राजनीति को हांकती रही है, जिन जातियों की आबादी महज दो से चार फीसदी थी, विधान सभा से लेकर लोकसभा में उनकी तूती बोलती रही, अब वक्त आ गया है कि इस सियासी परिदृश्य को बदला जाय, और जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी के रास्ते भागीदारी का रास्ता साफ किया जाय.
पूर्व सीएम जीतन राम मांझी ने भी खोला मोर्चा
पूर्व सीएम और बिहार में दलित राजनीति का आइकॉन माने जाने जीतन राम मांझी ने जातीय जनगणना की रिपोर्ट जारी होने के बाद अपने सोशल मीडिया ट्वीट पर लिखा है कि’ बिहार में जाति आधारित गणना की रिपोर्ट आ चुकी है। सूबे के SC/ST,OBC,EBC की आबादी तो बहुत है पर उनके साथ हक़मारी की जा रही है। मैं माननीय नीतीश कुमार से आग्रह करता हूं कि राज्य में आबादी के प्रतिशत के हिसाब से सरकारी नौकरी/स्थानीय निकायों में आरक्षण लागू करें, वही न्याय संगत होगा.
मांझी के बयान से इस बात की तस्दीक होती है कि तीर निशाने लगा
पूर्व सीएम जीतन राम मांझी का यह बयान इस बात को रेखांकित करता है कि नीतीश का मास्टर कार्ड अपना काम करने लगा है, बिहार की पूरी राजनीति 15 बनाम 85 में उलझता नजर आने लगा है और खुद नीतीश कुमार की रणनीति भी यही थी. जिस प्रकार भाजपा लगातार उग्र हिन्दुत्व पर सियासी बैंटिंग कर ओबीसी-दलित मतदाताओं अपने पाले में कर रही थी, उसके बाद दलित-पिछड़ी जातियों की सियासी-सामाजिक भागीदारी का सवाल नेपथ्य में जाता दिख रहा था. उग्र हिन्दुत्व के इस भूचाल में कोई यह पूछने की जहमत भी नहीं उठा रहा था कि नौकरियों में दलित-अतिपिछड़ों की भागीदारी कितनी है, विधान सभा से लेकर लोकसभा में उनकी हिस्सेदारी क्या है. लेकिन जातीय जनगणना का आंकड़ा जारी होते ही यह सवाल नेपथ्य से राजनीति के मुख्य धारा में शामिल हो गया. और यही भाजपा की सियासी परेशानी की वजह है और जातीय जनगणना के आंकडों को नकारने का कारण भी.
क्या कहता का आंकड़ा
ध्यान रहे कि जातीय जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से बिहार में पिछड़े वर्ग की आबादी-27 फीसदी, अत्यंत पिछड़ों की आबादी-36 फीसदी, अनुसूचित जनजाति-1.68 और अनुसूचित जाति की आबादी-18.65 है. यदि इन आंकड़ों को हम जातिवार देखने की कोशिश करें तो यादव-14 फीसदी, ब्राह्मण-3.36, राजपूत-3.45,भूमिहार-2.86, मुसहर-3,कुर्मी-2.87, मल्लाह- 2.60, कुशवाहा- 4.21, रजक-0.83, कायस्थ-0.060 है.
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